संपादकीय:
कथा-व्यथा का तीसरा अंक हम जारी कर रहें है। हमारी टीम में नित्य नये सदस्य जुड़ते जा रहें हैं। सिंगापुर से श्रद्धा जैन तो पटना से महेश कुमार वर्मा हमारे टीम के दो नये सदस्यों से मुझे काफी सहयोग मिला। पिछले माह हमने कवियों के लिये अलग मंच बनाने का प्रयोग किया, उसकी सफलता को देखते हुऐ इस माह से हमने 'कवि मंच' का श्रीगणेश भी कर दिया है। एक सप्ताह से भी कम समय में हमारे पास जो मेल आये उसे 24 घंटे के भीतर ही 'कवि मंच' पर स्थान दे दिया गया। कथा-व्यथा और कवि मंच के पन्ने को तकनीकी कारणों से साधारण पृष्ठ रखा गया है। फोटो का प्रयोग जरूरत को देखते हुए ही किया गया है। कारण स्पष्ट है कि हम चाहते हैं कि हमारे पेज को खोलते समय आपको अधिक इंतजार न करना पड़े। कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि इस ई-पत्रिका का अपना 'डोनेम' होना चाहिये। आपको हम बता दें कि हमारी टीम पूर्ण रूप से इस बात से सहमत नहीं हैं। यह नहीं कि हमें इस बात की पूरी जानकारी नहीं है। हमें इस बात की तकनीकी जानकारी होते हुये भी हम चाहते हैं कि ब्लॉग के माध्यम से ही इस ई-पत्रिका का संचालन किया जाय ताकी साहित्य को हम अधिक सरल बना सके। इस ई-पत्रिका का उद्देश्य साहित्य की दुकान नहीं सजानी है, हमें साहित्य की सेवा करनी है। हम सभी साहित्यकारों को एक ही नज़र से देखते हैं। कथा-व्यथा को विश्वविद्यालय की पत्रिका नहीं बनाना चाह्ते, हम चाहते हैं कि तुतली जबान तक यह पत्रिका पहुंचे। हम तारे को जमीं से उठा कर आसमान पर लगाना चाहतें हैं, न कि आसमान के तारे को जमीं पर। इस ई-पत्रिका को जन-जन तक हम आप सब के सहयोग से ही पहुंचा सकते हें। अन्त में हम इतना ही कह सकते हैं कि कम समय में हमें जो सफलता मिली है। उसके लिये आप सभी बधाई के पात्र हैं। दीपावली की शुभकामना इस संदेश के साथ:
जलते हुए दीये से एक संदेश तो लेना ही होगा, शम्भु चौधरी
अंधेरे को मिटाने के लिये, किसी को तो जलना ही होगा।
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कथा-व्यथा का पिछला अंक-1 कथा-व्यथा का पिछला अंक-2
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डॉ.महेंद्र भटनागर
एम.ए., पी-एच. डी. (हिंदी)
जन्म: आपका जन्म २६ जून १९२६ को प्रातः ६ बजे झाँसी (उ. प्र.) में, ननसार में हुआ।
द्वि-भाषिक कवि — हिन्दी और अंग्रेज़ी। सन् १९४१ के लगभग अंत से काव्य-रचना आरम्भ। तब कवि (पन्द्रह वर्षीय) 'विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर' में इंटरमीडिएट (प्रथम वर्ष) के छात्र थे, सम्भवतः प्रथम कविता 'सुख-दुख' है; जो वार्षिक पत्रिका 'विक्टोरिया कॉलेज मेगज़ीन' के किसी अंक में छपी थी। वस्तुतः प्रथम प्रकाशित कविता 'हुंकार' है; जो 'विशाल भारत' (कलकत्ता) के मार्च १९४४ के अंक में भी पुनः प्रकाशित हुई। लगभग छह वर्ष की काव्य-रचना का परिप्रेक्ष्य स्वतंत्रता-पूर्व भारत; शेष स्वातंत्र्योत्तर।
आप हिन्दी की तत्कालीन तीनों काव्य-धाराओं से सम्पृक्त — राष्ट्रीय काव्य-धारा, उत्तर छायावादी गीति-काव्य, प्रगतिवादी कविता और समाजार्थिक-राष्ट्रीय-राजनीतिक चेतना-सम्पन्न रचनाकार हैं। सन् १९४६ से आप प्रगतिवादी काव्यान्दोलन से सक्रिय रूप से सम्बद्ध रहें हैं।
कविताओं का प्रकाशन
'हंस' (बनारस / इलाहाबाद) में कविताओं का प्रकाशन। तदुपरान्त अन्य जनवादी-वाम पत्रिकाओं में भी। प्रगतिशील हिन्दी कविता के द्वितीय उत्थान के चर्चित हस्ताक्षर। सन् १९४९ से काव्य-कृतियों का क्रमशः प्रकाशन।
आप प्रगतिशील मानवतावादी कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं। आपके काव्यों में समाजार्थिक यथार्थ के अतिरिक्त अन्य प्रमुख काव्य-विषय — प्रेम, प्रकृति, जीवन-दर्शन तो होते ही हैं।साथ ही आप दर्द की गहन अनुभूतियों के समान्तर जीवन और जगत के प्रति आस्थावान कवि भी हैं। अदम्य जिजीविषा एवं आशा-विश्वास के अद्भुत-अकम्प स्वरों के सर्जक। काव्य-शिल्प के प्रति विशेष रूप से जागरूक। छंदबद्ध और मुक्त-छंद दोनों में काव्य-सॄष्टि। छंद-मुक्त गद्यात्मक कविता अत्यल्प। मुक्त-छंद की रचनाएँ भी मात्रिक छंदों से अनुशासित। काव्य-भाषा में तत्सम शब्दों के अतिरिक्त तद्भव व देशज शब्दों एवं अरबी-फ़ारसी (उर्दू), अंग्रेज़ी आदि के प्रचलित शब्दों का प्रचुर प्रयोग। सर्वत्र प्रांजल अभिव्यक्ति। लक्षणा-व्यंजना भी दुरूह नहीं। सहज काव्य के पुरस्कर्ता। सीमित प्रसंग-गर्भत्व। विचारों-भावों को प्रधानता। कविता की अन्तर्वस्तु के प्रति सजग।
आपकी प्रारम्भिक शिक्षा झाँसी, मुरार (ग्वालियर), सबलगढ़ (मुरैना) में हुई। आपने शासकीय विद्यालय, मुरार (ग्वालियर) से मैट्रिक (सन् १९४१), विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर (सत्र ४१-४२) और माधव महाविद्यालय, उज्जैन (सत्र् ४२-४३) से इंटरमीडिएट (सन् १९४३), विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर से बी. ए. (सन् १९४५), नागपुर विश्वविद्यालय से सन् १९४८ में एम. ए. (हिन्दी) और सन्१९५७ में 'समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद' विषय पर पी-एच. डी. की।
आप जुलाई १९४५ से अध्यापन-कार्य — उज्जैन, देवास, धार, दतिया, इंदौर, ग्वालियर, महू, मंदसौर में करते रहे। आपने 'कमलाराजा कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, ग्वालियर (जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर) से १ जुलाई १९८४ को प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त ली।
कार्यक्षेत्र: चम्बल-अंचल, मालवा, बुंदेलखंड।
सम्प्रति शोध-निर्देशक - हिन्दी भाषा एवं साहित्य। आपके अधिकांश साहित्य 'महेंद्रभटनागर-समग्र' के छह-खंडों में एवं काव्य-सृष्टि 'महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा' के तीन खंडों में प्रकाशित हुऐ हैं।
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संपर्क:
डॉ. महेंद्रभटनागर
सर्जना-भवन, 110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर - 474 002 [म. प्र.]
फोन: 0751-4092908 / मो. 98934 09793
E-mail:drmahendrabh@rediffmail.com
डॉ. महेंद्र भटनागर चार कविताएँ
1. चाँद से
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नहीं और कोई कमी ज़िन्दगी में
चलो मिल के ढ़ूंढ़ें ख़ुशी ज़िन्दगी में
हज़ारों नहीं एक ख़्वाहिश है दिल में
मिले काश कोई कभी ज़िन्दगी में
अगर दिल किसी को बहुत चाहता है
उसे कर लो शामिल अभी ज़िन्दगी में
मोहब्बत की शाख़ों पे गुल तो खिलेंगे
अगर होगी थोड़ी नमी ज़िन्दगी में
निगाहों में ख़ुशबू क़दम बहके बहके
ये दिन भी हैं आते सभी ज़िन्दगी में
मिलेंगे बहुत चाहने वाले तुमको
मिलेगा न हमसा कभी ज़िन्दगी में
बिछड़कर किसी से न मर जाए कोई
वो मौसम न आए किसी ज़िन्दगी में
ना हंसते हैं ना रोते हैं
ऐसे भी इंसा भी होते हैं।
वक्त बुरा दिन दिखलाए तो
अपने भी दुश्मन होते हैं।
दुख में रातें कितनी तन्हा
दिन कितने मुश्किल होते हैं।
खुद्दारी से जीने वाले
अपने बोझ को खुद ढोते हैं।
दिल की धरती है वो धरती
हम जिसमें आंसू बोते हैं।
बात बात में डरने वाले
गहरी नींद में में कम सोते हैं।
सपने हैं उन आंखों में भी
फुटपाथों पर जो सोते हैं।
दिल के ज़ख़्मों को क्या सीना
दर्द नहीं तो फिर क्या जीना
प्यार नहीं तो बेमानी हैं
काबा , काशी और मदीन ।
महलों वालों क्या समझेंगे
क्या मेहनत,क्या धूल पसीना ।
मैं तो दरिया पार हुआ
बीच भंवर में रहा सफ़ीना ।
दूनी हो गई दिल की क़ीमत
इसे मिला है इश्क़ नगीना ।
तुम बिन तनहा है हर लम्हा
रीता रीता , साल - महीना ।
जो इंसां बदनाम बहुत है
यारो उसका नाम बहुत है।
दिल की दुनिया महकाने को
एक तुम्हारा नाम बहुत है।
लिखने को इक गीत नया सा
इक प्यारी सी शाम बहुत है।
सोच समझ कर सौदा करना
मेरे दिल का दाम बहुत है।
दिल की प्यास बुझानी हो तो
आंखों का इक जाम बहुत है।
तुमसे बिछड़कर हमने जाना
ग़म का भी ईनाम बहुत है।
इश्क़ में मरना अच्छा तो है
पर ये क़िस्सा आम बहुत है।
देवमणि पांडेय का संक्षिप्त परिचय:
देवमणि पांडेय जी का जून 1958 को सुलतानपुर (उ.प्र.) में हुआ। आप हिन्दी और संस्कृत में प्रथम श्रेणी एम.ए. हैं। अखिल भारतीय स्तर पर लोकप्रिय कवि और मंच संचालक के रूप में सक्रिय। आपके अब तक दो काव्यसंग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- "दिल की बातें" और "खुशबू की लकीरें"। मुम्बई में एक केंद्रीय सरकारी कार्यालय में कार्यरत पांडेय जी ने फ़िल्म 'पिंजर', 'हासिल' और 'कहां हो तुम' के अलावा कुछ सीरियलों में भी गीत लिखे हैं। फ़िल्म ' पिंजर ' के गीत '' चरखा चलाती माँ '' को वर्ष 2003 के लिए 'बेस्ट लिरिक आफ दि इयर' पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आपके द्वारा संपादित सांस्कृतिक निर्देशिका 'संस्कृति संगम' ने मुम्बई के रचनाकारों को एकजुट करने में अहम भूमिका निभाई है।
सम्पर्कः देवमणि पाण्डेयः ए-2, हैदराबाद एस्टेट, नेपियन सी रोड, मालाबार हिल, मुम्बई - 400 036,
M: 99210-82126 / R : 022-23632727,
E-mail: devmanipandey@gmail.com
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निशा भोसले : "मेरा होना कितना जरूरी"
मैं पेड़ हूँ,
मुझे मत काटो।
एक मैं ही हूँ
जन्म से मृत्यु तक
तुम्हारे साथ-साथ।
मेरे ही बने पलंग पर
तुमने जन्म पाया है
और मेरे ही बने झूले में
झूलकर बड़े हुए हो।
जब टूट जाते है,
सारे रिश्ते
लाठी बनकर
मैं ही साथ निभाता हुँ।
और आज तुम
मेरे ही अस्तित्व को
मिटा देना चाहते हो
सोचो !
इस पृथ्वी पर
मेरा होना कितना जरूरी है।
संपर्क पता:
शुभम विहार कालोनी बिलासपुर
छत्तीसगढ़ पिन 495001
शिक्षाः एम.ए. सोसियालोजी (M.A. Sociology)
छत्तीसगढ़ राज्य विधुत बोर्ड में कार्यरत साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाऐं प्रकाशित।
E-mail:kathavyatha@gmail.com
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सुनिल कुमार 'सोनु': सपनो का घरौंदा
टूट चुकी है सपनो का घरौंदा
लुट चुकी है अपनों की दुनिया
नदी सी बीच प्रवाह में
अनजानी सी राह में
भटक रहा हूँ मैं
जहाँ अँधेरा ही अँधेरा है
है आँखों में आंसू के सैलाब
दिल में जख्मो का डेरा है
शेष क्या रहा अब जीवन में
फ़िर भी धरकने कहती
क्या निराश हुआ जाय ?
अब प्रकृति के नियम पे
मेरी गर गई दृष्टी
'एक' है जो विनाश करता
एक ही करता है नव श्रृष्टि.
सूरज आज अंधेरे से निकल के
कल नव प्रभात ले आयेगी
जनता मैं भी विधि के विधान को
इस लोक के हैवान को,उस लोक के भगवान को
"समय सरे जख्मो को भर देती है"
असमंजस्य में हूँ तुम्ही बता दो
क्या इसपे विश्वास किया जाय ?
जिंदगी के रंग हज़ार,
कभी पतझर कभी बहार
कभी भर देती है असीम खुशिया
कभी कर देती है दिल को तार-तार
भरती है कोयल जीवन में राग
अच्छी लगाती है प्यार-अनुराग
सब किताबी बातें है,मेल नही जीवन में इसका
जब दिखे चरों तरफ़ आग ही आग
बदलेगी कुछ मंजर
रखती है कुदरत सबपे नजर
क्रूर मजाक तो कर लिया
उसने मुझे दुःख ही दुःख दिया
मैं तो अर्धमूर्छित हूँ
बहुत ही व्यथित हूँ
अन्तःकरण से एक सवाल उठे
"कुछ अच्छा होने की "
क्या आश किया जाय?
संपर्क पता:
SUNIL KUMAR SONU
36th ADC student NIFFT HATIA,Ranchi-834003
(Jharkhand)
mob no.9852341209
E-mail:sunilkumarsonus@yahoo.com
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आज तुम सफल हो
आज तुम सफल हो
आगे भी सफल रहो
यही कामना है ,
मेरे हृदय की !
सफल हो तुम मुझे -
भूल जाओगे ,
यही चिंता है
मेरे मन की !
पर मैं तुम्हारी ,
कहीं दूर छोर पर
प्रतीक्षा कर पल - पल ,
दीपक सा जलता जाऊंगा
और तुम मेरे स्नेह
प्रकाश की आभा
की सीमा को
छोड़ जाओगे
यही दुखित घटना होगी ,
मेरे जीवन की !
पर तुम निश्चिन्त हो
अपने लक्ष्य को एकाग्र करो ,
क्योंकि
यही मेरा भी लक्ष्य होगा !
पाओगे तुम आदर समाज में ,
तो मेरा भी आदर होगा !
ईश्वर से पार्थना है बस इतनी
कि मेरे पथ के सुख, बन पुष्प
तुम्हारे पथ पर बिछ जाये .
और तुम्हारे पथ के दुख -
मेरे पथ पर काँटे बन
मुझ को चुभ जाये !
आज तुम सफल हो ,
आगे भी सफल रहोगे ,
यह निश्चित होगा!
बस एक छोटी सी
बात ध्यान रखना
हर क्ष ण ,
सफल हो अभिमनीत मत होना ,
इस वृक्ष को अपनी चरित भूमि
पर मत लगने देना ,
क्योंकि यही फलित करता
असफलता के कड़वे फलो को !
जो पक कर, सड़-कर
गिर-कर ख़राब करेंगे
तुम्हारे ही जीवन-तल को!
आज तुम सफल हो
आगे भी सफल होगे ,
यही कामना मैं करता हूँ
तुम तो कर्म करो , यही कामना मैं करता हूँ।
संपर्क पता:
Nishant bhatt ,
Talab Mohulla ,
Vipin nagar , Itarsi , MP,
Pin - 461111
Mob no. 9926313524
E-mail: nishant8ips@gmail.com
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महेश कुमार वर्मा की तीन कविताएँ
1. आज का संसार
न्याय मांगने पर जहाँ होता है प्रहार
छीन लेता है मुख का आहार
पीड़ित के साथ होता है दुराचार
यही तो है आज का संसार
2. पंच
परमेश्वर या पापी
सुना था पंचायत में पंच आते हैं
जो ईमानदार व निष्पक्ष होते हैं
वह धर्मानुकुल उचित निर्णय सुनाते हैं
इसी लिए पंच को परमेश्वर कहते हैं
पर जब मैं देखा कि
आए हुए पंच ईमानदार नहीं पक्षपाती है
वह दूसरे पक्ष को सुनने वाला नहीं
बल्कि एकतरफा दोषी का साथ देने वाला है
वह निष्पक्ष फैसला करने वाला नहीं
बल्कि निर्दोष पर ही जानलेवा हमला करने वाला है
तो मुझे सोचना पड़ा कि
यह पंच परमेश्वर नहीं बल्कि पंच पापी है
3. कोई नहीं है मेरा मुझे पहचानकर
आते हैं आंखों में आंसू यह जानकर
कोई नहीं है मेरा मुझे पहचानकर
अंधे हैं वो आँख रखकर
बहरे हैं वो कान रखकर
गूंगे हैं वो मुँह रखकर
कोई नहीं है मेरा मुझे पहचानकर
हैवानियत की हद कर दी उसने
इंसानियत की नाम नहीं है
कितने भी बड़े क्यों न हो
मानवता की पहचान नहीं है
कहने को तो हैं वो सज्जन
पर दुर्जन से कम नहीं हैं
कुछ बोलो तो होगी पिटाई
जल्लाद से वो कम नहीं हैं
हैं वो हैवान इन्सान बनकर
तड़पाते हैं वो हमेशा शैतान बनकर
कोई नहीं है मेरा मुझे पहचानकर
कोई नहीं है मेरा मुझे पहचानकर।
महेश कुमार वर्मा: का परिचय
शिक्षा : प्राथमिक / मध्य विद्यालय : राजकीय कन्या मध्य विद्यालय, छत्तरपुर, पलामू (झारखण्ड); उच्च विद्यालय : राजकीय संपोषित उच्च विद्यालय, छत्तरपुर, पलामू (झारखण्ड); मैट्रिक : राजकीय संपोषित उच्च विद्यालय, छत्तरपुर, पलामू (झारखण्ड); बोर्ड : बिहार विद्यालय परीक्षा समिति, पटना; वर्ष : 1993; इंटर --I.Sc. (Math) : B. D. Evening College, Patna; बोर्ड : Bihar Intermediate Education Council, Patna; वर्ष : 1995
वर्तमान पता: DTDC कुरियर ऑफिस, सत्यनारायण मार्केट, मारुती (कारलो) शो रूम के सामने, बोरिंग रोड, पटना (बिहार), पिन : 800001 (भारत);
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अखिलेश सोनी: कब तलक चुपचाप तमाशा देखोगे ?...
कब तलक चुपचाप तमाशा देखोगे ?...
ये समय नहीं हैं आँख बंद कर सोने का
ये समय नहीं हैं वक्त को ऐसे खोने का
चलो बदल दो देश की हालत आगे आओ
ये समय नहीं हैं नेताओं को ढ़ोने का
वरना तुम घनघोर तमाशा देखोगे ?...
कह विकास का सर्वनाश यह करते आए
भारत माँ का मान सदा यह हारते आए
खाद, हवाला हो या हो चारा घोटाला
जेबें अपनी नोटों से यह भरते आए
क्या विकास की यह परिभाषा देखोगे ?...
अपने स्वार्थ के खातिर जो विस्फोट कराते
मन्दिर, मस्जिद धर्म के नाम पर चोट कराते
चोर लुटेरे थे कल तक जो अपने देश में
नेता बनकर कितने जाली वोट कराते
इनकी ओर तुम किस आशा से देखोगे ?...
अब तो जरूरी है संभल जाना तुम्हारा
अब तो जरूरी है मचल जाना तुम्हारा
अब तो तुम्हारी आंखों से अंगार बरसें
अब तो जरूरी है उबल जाना तुम्हारा
दुष्टों को क्या खून का प्यासा देखोगे ?...
राम राज्य सी हो जाए तस्वीर देश की
स्वर्ग से सुंदर हो जाए तस्वीर देश की
मूक बना यह देश तुम्हारी ओर देखता
नौजवान ही बदल सका तकदीर देश की
कब तक तुम और दीप बुझा सा देखोगे ?...
कब तलक चुपचाप तमाशा देखोगे ?
वर्तमान में 'पत्रिका' समाचार समुह में "Graphic Designer" के रूप में कार्यरत।
शिक्षा: B.A. (Hindi sahitya) aur M.A. (urdu saahitya)
फोन : +91-9993759314
Address : New Subhash Nagar, Bhopal
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देवेन्द्र कुमार मिश्रा: ऐसा भी हो सकता है
कभी नहीं था सोचा मैंने, ऐसा भी हो सकता है ।
बिन ईधन के चलना मुश्किल, सब की हालत खसता है ।।
सब की हालत खसता है, ईधन हुआ मंहगा नशा ।
अमेरिका-ईरान संबंधों से, हुई यह दुर्दशा ।।
कच्चे तेल की बढती कीमत, परेशान हैं आज सभी ।
दादा गिरी, आपना असत्तव, असर दिखाये कभी-कभी ।।
बिगडा पर्यावरण, कहीं है बाढ-कहीं है सूखा ।
कृषि उत्पादन कमी आई है, आज किसान है भूखा ।।
आज किसान है भूखा, लागत ज्यादा उत्पादन कम ।
कर्जा चुका नहीं है पाता, तोड रहा है दम ।।
सुरसा जैसा मुँह फैलाये, मंहगाई ने झिगडा ।
विदेशी आनाज मगाया, देशी बजट है बिगडा ।।
मकान, सोना चाँदी, हुई आज है सपना ।
बेरोजगारी बढती जाती, रंग दिखाती अपना ।।
रंग दिखाती अपना, आज है मुश्किल शिक्षा पाना ।
भ्रष्टाचार का जाल है फैला, योग्य-अयोग्य न जाना ।।
शादी के संजोये सपने, मंहगाई फीके पकवान ।
कर्मचारी, मजदूर, किसान, बचा सके न आज मकान ।।
नेता की परिभाषा बदली, पाखंडी बनाया बेश ।
कभी भूनते तंदूरों में, बाहुबली चलाते देश ।।
बाहुबली चलाते देश, धर्म-जाति आपस लडबाते ।
सत्ता में आ जाते , वेतन सुख-सुविधाएं पाते ।।
सब कुछ मंहगा मौत है सस्ती, लाज के ये क्रेता ।
कुछ नही सिद्धांत इनका, भ्रष्ट आचरण नेता ।।
दर-दर बढती जनसंख्या, भूमि है स्थाई ।
कृषि भूमि में बनी हैं बस्ती, ऐसी नौबत आई ।।
ऐसी नौबत आई, जनसंख्या पर रोक लगाओ ।
नूतन तकनीती से, आवश्यकता पूर्ण कराओ ।।
विज्ञानकों का कर आव्हान, अविष्कार को कर ।
पर्यावरण का कर संरक्षण, रोको मंहगाई की दर ।।
संपर्क पता:
देवेन्द्र कुमार मिश्रा
अमानगंज मोहल्ला नेहरु बार्ड न0 13
छतरपुर (म0प्र0)
E-mail:devchp@gmail.com
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प्रकाश यादव "निर्भीक" की दो कविता
1. वेदना विरह की
पहला विरह है यह पहली मिलन की,
लगता है यह विरह है धरती व गगन की;
खुशबू अब जाती रही अपनी चमन की,
जीवन मेँ न चमक रही अब कंचन की।
अकेलापन का ही दर्द अब रह सा गया,
मिलन की मिठास को विरह ही खा गया;
अभी-अभी बसंत था वो कहाँ खो गया,
देखते ही देखते अभी पतझड़ आ गया।
यादोँ की परिधि मेँ जिन्दगी सिमट गई,
धड़कन जो थी ज़िगर की वही विछड़ गई;
सुबह होने से पहले ही फिर शाम हो गई,
कली खिलते-खिलते अधखिली रह गई।
वेदना विरह की अब कम होने से रही,
मिलन की मिठास अब मिलने से रही;
जो बात है उसमेँ इस तस्वीर मेँ नहीँ,
सदाबहार शायद मेरी तकदीर मेँ नहीँ।
विरह के बाद फिर मिलन होगी कभी,
इसी आस से बैठा है सुखी डाल पे अलि;
बनेगेँ फूल फिर इस उपवन की कली,
आयेगी बहार तब जीवन जो मेँ मिली थी कभी।
2. प्यार का सागर
रुक जा रात ठहर जा चन्दा
देख लेने दे जी भर जर मुझे
कौन जाने ऎसी अनमोल घडी
जिन्दगी में फिर आये या नहीं
कमलकान्त सी सुन्दर हंसी को
आत्मसात कर लेने दे अब मुझे
गम भरी इस दुनियां में फिर कभी
ऎसी कुमुदिनी हंसी मिले न मिले
मन्द मन्द चल ये जीवन के पल
क्यों जल्दी हैं तुम्हें इतनी पडी
जीवन में मिला अमूल्य मौका
शायद ही सफ़र में मिले कभी
नीली झील सी इन आंखों में
समायी है दुनियां आनन्दमयी
उस आनन्दमयी झील में मुझे
समा लेने दे कुछ देर ही सही
सुन्दरतम सी इस कोमल ह्रिदय में
है छिपा असीम प्यार का सागर
इस सागर में मुझ निर्भीक को
अम्रितपा्न कर लेने दे कुछ देर सही
दयावान सी इस विशाल ह्रिदय की
सुकोमल छाया में मुझे जी लेने दे
निष्ठुर ह्रिदय भरी इस दुनियां में
कभी फिर ऎसी छाया मिले न मिले
रजनी की काली कालिमा में भी
जो देती है कान्तिमय मणी प्रकाश
उस मणी के मधुर सानिध्य से
मत दूर भगा ले जा मुझे आकाश
मधुमास के इस मधुरिमा में
जीने की चाह है यहां किसे नहीं
मेरे सौभाग्य को इस पलछिन को
उडा कर कोई मत ले जा कहीं
संपर्क पता:
प्रकाश यादव "निर्भीक", अधिकारी, बैँक ऑफ़ बड़ौदा,
तिलहर शाखा, जिला-शाहजहाँपुर,उ0प्र0, मो.09935734733
E-mail:nirbhik_prakash@yahoo.co.in
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राजीव तनेजा - "भडास दिल की कागज़ पे उतार लेता हूँ मैं"
क्या लिखूँ.. कैसे लिखूँ...
लिखना मुझे आता नहीं...
टीवी की झकझक..
रेडियो की बकबक..
मोबाईल में एम.एम.एस..
कुछ मुझे भाता नहीं
भडास दिल की...
कब शब्द बन उबल पडती है
टीस सी दिल में..
कब उभर पडती है...
कुछ पता नहीं
सोने नहीं देती है ..
दिल के चौखट पे..
ज़मीर की ठक ठक
उथल-पुथल करते..
विचारों के जमघट
जब बेबस हो..तमाशाई हो..
देखता हूँ अन्याय हर कहीं
फेर के सच्चाई से मुँह..
कभी हँस भी लेता हूँ
ज़्यादा हुआ तो..
मूंद के आँखे...
ढाँप के चेहरा...
पलट भाग लेता हूँ कहीं
आफत गले में फँसी
जान पडती है मुझको
कुछ कर न पाने की बेबसी...
जब विवश कर देती मुझको..
असमंजस के ढेर पे बैठा
मैं 'नीरो' बन बाँसुरी बजाऊँ कैसे
क्या करूँ...कैसे करूँ...
कुछ सूझे न सुझाए मुझे...
बोल मैं सकता नहीं
विरोध कर मैं सकता नहीं
आज मेरी हर कमी...
बरबस सताए मुझको
उहापोह त्याग...कुछ सोच ..
लौट मैं फिर
डर से भागते कदम थाम लेता हूँ ...
उठा के कागज़-कलम...
भडास दिल की...
कागज़ पे उतार लेता हूँ
ये सोच..खुश हो
चन्द लम्हे. ..
खुशफहमी के भी कभी
जी लेता हूँ मैं कि..
होंगे सभी जन आबाद
कोई तो करेगा आगाज़
आएगा इंकलाब यहीं..
हाँ यहीँ...हाँ यहीँ
सच..
लिखना मुझे आता नहीं...
फिर भी कुछ सोच..
भडास दिल की...
कागज़ पे उतार लेता हूँ मैं"
संपर्क पता:
राजीव तनेजा
E-mail:rajivtaneja2004@gmail.com
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1. पहला झूठ
जली हुई रुई की बत्ती
बड़ी आसानी से जल जाती है
नई बत्ती
जलने में बड़ी देर लगाती है
आसान हो जाता है
रफ़्ता रफ़्ता
है बस पहला झूठ ही
मुश्किल से निकलता.
2. ज़ुबान
सिर पर चढ़ के
बोलता है झूठ
यही सोच के
ख़ामोश हूँ मैं
इसका क़तई
ये अर्थ न लो
कि मेरे मुँह में
ज़ुबान नहीं
3. मेरी ख़ामोशी
मेरी ख़ामोशी
एक गर्भाशय है
जिसमें पनप रहा है
तुम्हारा झूठ
एक दिन जनेगी ये
तुम्हारी अपराध भावना को
मैं जानती हूँ
तुम साफ़ नकार जाओगे
इससे अपना कोई रिश्ता
यदि मुकर न भी पाए तो
उसे किसी के भी
गले मढ़ दोगे तुम
कोई कमज़ोर तुम्हें
फिर कर देगा बरी
पर तुम
भूल कर भी न इतराना
क्योंकि एक गर्भाशय है
जिसमें पनप रहा है
तुम्हारा झूठ!
4. बचाव
कचहरी में बड़े बड़े झूठ
एक छोटे से
सच के सामने
सिर झुकाए खड़े थे
और बाहर
सबसे नज़रें चुराता
सच
छिपता छिपाता
अपने बचने का
रस्ता ढूँढ रहा था।
5. जंगल
शक और झूठ
बो दिये उसने मेरे मन में
खर पतवार से
लगे वे बढ़ने
अब तो बस
जंगल ही जंगल है
बाहर जंगल
जंगल मन में!
6. शैतान
शैतान का पिता है झूठ
लम्बा चौड़ा और मज़बूत
सच है गांधी जैसा कृशकाय
बदन पे धोती लटकाए!
7. अँधेरा
सच को न तो
ओढ़नी चाहिए
न ही कोई बिछौना
झूठ ही ढूँढता है
एक काली चादर
और छिपने के लिए
एक अँधेरा कोना!
8. आरोप
झोंपड़े की
झिर्रियों से
झर के आते झूठ
ख़सरे से फैलने लगे
बदन पर मेरे
कितने छिद्रों को बन्द करती
केवल अपने दो हाथों से
सच को सीने में छिपा
मैं जलती चिता पर
बैठ गई
न रहीं झिर्रियाँ
न झोंपड़ा
न ही झूठ!
9. सती हो गया सच
तुम्हारे छोटे, मँझले
और बड़े झूठ
खौलते रहते थे मन में
दूध पर मलाई सा
मैं जीवन भर
ढकती रही उन्हें
पर आज उफ़न के
गिरते तुम्हारे झूठ
मेरे सच को
दरकिनार गए
मेरी ओट लिए
तुम साधु बने खड़े रहे
और झूठ की चिता पर
सती हो गया सच!
10. आधा सच
तुम्हारा आधा सच
बड़ा खतरनाक निकला
आधी ज़िन्दगी को मेरी
मसला कुचला
बाकी को दिया
तुमने झुठला!
11. औकात
जानते हुए कि
वह झूठ बोल रहा है
सब चुपचाप सुनते रहे
जानते हुए कि
मैं सच बोल रही हूँ
किसी ने मेरी न सुनी
बात सच या झूठ की नहीं
औकात की है!
12. रवायत
अजब ये रवायत चली आ रही है
झूठे को झूठा कहते नहीं है
सुन झूठ लेती है दुनिया अदब से
सच को सदा पर सब सहते नहीं है।
दिव्या माथुर जी का संक्षिप्त परिचय
जन्म एवं शिक्षा दीक्षा: दिल्ली में एम. ए. (अँग्रेज़ी) के अतिरिक्त दिल्ली एवं ग्लास्गो से पत्रकारिता में डिप्लोमा। चिकित्सा-आशुलिपि का स्वतंत्र अध्ययन।
कर्मक्षेत्र:1985 में आप भारतीय उच्चायोग से जुड़ीं और 1992 से नेहरु केंद्र में वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। पिछले दो सालों में उन्होने क़रीब 500 से भी अधिक कार्यक्रमों का आयोजन किया, उनका ये रिकार्ड अभी तक शायद ही कोई तोड़ पाया हो। आपका लन्दन के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन मे अपूर्व योगदान रहा है।
रौयल सोसाइटी की फ़ेलो, वातायन : साउथ बैंक पर कविता की संस्थापक, आशा फ़ाउंडेशन और पेन संस्थाओं की संस्थापक सदस्य, यू के हिन्दी समिति की उपाध्यक्ष, नाज़िया हसन फ़ाउंडेशन और विंडरश पुरस्कार समितियों की सदस्य, कथा यू के की पूर्व अध्यक्ष और अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन की सांस्कृतिक अध्यक्ष, ग्रेट ब्रिटेन हिन्दी लेखक संघ की प्रबंध सचिव, आप 'प्रवासी टाईम्स' की प्रबंध संपादक और कई पत्र, पत्रिकाओं के संपादक मंडल में शामिल हैं, जैसे कि 'अक्षरम', 'पुरवाई' और 'विश्व विवेक'। नेत्रहीनता से सम्बंधित कई संस्थाओं में इनका अभूतपूर्व योगदान रहा है. इसी विषय पर इनकी कहानियाँ और कविताऎं ब्रेल लिपि में प्रकाशित हो चुकी हैं।
प्रकाशित रचनाएँ :अंतःसलिला, रेत का लिखा, ख़्याल तेरा, चंदन पानी और 11 सितम्बर : सपनों की राख तले, झूठ, झूठ और झूठ (कविता संग्रह), पंगा और आक्रोश (कहानी संग्रह - पदमानंद साहित्य सम्मान द्वारा सम्मानित), Odyssey : Stories by Indian Women Writers Settled Abroad (अँग्रेज़ी में संपादन) एवं Asha : Stories by Indian Women Writers (अँग्रेज़ी में संपादन) । आक्रोश, Odyssey एवं Asha तीनों संग्रहों के पेपरबैक संस्करण आ चुके हैं।
साहित्येतर गतिविधियाँ : पॉल रौबसन द्वारा प्रस्तुत आपके नाटक Tete-a-tete और अन्य कहानियों का भी सफल मंचन. हाल ही में दिल्ली दूरदर्शन ने इनकी कहानी, सांप सीढी, पर एक फ़िल्म निर्मित की है. नैशनल फ़िल्म थियेटर के लिये अनुवाद के अतिरिक्त बी बी सी द्वारा निर्मित फ़िल्म, कैंसर, का हिंदी रूपांतर, मंत्रा लिंगुआ के लिए बच्चों की कई पुस्तकों का हिंन्दी में अनुवाद, रेडियो एवं दूरदर्शन पर इनके कार्यक्रम के नियमित प्रसारण के अतिरिक्त, इनकी कविताओं को कला संगम संस्था ने भारतीय नृत्य शैलियों के माध्यम से सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया। राधिका चोपड़ा, रीना भारद्वाज, कविता सेठ और सतनाम सिंह सरीखे विशिष्ट संगीतज्ञों ने इनके गीत और ग़ज़लों को न केवल संगीतबद्ध किया, अपनी आवाज़ से भी नवाज़ा।
सम्मान:राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं निमंत्रित, दिव्याजी को Arts Achiever-2003 Award for the oustanding contribution and innovation in the field of Arts by the Arts Council of England), Individuals of Inspiration and Dedication Honour (Chinmoy Mission), कथा यू के द्वारा पदमानंद साहित्य सम्मान, प्रवासी साहित्य सम्मान, समाज सेवा में योगदान के लिए Experience Corps Recognition & Merit Certificate, यू.के. हिंदी समिति द्वारा संस्कृति सेवा सम्मान और कविता के क्षेत्र में इंटरनैशनल लाएब्रोरी ऑफ़ पोइटरी द्वारा सम्मानित किया जा चुका है. कानपुर विश्वविध्याल के अंतर्गत, डा अर्चना देवी ने ‘दिव्या माथुर की साहित्यिक उपलब्धियाँ नामक स्नातकोत्तर शोध निबन्ध लिखा है. इन्हें ‘इक्कीसवीं सदी की प्रेणात्मक महिलाएं’ और ‘ऐशियंस हू ज़ हू की सूचियों में भी सम्मलित किया गया है।
संप्रति : नेहरु केंद्र (लंदन में भारतीय उच्चायोग का सांस्कृतिक विभाग) में वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी।
संपर्क पता:
Senior Programme Officer
The Nehru Centre
8 South Audley Street, London W1K 1HF
Tel : 020 7491 3567/7493 2019,
www.nehrucentre.org.uk
E-mail: divyamathur@aol.com
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डॉ परमजीत ओबेरॉय की चार कविताएँ
1. रे मन
मन कर तू चिंतन
सदा सच्चाई और मृत्यु का।
मृत्यु शाश्वत
अन्य सब नश्वर।
देता सभी को एक सा ईश्वर
कर्मोंनुसार बदलता है भाग्य क्षण क्षण।
सबमें उसी का ही अंश बसा
रखकर यह ध्यान
सबसे कर प्रेम व्यवहार
जाएगा जब तू उसके द्वार
तभी दे पायेगा उत्तर
करके आँखें चार।
जिसके जीवन में सदाचार
उसे मिलता है बड़ों का बरदान।
सभी कुकर्मों का छोड़ ध्यान
अपने में भर ले शुभविचार।
जाना है सबको इस जीवन सागर के पार
कर इसका अपने मन में विचार बारंबार।
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2. चक्र
वर्षा के दिन देख
सहसा कुछ कीट पतंगें
मन हो जाता है व्यग्र
सोचकर यह कि
हम भी थे कभी उन जैसे
आज हमें है घृणा उनसे
कभी उन्हें भी होती होगी हमसे
जब वे थे मनुष्य।
घृणा का यह चक्र
दिन पति दिन होता जा रहा है
चक्र।
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3. समय की आग
धधकती आग
मानव मन में
ईर्ष्या की द्वेष की
भूख की द्नंद्व की।
स्वयं को
अपनी विद्वत्ता श्रेष्ठता
महानता दिखाने की
वास्तव में आग है
पवित्रता दृढ़ता सच्चाई और
उज्ज्वलता का प्रतीक।
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4. शरीर घट में
शरीर घट में
आत्मारूपी यात्री का डेरा
यात्री जब चाहे चला जाए
उसका न कोई एक बसेरा।
घूम सर्व विश्व सागर में
मिला उसे न कहीं सवेरा
जन्म सवेरा
जवानी दोपहर
शाम संध्या
रात बुढ़ापा जान
लगे सब ओर अँधेरा
इन सब का ज्ञान है तुझे
हे मानव
फिर भी मन न तेरा फिरा
भेद भाव और माया जाल में
बीत रहा यह जीवन तेरा
मनुष्य जन्म नहीं मिलना आसान
जान सब अनजान बना रहा तू
मन में ले चिंताओं का घेरा
अज्ञान धुंध में न दिखता तुझे
खोई सपना सुंदर सुनहला
कितने क्षण आए जागने के तेरे
सदा तूने है जिनसे मुख मोड़ा
इस झूठ और माया की दुनिया में
जीवन भर करता रहा तू
मेरा मेरा
अंत समय जब आएगा
रह जाएगा यहाँ सब तेरा
याद रख सदा
जाना पड़ेगा ईश द्वार में
खाली और अकेला
इस क्षणभंगुर शरीर से
करता रहा तू मोह बहुतेरा
पंचतत्वों का जो बना
था उसे सत्य मान
तू बहुत खेला।
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डॉ परमजीत ओबेरॉय: संक्षिप्त परिचय
4, दिसंबर 1966 को जन्म। दिल्ली यूनिवर्सिटी से एम.ए. और पी.एच-डी.। 16 सालों तक विभिन्न स्कूलों में अध्यापन के बाद बहरीन में पढ़ाती हैं ।
1. Welham Boys’ School, Dehradun, Uttranchal, India. Residential School affiliated with ICSE.[1992-1996] 2. The Indian School, Al-Ghubra, Muscat, Oman. CBSE syllabus. [1996-1998] 3. Shanti Gyan Niketan, New Delhi. CBSE syllabus. [1998-1999] 4. The Indian School, Sohar, Oman. CBSE syllabus. [1999-2005] 5. The Indian School, Bahrain. CBSE syllabus. [2005-2007] 6. New Millennium School [Delhi Public School] Bahrain. CBSE Syllabus. [2007- Cont.] Extra Co-Curricular Activities : She can organize various Literary activities. Special Knowledge : Hindi - English Typing and Computer. Publish Work : Workbooks for classes : 10th, 9th, 7th and 4th. She can teach Punjabi as Third language and looking the school magazine (Hindi Section)
संपर्क पता:
NEW MILLENNIUM SCHOOL, P.O.BOX 26271, AL-AHLI CLUB
COMPLEX, ZINJ-KINGDOM OF BAHRAIN.
MOBILE NOS. 00973-39629609/ 36676203.
E-mail:rajesh_oberoi67@yahoo.com
दीप्ति गुप्ता की कविता: 'जीवन'
फूल ने कहा दरख्त से जीवन क्या है ?
दरख्त ने कहा - जीवन विकास की एक अनूठी वर्तुल यात्रा है,
जो शुरू होती है – बीज के प्रस्फुटन से, परिवर्द्धित होती है,
पोषित होती है शाखा, प्रशाखाओं में........ हरियाती है,
किसलयों में, किसलयों से पत्तों में पत्तों के बीच पुष्पित
फूलों में, फूलों से फलते फलों में, फलों में छुपे ‘बीज’ में
‘वही बीज’ जिसने जड़ों को धरती में गहरे जमाया था
तने, शाखाओं, पतों, फूलों से होता हुआ मेरे शीर्ष,
मेरी अन्तिम परिणति फल में चुपके से समा जाता है !
फूल को चकित देख, दरख्त ने पूछा - क्यों तुम इतने खामोश हो ?
क्या जीवन तुम्हें वर्तुल नहीं लगता ?
तो फिर तुम्हारी दृष्टि में ‘‘जीवन क्या है ?’’
फूल गहरी उदासी से, हौले-हौले बोला - जीवन एक महायात्रा है,
जो सूर्य की सुनहरी किरणों से शुरू होकर दिन के उजाले से
गुजरती हुई संध्या झुटपुटे से सरकती हुई रात के गहन अँधेरे में
खो जाती है ! तुम देखते नहीं, प्रातः खिला मेरा रूप
शाम तक कितना बेरौनक हो जाता है ?
सुबह सीधी तनी मेरी कमर शाम तक कैसी झुक जाती है !
मुरझाई झुर्राई मेरी पँखुड़ियाँ कैसी बेजान हो जाती हैं ?
रात के आने तक मेरा अस्तित्व
एक कंकाल में परिणत हो चुका होता है.......!
तभी फूल ने वृक्ष की शाख पर बैठी बुलबुल की ओर देखा
और कहा - क्यों ? तुम क्या सोचती हो चिरैया कि -
जीवन क्या है ?
चिरैया ने पँख फड़फड़ाए, इस डाल से उस डाल पर फुदकी
और बोली - भाई मेरे ! जीवन तो परिश्रम है,
भोर भये उठती हूँ, दूर - दूर तक उड़ती हूँ,
तब भी नहीं थकती हूँ सारे दिन दाने की तलाश में
श्रम ही श्रम करती हूँ दाना चुगती हूँ,
बच्चो को खिलाती हूँ, बैठे - बैठे सोती हूँ
आराम कहाँ है जीवन में ..!!!
डॉ.दीप्ति गुप्ता का परिचय:
आगरा विश्वविद्यालय से शिक्षा- दीक्षा ग्रहण की। कालजयी साहित्यकार अमृतलाल नागर के उपन्यासों पर पी.एच-डी. की उपाधि प्राप्त की । तदनन्तर क्रमश : तीन विश्वविद्यालयों - रूहेलखंड विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली एवं पुणे विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अध्यापनरत रहीं। तीन वर्ष के लिए भारत सरकार व्दारा "मानव संसाधन विकास मंत्रालय", नई दिल्ली में "शैक्षिक सलाहकार" पद पर नियुक्त रहीं। समय से पूर्व रीडर पद से स्वैच्छिक अवकाश लेकर से पूर्णतया रचनात्मक लेखन में संलग्न।
राजभाषा विभाग, हिन्दी संस्थान, शिक्षा निदेशालय, व शिक्षा मंत्रालय, नई दिल्ली एवं Casp, MIT, Multiversity Software Company , Unicef ,Airlines आदि अनेक सरकारी एवं गैर-सरकारी विख्यात संस्थानों में एक प्रतिष्ठित अनुवादक के रूप में अपनी सेवाएँ दी।
हिंदी और अंग्रेज़ी में कहानियाँ व कविताएँ, सामाजिक सरोकारों के लेख व पत्र आदि प्रसिध्द साहित्यिक पत्रिकाओं - "साक्षात्कार" (भोपाल), "गगनांचल" (ICCR, Govt of India), "अनुवाद"," नया ग्यानोदय" (नई दिल्ली), हिंदुस्तान, पंजाब केसरी, नवभारत टाइम्स, जनसत्ता, विश्वमानव, सन्मार्ग(कलकत्ता), Maharashtra Herald, Indian Express, Pune Times ( Times of India) और मॉरिशस के "जनवाणी" तथा "Sunday Vani में प्रकाशित। नैट पत्रिकाओं में कहानियाँ और कविताओं का प्रकाशन एवं प्रसारण । नैट पर English की भी 30 कविताओं का प्रसारण, जिनमें से अनेक कविताएँ गहन विचारों, भावों, सम्वेदनाओं व उत्कृष्ट भाषा के लिए "All Time Best " के रूप में सम्मानित एवं स्थापित।
हिंदी में 'अंतर्यात्रा' और अंग्रेज़ी में 'Ocean In The Eyes' कविता संग्रह प्रकाशित व पद्मविभूषण 'नीरज जी' व्दारा विमोचन।
कहानी संग्रह "शेष प्रसंग " की अविस्मरणीय उपलब्धि है - भूमिका में कथा सम्राट् "कमलेश्नर जी" द्वारा अभिव्यक्त बहुमूल्य विचार, जो आज हमारे बीच नहीं हैं। प्रख्यात साहित्यकार - अमरकान्त जी, मन्नू भंडारी, सूर्यबाला, ममता कालिया द्वारा "शेष प्रसंग " की कहानियों पर उत्कृष्ट प्रतिक्रिया दी है।
''हरिया काका'' कहानी को उसकी मूल्यपरकता के कारण पुणे विश्वविद्यालय के हिन्दी स्नातक (F.Y) पाठ्यक्रम में शामिल में होने का गौरव प्राप्त हुआ है तथा अन्य एक और कहानी व कविताओं को भी स्नातक (S.Y.) में शामिल किए जाने की योजना है। इन्टरनैट पर संचरण करती, सामाजिक एवं साम्प्रदायिक सदभावना से भरपूर ''निश्छल भाव'' कविता एवं माँ और बेटी के खूबसूरत संवाद को प्रस्तुत करती ''काला चाँद'' कविता को Cordova Publishers द्वारा New Model Indian School (NRI ) भारत एवं विदेश की सभी शाखाओं के लिए, पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है।
दिल्ली और पुणे रेडिओ पर अनेक चर्चाओं और साक्षात्कारों में भागीदारी।
लेखन के अतिरिक्त "चित्रकारी" में गहन रुचि । "ईश्वर" "प्रकृति" के रूप में चारों ओर विद्यमान "उसका ऐश्वर्य" और "मानवीय भाव" प्रमुख रूप से चित्रों की थीम बनकर उभरे तथा साहित्यिक रचनाओं की भाँति ही दूसरों के लिए सकारात्मक प्रेरणा का स्त्रोत रहे हैं।
- Email:drdeepti25@yahoo.co.in
1. श्मशान
कंक्रीटों के जंगल में
गूँज उठते हैं सायरन
शुरू हो जाता है
बुल्डोजरों का ताण्डव
खाकी वर्दियों के बीच
दहशतजदा लोग
निहारते हैं याचक मुद्रा में
और दुहायी देते हैं
जीवन भर की कमाई का
बच्चों के भविष्य का
पर नहीं सुनता कोई उनकी
ठीक वैसे ही
जैसे श्मशान में
चैनलों पर लाइव कवरेज होता है
लोगों की गृहस्थियों के
श्मशान में बदलने का।
2. एस. एम. एस.
अब नहीं लिखते वो खत
करने लगे हैं एस. एम. एस.
तोड़ मरोड़ कर लिखे शब्दों के साथ
करते हैं खुशी का इजहार
मिटा देता है हर नया एस. एम. एस.
पिछले एस. एम. एस. का वजूद
एस. एम. एस. के साथ ही
शब्द छोटे होते गए
भावनाएँ सिमटती गईं
खो गयी सहेज कर रखने की परम्परा
लघु होता गया सब कुछ
रिश्तों की कद्र का अहसास भी
3. सिमटता आदमी
सिमट रहा है आदमी
हर रोज अपने में
भूल जाता है भावनाओं की कद्र
हर नयी सुविधा और तकनीक
घर में सजाने के चक्कर में
देखता है दुनिया को
टी. वी. चैनल की निगाहों से
महसूस करता है फूलों की खुशबू
कागजी फूलों में
पर नहीं देखता
पास-पड़ोस का समाज
कैद कर दिया है
बेटे को भी
चहरदीवारियों में
भागने लगा है समाज से
चैंक उठता है
कॉलबेल की हर आवाज पर
मानो
खड़ी हो गयी हो
कोई अवांछित वस्तु
दरवाजे पर आकर।
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आकांक्षा यादव का परिचय:
जन्म : 30 जुलाई 1982, सैदपुर, गाजीपुर (उ0 प्र0) शिक्षा: एम0 ए0 (संस्कृत) विधा: कविता, लेख व लघु कथा, प्रकाशन: साहित्य अमृत, कादम्बिनी, दैनिक जागरण, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, दैनिक आज, अहा जिन्दगी, गोलकोण्डा दर्पण, युगतेवर, प्रगतिशील आकल्प, शोध दिशा, इण्डिया न्यूज, रायसिना, साहित्य क्रांति, साहित्य परिवार, साहित्य परिक्रमा, साहित्य जनमंच, सामान्यजन संदेश, राष्ट्रधर्म, समकालीन अभिव्यक्ति, सरस्वती सुमन, शब्द, लोक गंगा, रचना कर्म, नवोदित स्वर, आकंठ, प्रयास, नागरिक उत्तर प्रदेश, गृहलक्ष्मी, गृहशोभा, मेरी संगिनी, वुमेन आन टॉप, वात्सल्य जगत, प्रज्ञा, पंखुड़ी, लोकयज्ञ, कथाचक्र, नारायणीयम्, मयूराक्षी, चांस, गुतगू, मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद पत्रिका, हिन्दी प्रचार वाणी, गुर्जर राष्ट्रवीणा, युद्धरत आम आदमी, अरावली उद्घोष, मूक वक्ता, सबके दावेदार, कुरूक्षेत्र संदेश, सेवा चेतना, बाल साहित्य समीक्षा, कल्पान्त इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन।एक दर्जन से अधिक स्तरीय काव्य संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन। वेब पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन।
सम्मान: साहित्य गौरव, काव्य मर्मज्ञ, साहित्य श्री, साहित्य मनीषी, शब्द माधुरी, भारत गौरव, साहित्य सेवा सम्मान, देवभूमि साहित्य रत्न ब्रज-शिरोमणि इत्यादि सम्मानों से अलंकृत। राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा ’’भारती ज्योति’’ एवं भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ‘‘वीरांगना सावित्रीबाई फुले फेलोशिप सम्मान‘‘। दिल्ली से प्रकाशित पत्रिका ‘वुमेन आन टॉप‘ द्वारा देश की शीर्षस्थ 13 महिला प्रतिभाओं में स्थान।
रुचियाँ : रचनात्मक अध्ययन व लेखन। नारी विमर्श, बाल विमर्श व सामाजिक समस्याओं सम्बन्धी विषय में विशेष रूचि। सम्प्रति: प्रवक्ता, राजकीय बालिका इण्टर कॉलेज, नरवल, कानपुर (उ.प्र.)- 209401
सम्पर्क: आकांक्षा यादव द्वारा श्री कृष्ण कुमार यादव, वरिष्ठ डाक अधीक्षक, कानपुर मण्डल, कानपुर (उ.प्र.)
E-mail: kk_akanksha@yahoo.com
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1. गांधी की स्मृति में एक अहिंसक प्रार्थना
देवता देख लें
समझ लें कर लें चिंतन
बाद में उनका स्यापा
माना नहीं जाएगा
कि मैंने जो किया गलत किया
यह वह शहर है
जहां देवता भी दिखायेंगे बुजदिली
तो शामिल कर लिए जायेंगे
गुनहगारों की जमात में
देवता देख लें समझ लें और सुना दें
अपने हथियारों उपकरणों से निकलने वाला
तमतमाता हुआ अंतिम फैसला
उनके अंत से पहले
मैं प्रार्थना जरूर कर रहा हूं मगर
देवताओं, तुम्हें सुनने के लिए...
2. बाजार से बाहर जब सभी बिकने वाली
बाजार से बाहर जब सभी बिकने वाली
चीजें खरीदी जा रही थीं
तुम्हारा अंतिम प्रेम पत्र छिपाने को
मैंने खरीदा एक संदूक
जब बड़ी कविता बड़े शिल्प बड़े कैनवस
बड़े हादसे बड़ी खुशियां और बड़े फरेब
बदले जा रहे थे रुपयों में
एक संदूक में बदल लिए मैंने रुपए
तुम्हारे जैसा छिछोरापन
तुम्हारे जैसी लालसाएं
तुम्हारे जैसी मुस्कराहटें
झांक रही थीं अपने-अपने फ्रेम से
उन्हें में झांक कर पढ़ा मैंने
उसी बाजार में तुम्हारा प्रेम पत्र
बाजार में प्रेम पत्र भी हो रहे थे नीलाम
टालस्टाय के लेनिन के नेहरू के
एक छोटे कवि को लिखा गया प्रेम पत्र भी
नीलाम हुआ था और उसे मिले थे पूरे एक लाख
पर तुम्हारे प्रेम पत्र को पैसों में
बदलने से मैंने किया परहेज
बाजार में साधुओं ने खरीदे भक्त
आतंकियों ने खरीदी अमानुषिकता
नेताओं ने खरीदे वोटर मंत्रियों ने खरीदे सांसद
और पूंजीपतियों ने सरकार
वैसे ही लेकिन मैंने खरीदा एक संदूक
यह भी तो नहीं हो पाता कि हाट लगे
और बिकवाली न हो
बाजार में हों आप और कुछ भी न खरीद कर लौंटें
वैसे भी अपने कुछ रुपयों में मैं नहीं खरीदता संदूक
तो मां खरीदती चिमटा बहन खरीदती नेपकिन
या पापा खरीदते ऐसे ब्लेड वाला रेजर
जो उनकी खुरदरी दाढ़ी को
एक महीने तक साफ कर पाता
लेकिन मैंने खरीदा एक संदूक
छिपाए रखने के लिए तुम्हारा प्रेम पत्र
उस अकेलेपन के लिए
जब मैं नितांत अकेला होऊं और
बाजार के बाजीगर ढोल मजीरा पीट रहे हों
स्त्रियों के विमर्श से अकेलापन ऐसे
दूर रहता है आदमियों से जैसे अंधेरा उजाले से
और बाजार ऐसे दूर रहता है हर उस आदमी से
जो उनका ग्राहक न हो इसीलिए
जब खरीदी जा रही थीं सभी बिकने वाली चीजें
मैंने खरीद लिया एक संदूक
बुरे समय के लिए यह निवेश
क्या कभी बेवकूफी कहा जाएगा
पवन निशांत का परिचय
जन्म-11 अगस्त 1968, रिपोर्टर दैनिक जागरण, रुचि-कविता, व्यंग्य, ज्योतिष और पत्रकारिता
पता: 69-38, महिला बाजार,
सुभाष नगर, मथुरा, (उ.प्र.) पिन-281001
E-mail: pawannishant@yahoo.com
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ज्योतिप्रसाद अगरवाला का जन्म 17 जून सन् 1903 को डिब्रूगढ़ अंचल के तामुलबारी चाय बगीचे (असम) में हुआ। उन्होंने हाईस्कूल की शिक्षा डिब्रूगढ़ तथा तेजपुर में प्राप्त की। सन् 1921 में वे तेजपुर सरकारी उच्च विद्यालय से 'प्रवेशिका निर्वाचन' परीक्षा में उत्तीर्ण होकर कलकत्ता में चित्तरंजन दास द्वारा स्थापित राष्ट्रीय विद्यापीठ से द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। वह समय था महात्मा गांधी द्वारा संचालित असहयोग का। ज्योतिप्रसाद ने उच्च शिक्षा से मुँह मोड़कर असहयोग आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने लगे। आन्दोलन धीमा होने पर कलकत्ता के नेशनल कॉलेज में अध्ययन कर कुछ दिन अपने ताऊ चन्द्रकुमार अगरवाला द्वारा स्थापित 'न्यू प्रेस' के संचालन में सहयोग दिया। सन् 1926 में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये वे इंग्लैण्ड चले गये। वहाँ एडिनबरा विश्वविद्यालय में कुछ दिनों तक अध्ययन करने के बाद जर्मनी में सात माह तक चलचित्र तकनीक संबंधी प्रशिक्षण लिया। 1930 में स्वदेश वापसी के पश्चात आजादी की लड़ाई में सक्रिय रूप से भागीदारी । 1932 में 15 महीनों का सश्रम कारावास और 500 रुपये का जुर्माने की सजा। 14 वर्ष की आयु में 'शोणित कुँवरी नाटक' की रचना। अन्तिम समय तक नाटक, कविता, जीवनी, शिशु-काव्य और साहित्य की अन्य विधाओं में कार्य। रचना एवं स्वर संयोजन में अभिनवता से भरे असंख्य गीतों के माध्यम से असमीया संगीत को नवरूप प्रदान । 1934 में भोलागुरि चाय बगीचे में अस्थायी 'चित्रवन स्टूडियो' स्थापित कर, सर्वप्रथम असमीया चलचित्र 'जयमती का निर्माण। 1935 में जयमती का प्रदर्शन। 1936-37 में विष्णुप्रसाद राभा के साथ नाटक जयमती और शोणित कुँवरी के ग्रामोफोन रेकॉर्ड निर्माण। 1937 में तेजपुर में 'जोनाकी' चलचित्र-गृह का निर्माण। 1939 में द्वितीय असमीया चलचित्र 'इन्द्रमालती का निर्माण। 1940 में तेजपुर में संगीत विद्यालय की स्थापना। असम में एक दिन की सरकारी छुट्टी इनके जन्म दिन पर मनायी जाती है। अनके करीब 367 गीत (सभी मूल असमीया भाषा में) प्रकाश में आये। उन्होंने कुछेक गीतों के लिए स्वयं स्वरलिपि तैयार की थी। जसकी अपनी कुछ विशेषताएँ हैं। इसी कारण असम के संगीत प्रेमियों ने इस संगीत को 'ज्योति संगीत' की संज्ञा दी। जिस प्रकार ' रवीन्द्र संगीत' में भाव, भाषा, स्वर और कल्पना का समन्वय हुआ है उसी प्रकार ज्योतिप्रसाद के गीतों में भी समन्वय के दर्शन होते हैं। ज्योतिप्रसाद ने असमीया संगीत के मूल रूप को अक्षुण्ण रखते हुए, पाश्चात्य संगीत का समावेश कर, एक पथ-प्रदर्शक के रूप में असमीया साहित्य को स्मृद्ध तो किया ही असमीया समाज में नई चेतना का संचार भी किया।
आप प्रकृतितः कवि थे। उनके गद्य में भी उनके कवित्व की सुषमा और सौरभ व्याप्त है। संख्या की दृष्टि से उनकी कविताएँ कम हैं - उनकी 50 सम्पूर्ण कविताएँ एवं 12 शिशु-कविताएँ प्रकाशित ( सभी असमीया भाषा में) हुई हैं। किन्तु काव्य, भाव एवं शिल्प की दृष्टि से वे अनुपम हैं। इसी कारण असमीया काव्य साहित्य में उन्हें शीर्ष स्थान प्राप्त है। कवि के रूप में ज्योतिप्रसाद में कुछ विशेष गुण हैं। उनकी कविता में असमीया जातीयता के भाव की प्रधानता होने पर भी भारतीय तथा विश्वजनीन भाव के साथ कहीं विरोध नहीं झलकता। जातीयता के प्रति निष्ठा रकह्ते हुए, उससे दृढ़तापूर्वक जुड़े रहते हुए भी वे संकीर्ण जातीयता से ऊपर अठने में सक्षम हैं।
ज्योतिप्रसाद को असम में लोग 'रूपकुँवर' के नाम से जानते -पहचानते हैं। यह शब्द उनके नाम का एक अभिन्न अंग बन गया है। ज्योतिप्रसाद को 'रूपकुँवर' की उपाधि किस प्रकार मिली, इस विषय में कई विचार और भ्रान्तियाँ हैं। इस सम्बन्ध में असम के सुप्रसिद्ध कवि आनन्दचन्द्र बरुवा ने कहा है, " अखबार में काम करते समय ज्योतिप्रसाद के 'चित्रवन' में दो दिन रहकर आया और 'रूपकुँवर ज्योतिप्रसाद' नाम से एक लेख प्रकाशित करवाया । मेरे द्वारा कल्पित यह उपाधी लोकप्रिय होकर अजर-अमर हो गयी, इसका मुझे संतोष है। आपके द्वारा रचित कुछ रचनाओं का हिन्दी अनुवाद असम के देवीप्रसाद बागड़ोदिया जी ने की है। इनखी एक पुस्तक 'ज्योति प्रभा' का प्रथम संस्करण जनवरी 1995 एवं दूसरा संस्करण 2003 में प्रकाशित हुआ है। 650 पृष्ठ की यह पुस्तक का मूल्य 250/- + डाकखर्च अतिरिक्त रखा गया है।
पुस्तक प्राप्ति स्थान:
ई- हिन्दी साहिय सभा के अलावा आप सीधे श्री देवी प्रसाद बागड़ोदिया, बागड़ोदिया निवास, ज्योतिनगर, डिब्रूगढ़ - 786005, फोन नम्बर: 09435032796 से भी प्राप्त कर सकते हैं।
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ज्योतिप्रसाद की कुछ रचनाएँ नीचे दे रहे हैं।
सभी गीत असमीया मूल से हिन्दी में अनुवाद श्री देवी प्रसाद बागड़ोदिया के द्वारा :-
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1. रुपहले पानी में सोने की नाव
रूपहले पानी में सोने की नाव
खोल दे रे
खोल दे, खोल दे, खोल दे रे।
तितली के पंखों से उड़ते हैं पाल
फूल के पत्तों की छाजन
वह नील आकाश की किस सीमा में
बाजे असीम की बंसी
वहाँ निद्रा तिमिर भेदकर
जागे अरूण की हँसी
उसी ओर, उसी ओर
खोल दे, खोल दे, खोल दे रे।
जीवन तट का हरियाला खेत
खिले फूल की ज्योति अपार
मरणाकुल फेनिल उफान
पीछे छोड़ जाये
विहर की वेदना में आनन्द झलके
मिलन में विहर का लेख
जीवन मरण जीत चमके
प्र्णय का ध्रुवतारा
चमक कर बुलाये रे
प्रकाश की ओर, प्रकाश की ओर
ज्योति के देश की ओर।
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2. लुइत* तट का अग्निसुर
लुइत तट का अग्निसुर
तुम्हें लिख दिया अपने रक्त से
लुइत तट का अग्निसुर।
तुम्हें रच दिया
 व्यथा वेदना से
कर दिया तुम्हें
;अपने हृ्दय की
अग्निशिखा से
लुइत तट का अग्निसुर।
छा जाओगे तुम
लुइत के दोनों पार
चमकना तुम सागर के उस पार
भारत के घर-घर में
परिचय बनाना भावी पृथ्वी में
नये प्राण में
नये गान में
विकरित कर
ज्योति स्फुलिंग
जाना दूर अति दूर
लुइत तट का अग्निसुर।
* लुइत : (लोहित) ब्रह्मपुत्र नदी का लोक-प्रचलित नाम।
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3. स्वाधीनता के लिये तड़पते प्राण
स्वाधिनता के लिये तड़पते प्राण
देश का दुःख देख कलपे हिया
भिक्षा की झोली ले निकला है
विमुख न करना हमें माँ।
त्याग दी हमने विषय वासना
अग्नि लुइत में प्राणों का कर संधान
गृहस्थ घर की लक्ष्मी बहू
अन्न की मुट्ठी करो दान।
देश का दुःख देख लुइत सिसक रही
रोक न पाये कोई अश्रुजल
अहिंसा युद्ध में रण की रणभेरी
बजे बार बार
जाये तत्काल
विमुख न करना हमें माँ।
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4. कौन गढ़ना चाहता है सोने का देश
कौन गढ़ना चाहता है सोने का देश
माँ असमी को पहनाना चाहता
प्रकाशित सुन्दर वेश
कौन गढ़ना चाहता है सोने का देश
मेरे इस देश के खेतों में सोना
अपने आप उपजे
स्वर्न प्रभात की सुनहरी हँसी
मेरे आँगन में खेले
संध्या लुइत का वक्ष चमका
स्वर्णिम रंग भरे
सुनहले मूँगो के पट से
युवती सुन्दर सजे
रुपहली रेत पर स्वर्णिम धूल
झलमल रूप धरे
स्वर्ण केतकी की, स्वर्ण रेणु झरे
शिल्पी दल का स्वर्णिम स्वप्न
हरित वन विचरे।
स्वर्णिम देश की
महापुरुष की
शंकर माधव* की
स्वर्ण मूल्या संस्कृति
देती प्रकाश
इस पृथ्वी को
स्वर्णिम जीवन की
महा मनीषा
महा प्रतिभा जन जीवन की
स्वर्णीम सपनों की
इसी देश में स्वर्णिम भविष्य की
स्वर्ण ज्योति जले
इसी देश में शिल्पी मन के
महा स्वप्न की
इस पृथ्वी के स्वर्ण यथार्थ की, स्वर्णिम पहचान
स्वर्ण चित्र में ढले।
बोधन कर विश्व शिल्पी मन
इसी देश में जनजीवन में
स्वर्णिम मन की स्वर्णिम पंखुड़ी
स्वर्ण हँसी सी खिले।
* शंकर माधव ; महापुरुष शंकरदेव
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5. मनुष्य जन्म लेकर कौन
मनुष्य जीवन लेकर कौन
पशु का खेल खेलो?
देव किरीट पहन भाल पर
राक्षस रूप धरो
आसुरी नृत्य करो
स्वर्ग की छवि पृथ्वी पर चाहकर
नर्क की ओर डग भरो
अपनी आँख आप फोड़कर
गहरे गर्त गिरो।
ज्ञानी को तू मूर्ख बताये
हँसे आप ही आप ही रोये
खुद को मार रहा खुद ही
गली गली घूमो पगलाये।
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लघुकथा:
नहीं.......... - शम्भु चौधरी
नरेश को आज न जाने क्या हो गया, सुबह से ही कुछ परेशान सा दिख रहा था। कल रात की कलह को लेकर मस्तिष्क में तूफान सा मचा हुआ। छोटी-मोटी बातें तो रोज ही होती रहती थी। आज ऐसी क्या बात थी जो नरेश को सोचने के लिये मजबूर कर रही थी। नरेश की शादी हुये चार साल हो गये थे, राधा तीन के माह बाद मायके से लोटी थी। नरेश को दो बच्चे सोनू तीन साल का हो गया था। छोटी लड़की अभी गोद में ही थी। तीन माह ही तो हुये थे उसको, राधा का पहला जापा ( प्रसूति) घर में ही हुआ था। इस बार राधा चाहती थी कि उसका दूसरा बच्चा पीहर में ही हो, जहाँ घर के पास ही एक अस्पताल है, जहाँ आसानी से अपने होने वाले बच्चे को जन्म भी दे सकेगी। बस इतनी सी ही बात थी जो आज के कलह का मूल कारण था। माँ को यह बात नागवार गुजरी। जैसे ही राधा ने घर में कदम क्या रखा, माँ ने तो मानो स्वांग ही भर लिया हो।
"मांगने से भीख भी नहीं मिलती" बड़ा आया है - "भीख माँग लूँगा - भीख माँग लूगा !
पढ़ा-लिखा के इसलिए तुझे बड़ा किया था?
""काम-धाम तो रहा नहीं।"
दो-दो बच्चे पैदा कर लिये। पाल नहीं सकते तो, किसने कहा था बच्चे पैदा करने के लिये?
न घर की इज्जत, ना गाँव का ख्याल, मान- मर्यादा को ताख पर रख दिया।
थोड़ा तो अपने खानदान की इज्जत रख ली होती।
बस बहु क्या आ गयी, ससुराल का हो गया।
मैं तो जलती लकड़ी हूँ! कब बुझ जाऊँगी, पता नहीं!
राधा के घर में प्रवेश करते ही मानो, तीन महिने का गुस्सा फूट पड़ा हो।
कल तो माँ ने तूफान ही मचा दिया था। नरेश को लगा कि अब इस घर में और बर्दास्त नहीं हो सकेगा। बहुत हो गया.... यह सब। बस काम मिलते ही घर छोड़कर चला जायेगा।
राधा ने भी कसम ही खा ली थी, कि अब या तो तुम साथ चलो,
वह इस घर में एकदम नहीं रह सकती। बहुत दिन हो गये सुनते-सुनते।
रात भर राधा ने रो-रोकर कभी मुझे, तो कभी माँ को कोसती रही। बहुत समझाने का प्रयास किया। परन्तु राधा ने तय कर लिया था कि कल फैसला कर ही लेना है। किसी भी तरह से समझौते की संभावना नज़र नहीं आ रही थी। यह द्वंद्व मुझे पशोपेश में डाल दिया था।
एकतरफ घर में माँ एकेली कैसे रहेगी?
तो दूसरी तरफ राधा अब घर में किसी भी हालात मै रहने को तैयार नहीं थी।
यह सब सोचते-सोचते घर से बाहर निकल.....पास ही स्टेशन की तरफ चल पड़ा। घर के पास से ही रेललाइन का रास्ता स्टेशन की तरफ जाता था। जल्द स्टेशन पहुंचने के लिये आमतौर पर गांव के लोग यही मार्ग चुनते थे। पता नहीं आज नरेश को क्या जल्दी थी, वह भी रेल की पटरियों के बीच चलने लगा। दिमाग पूरी तरह से खोखला हो चुका था।
काम कि तलाश...., घर की इज्जत....., माँ की देखभाल..., बच्चे का ख्याल...., राधा की बात...., माँ के ताने..., गाँव की मर्यादा....,
सब कोई एक साथ अपना हक माँगने के लिये खड़े थे।
एक की बात सुनूँ तो दूसरे का अपमान,
किसकी मानूँ, धीरे-धीरे रेल की पटरियों से आती आवाज ने रफ़्तार ले ली थी, पटरियों से आती आवाज ने नरेश को संकेत दे दिया था कि अब कुछ ही पलकों में इन पटरियों के ऊपर से ट्रेन गुजरने वाली है।
नरेश को यह भी पता था कि जल्द ही उसे इन पटरियों से नीचे दूर हटना ही होगा।
नरेश चाहता भी नहीं था कि उसे कमजोर होकर लड़ना है। आत्महत्या का जरा भी विचार मन में नहीं था। वह यह भी जानता था कि यह कार्य कमजोर मानसिकता का जन्म है, या फिर मानसिक अस्वस्थता के लक्षण। वह जीवन से हताश नहीं था, परेशान जरूर हो चुका था, लेकिन इतना भी नहीं कि उसे मौत के इतने करीब ला खड़ा कर दे।
ट्रेन की रफ्तार काफी नज़दीक आ चुकी थी,
नरेश बस अब हटने की सोच ही चुका था। एक तेज आवाज बस कान को सुनाई दी। नहीं..................ट्रेन की पटरियों पर लोगों की हुजूम लग गया था। ट्रेन रूक चुकी थी। भीड़ से एक ने नरेश को पहचानते हुये....चिल्ला पड़ा .... अरे................. ये तो नरेश है। - शम्भु चौधरी
Address:
FD-453/2, Salt Lake City, Kolkata-700106
Ph: 98310-82737
URL:http://ehindisahitya.blogspot.com
E-mail: ehindisahitya@gmail.com
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कहानी - 1
आजादी की कीमत - देवी नागरानी
जिंदगी जितनी ज़मीन के ऊपर है
उतनी ज़मीन के नीचे भी है।
गीता अभी तक जाग रही थी, रात के बारह बज रहे थे और वह उस रात के सन्नाटे में सुन रही थी सिर्फ अपने दिल की धड़कन ! उसकी जिंदगी की वीरानी अब उसे डस रही थी, क्योंकि उसे इसी तरह तन्हाई को हर रात जीना पड़ता था। ज्यों-ज्यों दिन गुज़रते जा रहे थे, यह रात की वीरानगी गहरी होती जा रही थी, कोई आशा की किरण कहीं नजर नहीं आ रही थी, जहाँ से चलकर वह अपने पति राकेश को पाने की राह ढूँढ पाये। रात के सन्नाटे में कहीं दूर से किसी धुन की गूँज उसके कानो में जैसे गर्म शीशा उँडेल रही थी......
जिंदगी की राह में दौड कर थक जाऊँ मैँ
पास तुमको पाऊँ मैं,
पास तुमको पाऊँ मैं।
इस की चाहत,
उस की चाहत, दिल की ये हालत बनी
राहतों में भी न राहत,
दिल की ये हालत बनी
मुस्करा के भी न गर मुस्का सकूँ तो रोऊँ मैं
पास तुमको पाऊँ मैं,
पास तुमको पाऊँ मैं।
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जिस राह पर वह चल निकला था, वहाँ अच्छे घर की माँ, बेटी, बहन अपने अँदर के जमीर को मारकर ही पहुँच सकती थी। उस चौखट पर सिर्फ जाने की इज़ाज़त मिलती है लौट आने की नहीं। यहाँ उजाला पनपता है अँधेरों में, रात की गहराइयों में और जैसे-जैसे रात आगे बढती है आवाजें खनकने लगती है, पैसों की, घुंघरुओं की, व मदहोशी की। राकेश भी इन्हीं राहों पर चलते-चलते कहीं खो गया है, पर गीता अपने उसूलों की कुर्बानी के लिये बिलकुल तैयार न थी और न होने की सोच सकती है। चाँदी की चमक, रौशनी की दमक उसके ज़मीर को इतना अँधा नहीं कर पाई है, जहाँ वह खुद अपने उसूलों का सौदा करे सके। कोई न कोई संस्कार अब भी उसमें कूट- कूट कर भरा हुआ था जो वह अपने आप को ऊँचाई पर न पाकर भी इतना नीचे नहीं गिरा सकी, यही उसकी सज़ा बनता जा रहा है। दिन ब दिन रात का अहसास उसे खोखला कर रहा है, जिसे वह बखूबी महसूस कर सकती है इस राह की अँधेरी मँजिल को जो, उसके किस्मत के सितारे को डुबाने के लिये काफी है।
आज एक महीने से यह सिलसिला शुरू है और हर रात जब वह एक नये सूरज के उदय होने की प्रतीक्षा में ऊँघने लगती है तो लगता है जिंदगी कराह रही है, उम्र झुलस रही है और वह खुद उस खोखलेपन में जी रही है।
"राकेश आज पार्टी में जाना है, याद है ना?"
"किस पार्टी में जाना है गीता? कल ही तो गये थे"
"वो रोमा नें बहुत बड़ी पार्टी रखी है, सब कपल्स वहाँ आयेंगे, नाच गाना और खाना पीना..! प्लीज चलोगे ना?"
"क्या जरूरी है हम हर पार्टी में शामिल हों, न नहीं कह सकती?"
"अच्छा नहीं लगता न कहना, मेरी बरसों पुरानी दोस्ती है उनसे, प्लीज राकेश न मत करो। दोनों साथ ही चल रहे है, मैं कहाँ अकेली जा रही हूँ जो तुम आने के लिये राज़ी नहीं होते, हफ्ते में एक बार जाने से कुछ नहीं होगा। प्लीज।"
"गीता यह बात नहीं है, हम मध्यम वर्ग के लोग है और इस तरह की रवानी हमारे लिये कुछ ठीक नहीं है। एक बार, दो बार, पर अब तो आदत सी बनती जा रही है, ये मुझे अच्छा नहीं लगता तुम्हारी उन सहेलियों के साथ इस तरह घुलमिल जाना, उनके हाथ से हाथ मिलाना और उन बाँहों में......"
"राकेश कहाँ उलझ कर रह जाते हो, अगर जिंदगी में यह थोडा बहुत मनोरंजन न हो तो जिंदगी बेमानी लगने लगेगी। दिन भर आफिस के काम के बाद घर का काम ही हमारी दिनचर्या है, किसी रात एक माहौल जीवन को रँगीन बनाने का मौका देता है वह भी हम यूँ ही गँवा दे ये तो ठीक नहीं है ना? चलो ज्यादा मत सोचो, हाँ कह दो तो मैं रोमा को हाँ कह दूँ।" और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये फोन पर सहेली से कह दिया कि वह और राकेश पार्टी में आ रहे हैं।
रात सरकती जा रही थी, रोमा के बड़े फ्लैट के टेरेस पर रँगीनी फैली हुई थी, आसमान में सितारे झिलमिला रहे थे और नीचे फर्श पर रौशनी में लड़खड़ाते पाँव थिरक रहे थे। मदहोशी का आलम, आँखों में सुरूर, बाँहों की गर्मी नर्म-नर्म साँसों में समा रही थी। राकेश- रीना को गले लगाये झूम रहा था, गीता- अजय की बाँहों की शान बनी थिरक रही थी, और रोमा किसी और की पति की बाँहों की शोभा। इस पार्टी का चलन यही था, सब अपने-अपने पार्टनर नित बदल लिया करते थे। अजय- रोमा का पति था और वह गीता को एक कली की तरह अपनी बाँहों में लिये महफूज़ी से उस की महक को लूटता रहा, तब तक जब तक सुबह की पहली किरण फूट कर अपनी कड़ी नज़र सब पर न धर पाई। दिन के उजाले ये बर्दाश्त नहीं करते कि यह नंगा नाच आम होता रहे। बस सब अलग-अलग होकर अपने-अपने घरों की ओर बाय- बाय करके रवाना हो गये।
चार पाँच दिन गुजरे तो रीना के घर पार्टी का न्यौता था मेसेज के रूप में।
शाम को काम से लौटते इस बात को लेकर गीता और राकेश के बीच गर्मा गर्मी हुई, तकरार हुआ और अंत हुआ लड़ाई पर।
"मैं बिलकुल भी नहीं चाहता कि हम ऐसी पार्टियों में जायें जहाँ मुझे तुम्हें किसी ओर की बाँहों में देखना पडे़ और मैं किसी और की बाँहों में झूलता रहूँ।"
"राकेश फिर वही बात ! यह तो पार्टी का नियम है, यह तो हमें पता ही है और हम अपनी मर्जी से इसमें शामिल होते हैं तो इसमें बुरा मानने वाली कौन सी बात है।"
"नहीं मुझे यह बर्दाश्त नहीं होता, अगर चाहो तो तुम जाओ पर मैं बिलकुल नहीं जा पाऊँगा। कहो तो मैं अजय को फोन करूँ कि वो तुम्हें आकर ले जाये।"
छटपटा उठी गीता इस करारी चोट पर, उसके तन मन में एक चिंगारी लग गई। यह घात उसके शरीर पर नहीं पर उसकी आत्मा पर हुआ जिससे वह तिलमिला गई और बिना किसी सोच विचार के चली गई रोमा और अजय के साथ पार्टी में, जहाँ रात भर की रौनक के बाद जब दिन की रौशनी उसे वापस घर वापस लाई तो यहाँ की चौखट उसे स्वीकार करने को तैयार न थी। जैसे ही अजय और रोमा उसे घर के पास छोड़ने के लिये कार रोकी तो दरवाजे़ पर लगा बड़ा ताला उसका स्वागत कर रहा था। चाबी न ले जाने के कारण अँदर जाने की ना उम्मीदी उसके लिये दूसरा प्रहार था, और फिर वापस उन्हीं के साथ लौट जाना एक अंतिम तमाचा।
दिन की रौशनी में सबकुछ थोड़ा ज्यादा साफ़ नज़र आता है, वह सोचती रही, महसूस करती रही और अपने आप से लडती रही, हीनता अँदर में पनपने लगी और नारी मात्र होने से उसकी परिभाषा और भी साकार रूप धारण कर रही थी, पति के कहने पर तैश में आकर अपने घर की दहलीज को लाँघकर पार्टी में जाना मुनासिब ही नही् , बहुत गलत था। पर राकेश उसे इस तरह सजा देगा यह उसने सोचा न था। दोपहर को उनके आफिस का दफ्तरी घर की चाबी उसे दे गया और राकेश साहब शाम को घर आयेंगे यह कह कर चला गया। गीता तुरन्त घर लौटी और बेसब्री से शाम का इन्तजार करने लगी। छः से सात, फिर आठ और पल पल गिनकर जब बारह बजे तो राकेश के आने की आहट ने उसमें जान फूँक दी, पर उसकी दाखिला अपने साथ शराब की मस्ती भी ले आई। गीता का दिल धक से थम गया, सोच ने स्थान ले लिया। ये क्या? राकेश अकेला कहाँ गया होगा जो यूँ पीकर लौटा है? पर "चुप्पी" वक्त की माँग थी शायद यह समझकर दोनों ही चुपचाप जाकर आरामी हुए।
सुबह दोनों रोजाना की तरह उठे, अपना अपना कार्य पूर्ण किया और आफिस गये। दोनों एक ही आफिस में काम करते थे, पर दिन भर एक-दूसरे से नजरें चुराते रहे, बस "हाँ-हूँ" में अपना वार्तालाप करते रहे, शाम को साथ घर लौट आये। गीता कुछ सहमी सी रसोईघर सँभालने की कोशिश कर रही थी और ८.३० टेबल पर खाना लगाकर राकेश को आवाज दी।
"राकेश चलों खाना खा लो।" दोनों ने खाना खाया पर ९.३० के करीब राकेश फिर तैयार होकर बाहर जाने को था तो गीता ने पूछना चाहा ही था कि राकेश "मैं दो तीन घंटों में आता हूँ।" यह कहकर वह तीर की तरह बाहर निकल गया और मैं देखती ही रह गई उस खुले दरवाजे को जहाँ से उसे अपनी जिँदगी बिखर कर बाहर जाती हुई दिखाई दे रही थी। १२.३० के करीब फिर आने की आहट, वही मस्ती की महक और फिर वही सिलसिला चलता रहा। आसार नजर अँदाज करने जैसे नहीं थे, पर और कोई राह भी नहीं थी, जो इन लड़खड़ाते कदमों को रोके। गीता अपने आप को गुनहगार मान रही थी, शायद उसी ने गलत नींव पर अपनी खुशियों का महल बनाने की शुरूवात की थी। हाँ सच ही तो था, वर्ना राकेश तो सीधा सादा प्यार करने वाला पति था, जो कभी भी अपनी महदूद खुशियाँ किसी के साथ बाँटना ही नहीं चाहता था। वह गीता को बहुत प्यार करता था और अपनी पलकों पर लिये फिरता था, और इसी कारण अपनी ही आफिस में उसे नौकरी दिलवाई ताकि दोनों हम कदम हो एक साथ रहकर अपनी मँजिल की ओर बढ सके।
नियति कब कहाँ करवट बदलती है पता नहीं। गीता की पुरानी सहेलियाँ रोमा व रीना से मुलाकात व इन पार्टियों में शरीक होने के लिये दावतें, उस झूठी शान शौकत की परिभाषा ने उसकी जिंदगी को इस वीराने मोड़ पर ला खड़ा किया है जहाँ से वह जिंदगी को वापस लाने की नाकमयाब कोशिश में दिन रात जूझ रही है। जितनी सजा वह अपने आप को मिलती, पा रही थी उससे कहीं ज्यादा सज़ा राकेश अपने आप को दे रहा था, और इस बात से वह अनजान नहीं थी। अपना सुख चैन गँवाकर हर रात घर से बाहर जाना, मैखाने में बैठ कर लगातार पीना, फिर लड़खड़ाते कदमों से घर आना एक रवैया बनता गया। अब गीता को अपनी गलती का पूरी तरह से अहसास था और वह मन ही मन शर्मिंदा थी अपनी सूझ-बूझ पर जिससे वह राकेश को राज़ी कर लेती थी उन पार्टियों में जाने के लिये। अब उस की मदद करने के लिये कोई नहीं था, सब तमाशाई बन बैठे थे। बस फोन पर पूछ लेते थे हाळ या कभी कभार दावत में आने के लिये बहुत मनाने की कोशिश करते, पर गीता ने ठान लिया था "ना करने के लिये", जो उसे अपने पति के समझाने पर बहुत पहले करना चाहिये था और इस तरह धीरे-धीरे फोन आने कम हो गए और फिर बिलकुल बंद हो गए। अपनी घुटन में जीने लगी थी वह, अपने ही पति के पास होते हुए उससे दूर।
औरत होने के फायदे अनेक पर कुछ मजबुरियाँ भी है साथ-साथ। गीता एक स्ट्राँग विल पावर वाली औरत, बिखरती हुई जिंदगी को समेटने की राहें खोजती रही, उसके बारे में सोचती रही, पर अभी तक निश्चय नहीं कर पा रही थी कि वह सोचा हुआ कदम ले या न ले। लेती है तो उलँघन होता है मर्यादा का, नहीं लेती है तो लुटती है जिंदगी। किसे बचाये किसे खो जाने दें इसी कशमकश में कई दिन काम में और रातें उलझनों में बिताती रही, पर एक रात जब राकेश घर से निकला तो वह पहले से ही साधारण रुप में तैयार थी, उसका पीछा करने के लिये, घर से निकल पड़ी। निर्मल, गीता का बहनोई जो पहले ही से पूरी छानबीन कर चुका था, वह भी साथ हो लिया। राकेश घर से निकला और नियमित रूप से बार में पहुँचा जहाँ शोर शराबा, नाच के नाम पर अश्लीलता नग्न नाच रही थी। राकेश पर कुछ शराब का सुरूर छाया हुआ था, पर वह दूसरी मेज़ पर बैठी गीता और निर्मल को देखे जा रहा था। फिर अपना गिलास उठाकर उनकी मेज पर जा बैठा और खिलखिलाते हुए ज्यादा पीने लगा। खनकते पैमानों के आसपास मधुर आवाज में सुनाई पड़ रहे थे एक गजल के ये मनमोहक बोलः
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मुझे जिंदगी में न वो मिला
जिस जाम की तलाश थी
मिलना न था नसीब में
फिर भी बँधी इक आस थी।
समय की हदों के पार नासमझी नाच रही थी, रिश्तों के बँधन अपनी मायने खो रहे थे, रात नाच रही थी अपनी मदहोशी में। काफी वक्त के बाद बेहोशी की हालत में लड़खड़ाते राकेश को सहारा देकर घर ले आये गीता और निर्मल, और उसे आराम से लिटा दिया। फिर निर्मल लौट चला अपने घर की ओर। यह क्रम तीन दिन तक लगातार चलता रहा और राकेश उलझन में सोचता रहा "क्या यह सच है या सपना"? क्या गीता सच में उससे इतना प्यार करती है? और क्या उसे अपनी जिंदगी की परवाह है? चौथे दिन राकेश घर से निकला और नियमित रूप से बार में जा बैठा, शराब का गिलास सामने रखा और नशे में होने का नाटक करता तिरछी नजर से अपने आस-पास तलाश करता रहा उसी अपने की, जो दिल के बहुत ही करीब थी, हाँ ! उसकी जिंदगी थी। हाँ ! सामने वही तो बैठी थी, निर्मल भी साथ था। राकेश शाँत मन कुछ सोचकर एक निर्णय पर पहुँचा, धीरे-धीरे उठा और जाकर उनकी टेबल पर बैठा और अचानक गीता का हाथ थाम कर कहने लगा "गीता घर चलें" और टपकते आँसू उनकी राहों को भीनी-भीनी बारिश में भिगो रहे थे।
देवी नागरानी का परिचय:
जन्मः ११ मई, १९४१ कराची
शिक्षा बी.ए अर्ली चाइल्डहुड में, न्यू जर्सी
सम्प्रतिः शिक्षिका, न्यू जर्सी .यू.एस.ए
कृतियाँ: "ग़म में भींजीं ख़ुशी" सिंधी भाषा में पहला गज़ल संग्रह(२००४ में) , "उडुर-पखिअरा" सिंधी में भजन संग्रह, (अप्रेल २००७ में)
"चरागे-दिल" हिन्दी में पहला गज़ल संग्रह, मार्च २००७
"आस की शम्अ" सिंधी ग़ज़ल संग्रह , अप्रेल २००८
"दिल से दिल तक" हिन्दी गज़ल संग्रह, अप्रेल २००८
"सिंध जी माँ जाई आह्माँ" कराची प्रेस में
प्रसारणः राष्ट्रीय समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में गीत गज़ल, कहानियाँ प्रकाशित. कव्य-सम्मेलन, मुशायरों में भाग लेने के सिवा कई जालगरों में भी अभिरुचि।
सम्मानः भारत सहित न्यू यार्क में आपको कई साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किया जा चुका है।
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15/33 Road, Bandra, Mumbai 4000५0
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कहानी -2
परित्यक्ता - कुसुम सिन्हा
बस से उतरकर तेजी से पांव बढा़ती वन्दना जल्द से जल्द घर पहुँच जाना चाह रही थी दिन भर बार-बार उसके दिल में यह ख्याल आ रहा था कि नन्हा अतुल रो रहा होगा और वह घर तक की दूरी दौड़ कर पार कर ले। अतुल कितनी बेसब्री से उनका इन्तजार कर रहा होगा? उसे भी कहाँ अच्छा लगता था उसे छोड़कर इतनी देर घर से बाहर रहना? सिर्फ तीन साल का नन्हा सा अतुल उसे तो अभी माँ की गोद में ही रहना चाहिए लेकिन मजबूरी मनुष्य से क्या-क्या नहीं कराती? अपनी मजबूरी पर उसे रोना आ जाता पर वह अपने आँसू किसी को दिखाना नहीं चाहती थी। जब भी वह उदास होती तो अमर के वे शब्द पिघले शीशे जैसे उसके कानों में जलन पैदा करने लगते। उसे सबकुछ याद आने लगता जब अमर ने दो टूक फैसला सुनाते हुए कहा था कि अब वह रुचि के साथ ही रहेगा। वह उसे प्यार करता है और उसके बिना नहीं रह सकता। उसका एक-एक शब्द उसके हृदय पर हथौड़े की तरह पड़ता रहा और वह चूर-चूर होती हुई भी खड़ी रही। उसने कारण जानना चाहा लेकिन अमर ने कुछ नहीं कहा? न उसकी कोई कमी बताई और न कोई कारण। कितनी मर्मान्तक पीड़ा वन्दना को हो रही थी पर अमर ने कुछ नहीं कहा जैसे उसे वह जानता ही न हो। अमर की माँ ने चौंकते हुए पूछा- क्या कह रहा है? जिसके साथ सात फेरे लिए उसे इस तरह कैसे छोड़ सकता है? शादी ब्याह क्या गुड्डे-गुड़ियों का खेल है? बोलते-बोलते वह रो पड़ी। बोली क्या किया है मेरी बहू ने? तुम ऐसा कैसे कर सकते हो? खानदान में कभी ऐसा हुआ है? और फिर गलती ही क्या की है इसने? क्या करेगी कहाँ जाएगी कुछ सोचा है? और यह बच्चा उसके बारे में भी सोचोगे? ऐसे ही कह दिया किसी और के साथ रहूँगा? यह कोई मजाक है? अमर ने तीखे स्वर में कहा मैं इस बारे में कुछ भी बात नहीं करना चाहता उसका एक-एक शब्द हथौड़े की तरह उसके हृदय को चूर-चूर करता रहा पर वह खड़ी थी। अमर की माँ बहुत देर तक अमर को बुरा-भला कहती रही पर वह चुपचाप घर से बाहर चला गया।
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वन्दना रात भर रोती रही। उसे तो चारों ओर अंधकार ही अंधकार नजर आ रहा था। कहाँ जाएगी क्या करेगी? सुबह उसकी लाल आँखें देखकर अमर की माँ उसे कलेजे से लगाकर रो पड़ी। वन्दना को सांत्वना तो दे रही थी पर खुद कितनी विचलित थी यह वे स्वयं जानती थी। अमर की माँ ने कहा; मैं अब आज से ही उस नालायक की माँ नहीं हूँ ! और उसके साथ नहीं रहूँगी। तुम परेशान न हो बेटी मैं हूँ न तुम्हारे पास? मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगी। तुम मत रो, वन्दना ने उनके पांव पकड़ लिए और बोली आप पिछले जनम में मेरी माँ तो नहीं थी? मैंने तो अपनी माँ का मुख भी नहीं देखा है पर आपको देख कर लगता है कि आप ही मेरी माँ थी। अमर की माँ ने उसे गले से लगाते हुए कहा- हाँ ! बेटी हाँ ! मैं ही तेरी माँ थी। औलाद के नालायक होने का दुःख बहुत बड़ा होता है। उसने तो मेरे दूध की लाज भी नहीं रखी। अपने पोते को और तुम्हें छोड़कर मैं कहीं नहीं जाऊँगी। बहुत रोने धोने के बाद वन्दना ने निश्चय किया कि वह अपने पैरों पर खड़ी होकर अतुल का और अपना जीवन निर्वाह करेगी। इस तरह रो-धोकर अपनी पराजय नहीं स्वीकार करेगी। पढ़ी लिखी है कहीं न कहीं नौकरी उसे मिल ही जाएगी। नौकरी के लिए आवेदन तो वह बहुत पहले से देती रही थी और एकाध जगह से बुलावा भी आया था पर अमर के मना करने के कारण उसने उत्तर नहीं दिया था। पर जब अमर ने ही उसे इस तरह छोड़ दिया तो फिर वह क्या करे? उसने बड़ी मुश्किल से अपने को संभाला और नौकरी करने का निश्चय कर लिया। माँ के पास नन्हें अतुल को छोड़कर साक्षात्कार के लिए चल पड़ी। अपनी विवशता पर उसे बड़ा रोना आ रहा था और बार-बार आंखें भर आ रही थी। यह तो ईश्वर की कृपा ही थी जो इतनी अच्छी नौकरी उसे जल्दी ही मिल गई नहीं तो वह क्या कर सकती थी? जीने के लिए पैसे तो चाहिए थे? शुरू में उसे अतुल को छोड़कर जाना बहुत बुरा लगता था। एक-एक पल पहाड़ जैसा लगता था पर उसने अब अपने मन को समझा लिया था। दूसरी बात यह भी थी कि अतुल अपनी दादी से बहुत घुलमिल गया था और मजे से उनके साथ रह जाता था। कभी खिलौनों से खेलना कभी दादी से कहानियाँ सुनता और सुनता-सुनता सो भी जाता लेकिन वन्दना का तो एक-एक पल भारी था। वह माँ जो थी? उसे अमर की बातें फिर याद आने लगीं थी।
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एक पल को भी वह उसकी बातें भूल भी तो नहीं पाती? हर पल हर क्षण उसकी बाते उसके साथ बिताए दिन उसके हृदय के घावों को जैसे नोच डालते थे। वन्दना के पांव अचानक ही एक गड्ढे में पड़ गए। अपने विचारों में खोए वन्दना नीचे देख नहीं पाई थी। वह गिरते-गिरते बची। अपने को संभाला उसने चारों ओर देखा कि कोई देख तो नहीं रहा है? कोई नहीं था पर सामने के मकान की खिड़की पर बैठी एक छोटी लड़की की उदास आंखों में एक चमक सी आ गई थी। वह पता नहीं किस चिन्ता में अपने गालों पर हाथ रखे बैठी थी। वन्दना ने गौर से उसकी ओर देखा इस उम्र के बच्चों की आंखों में जो एक प्रकार की चंचलता होती है वह वहां नहीं थी। वहाँ तो निराशा और दुख ही दिखाई पड़ रहा था। वन्दना ने गौर से उसकी ओर देखा और हाथ हिलाया। लड़की के होंठों पर एक संक्षिप्त सी मुस्कान आ गई। उसके होंठों पर मुस्कान देखकर वन्दना को खुशी हुई। फिर तो रोज ही घर लौटती वन्दना की आंखें उसे खोजती और उसे मुस्कराते देख जैसे वन्दना का दुख पल भर को ही सही गायब हो जाता उस दिन वृहस्पतिवार था और दफ्तर के एक कर्मचारी के फेयरवेल पार्टी के बाद छुट्टी हो गई थी। वन्दना ने कुछ चाकलेट वगैरह खरीदे और घर की और चल पड़ी। यह एक घण्टा उसे एक उपहार की तरह लग रहा था। वह जल्द से जल्द अतुल के पास पहुँच जाना चाह रही थी। वह लड़की आज भी वैसे खिड़की में बैठी थी। वन्दना ने पास जाकर पूछा चाकलेट खाओगी? पता नहीं वन्दना उसे प्यार करने को उतावली क्यों रहा करती है? कितनी प्यारी सी है पर कितनी उदास लगती है? उसकी उदासी का कारण क्या हो सकता है भला? लड़की ने उसी उदासीन भाव से कहा नहीं। वन्दना ने फिर पूछा-तुम्हारा नाम क्या है? नूतन वह फिर चुप हो गई। वन्दना ने पूछा- मम्मी ने मना किया है? बुलाओं तो मम्मी को? उसने थोड़ी आवाज में कहा मेरी मम्मी तो मर गई। उसकी बात सुनकर वन्दना को एक धक्का सा लगा। तो यही कारण है उसकी उदासी का? उसका मन करुणा से भर उठा। यह नन्हीं सी जान बिना माँ के कैसे जीती होगी? अतुल का पिता नहीं और नूतन की माँ नहीं। दोनों ही दुखी कितना भी प्यार करे वन्दना पर अतुल का बालमन पिता के अभाव को महसूस तो करता ही होगा? वह इस अभाव को कैसे दूर कर सकती है? उसका मन फिर दुखी हो गया। अमर को क्या अधिकार है कि वह उसके बेटे को इस सुख से वंचित करे? वह तो रो भी नहीं पाती है अगर अतुल के सामने रोती है तो वह भी उसके साथ रोने लगता है और माँ के सामने रोने पर वे स्वयं बहुत विचलित हो जाती थी। उन्होंने तो अपना बेटा खोया था वन्दना से भी ज्यादा बुढ़ापे में जब बच्चों को माँ की देखभाल करनी चाहिए वह उन्हें छोड़ गया है बिना यह सोचे कि उनका क्या होगा, उनकी पीड़ा तो वन्दना से भी बड़ी है। शायद वे सोचती थी कि बिछावन पर जाकर वन्दना रोती होगी इस लिए एक दिन उन्होंने कहा- मैं भी तुम्हारे साथ सो जाऊ? तुम्हें तकलीफ तो नहीं होगी? वन्दना ने कहा नहीं-नहीं मम्मी इतना बड़ा तो बिछावन है आप दूसरे कमरे में सोती है तो मेरा भी ध्यान लगा रहता है। फिर तीनों एक ही विछावन पर सोने लगे थे। वह जानती थी उनके मनोभावों को उन्हें लगता था कि विछावन पर जाकर कहीं वन्दना रोती होगी इसलिए उन्होंने ऐसा कहा होगा। एकान्त में रोने का सुख भी उससे छिन गया था पर उसे सन्तोष था कि माँ ने ऐसा उसके लिए ही किया था। उस दिन रविवार था और अतुल को आइसक्रीम खिलाने के लिए वन्दना पास के ही आइसक्रीम पार्लर में ले गई थी। और दिन कहाँ उसे समय मिलता था कि वह अतुल को घुमाने ले जाय? अचानक उसने देखा कि वह लड़की एक व्यक्ति का हाथ पकड़े पार्लर में घुस रही थी। उसने हंसते हुए वन्दना का हाथ पकड़ लिया और उस व्यक्ति से बोली-देखो पापा यही वे आंटी हैं जिनसे मैं रोज बात करती हूँ। वन्दना ने नमस्ते की और बोली-मेरा नाम वन्दना है आपके घर के पांच मकान आगे मैं रहती हूँ। नूतन की मम्मी के विषय में जानकर बड़ा दुख हुआ। नूतन के पिता राजीव ने लम्बी सांस ली और बोले-किस्मत की कोई दवा तो है ही नहीं। क्या किया जा सकता है? वन्दना ने कहा-वह तो है फिर उसने कहा-मैं सोच रही थी कि अगर नूतन स्कूल से सीधा मेरे घर आ जाय तो दोनों बच्चे एक साथ खेलेंगे। फिर मम्मी तो है हीं दोनों को ही शायद अच्छा लगे? आपको कोई एतराज तो नहीं है? नूतन का भी मन बहल जाएगा और अतुल भी खुश होगा। राजीव ने कहा-इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है? एक दिन मैं आपके घर जरूर आऊँगा।
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घर लौटी वन्दना वह देखकर सुखद आश्चर्य में डूब गई कि अतुल और नूतन एक दूसरे का हाथ पकड़े नाच रहे थे। माँ ने हंसते हुए कहा-जब से नूतन आई है अतुल ने तुम्हें एक बार भी नहीं खोजा। वन्दना ने सोचा नूतन शायद कितने दिनों के बाद खिलखिलाकर हंस रही थी। उसे बहुत अच्छा लगा शाम के एकाध घंटे नूतन भी बहली रहेगी और अतुल भी । उसी दिन से यह क्रम चल पड़ा था। नूतन अतुल को पढ़ाती बोलो ए फॉर अपल। अतुल कुछ न समझ कर हंसता रहता और नूतन कहती बुद्धू और दोनों हंसते। अतुल की आदत अमर की तरह आंखें बन्द करके हंसने की थी। अपनी खुशी व्यक्त करने का यही तरीका तो उसे आता था? राजीव भी जब-तब आने लगे थे। एक दिन रात को दरवाजा पीटने की आवाज आई। कोई जल्दी जल्दी दरवाजे को पीट रहा था। माँ ने बगल की खिड़की खोलकर पूछा-कौन हैं? मैं राजीव हूँ नूतन को तेज बुखार है। जरा आप उसके पास रहती तो मैं दवा ले आता। अभी आई बेटा । मां ने वन्दना से कहा दरवाजा बन्द कर लो, मैं राजीव के यहां जा रही हूँ । वन्दना ने कहा-मैं भी चलती हूँ । वन्दना भी तो नूतन को बहुत प्यार करने लगी थी। अतुल को वहीं सुला दूँगीं। नुतन को बहुत तेज बुखार था । वन्दना नूतन के सिर पर पानी की पट्टियां रखने लगी थी। राजीव के आते-आते नूतन का बुखार काफी कम हो गया । सुबह के चार बजे तक नूतन का बुखार सौ तक पहुँच गया था तो वन्दना अपनी पीठ सीधी करने के लिए उसके बगल में ही लेट गई कब उसे नींद आ गई पता ही नहीं चला। नूतन उसके गले में बाँहें डाले खर्राटे भर-भर कर सो रही थी । राजीव आए और नूतन के सर पर हाथ रखकर यह देखने की चेष्टा करने में कि नूतन का बुखार अब कैसा है उनका हाथ वन्दना के सर से छू गया । इस स्पर्श से वन्दना की नींद खुल गई और वह जग गई। यह सोच कर वह संकोच से डर गई कि राजीव क्या सोचते होंगे कि दूसरे के घर में यह नींद कोई संकेत तो नहीं है? उसने सकुचाते हुए कहा-चिन्ता मत कीजिए उसका बुखार अब काफी कम है। लेकिन राजीव कहाँ कुछ सोच रहे थे। मारे कृतज्ञता के राजीव की आंखों में आंसूँ भर आए थे। बोले आज आपलोग नहीं होते तो क्या होता? यही तो मेरे जीने का सहारा है नहीं तो मेरी जिन्दगी में और क्या है? वन्दना ने कहा- आप ऐसा क्यों सोचते हैं? आदमी ही आदमी के काम आता है। राजीव को लगा जैसे कोई अपना हो और उसके सुख-दुख में साथ निभाने का विश्वास जैसे दिला रहा था। राजीव फिर नूतन को घर छोड़ जाने लगे थे। अभी स्कूल नहीं जा रही थी क्योंकि अभी कमजोर थी फिर एक दिन शाम दफ्तर से लौटते समय राजीव वन्दना के घर आए तो थोड़े परेशान से थे लगता था जैसे कुछ कहना चाह रहे थे पर संकोचवश बोल नहीं पा रहे थे। उसने मांजी से कहा क्या मैं आपका बेटा नहीं बन सकता? माँ ने तुरन्त कहा- क्यो नहीं? रिश्ते सिर्फ खून के ही नहीं होते भावनाओं के भी होते हैं। तुम तो मेरे बेटे जैसे हो ही और मैं तुम्हें अपने बेटे जैसा ही प्यार भी करती हूँ। राजीव ने झुककर मांजी के पांव छू लिए और बोले तो माँ जी नूतन को अपनी पोती के रूप में स्वीकार कर लीजिए? अगर आपको कोई एतराज न हो तो……. अब उन्हें राजीव की बातों का मर्म समझ में आया और वे एकटक राजीव की ओर देखने लगी। क्या बोल रहा है यह? ऐसा तो उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था? थोड़ी देर बाद वे बोली मुझे थोड़ा समय चाहिए। फिर वन्दना क्या सोचती है यह भी तो जानना जरूरी है? और फिर न दो-तीन दिनों तक राजीव आए और न नूतन ही आई। वन्दना के हृदय में उथल-पुथल मची थी । निर्णय करना बड़ा मुश्किल था । माँ तो यह कहकर निश्चिन्त हो गई कि वन्दना जैसा चाहे। लेकिन वन्दना क्या करे? जब भी इस विषय पर सोचने लगती है उसकी आंखों से आँसुओं की झडी़ लग जाती है। कितना प्यार करती थी वह अमर को? वह कैसे उसे झटक कर चला गया? वह तो चाहती थी कि वह जन्म-जन्मान्तर तक उसी की पत्नी ही बनी रहे। उसके तो संस्कार कहते थे कि वह अन्य किसी पुरुष की ओर इस दृष्टि से देखे भी नहीं? अमर ने ऐसा क्यों किया? फिर उसने सोचा अगर अमर को कोई स्त्री मिल सकती है तो वन्दना किसी और के विषय में क्यों नहीं सोच सकती? कितनी गिरी बात थी लेकिन यह आजतक अमर उसका पति था और आज कोई और है। अगर किसी दिन राजीव ने अमर के विषय में पूछ दिया तो वह कैसी शर्मिदगी महसूस करेगी? पता नहीं अभी तो नहीं पर बाद में अगर वह कुछ और सोचे तो? क्या अतुल को वह पिता की तरह प्यार कर पाएगा? कहीं उसने दोनों में भेद- भाव किया तो? उसके हृदय में आँधियां चल रही थी पर निर्णय तो लेना ही था। पूरी जिन्दगी ऐसे काटना मुश्किल था। माँ ने निर्णय वन्दना पर पूरी तरह छोड़ दिया था। इतना बड़ा कदम उठाने में उन्हें डर भी लग रहा था फिर सोचती मेरे बाद इन दोनों का क्या होगा? मेरे जीवन का क्या भरोसा? कोई तो हो जो मेरे पोते और मेरी बहू का ध्यान रख सके? वन्दना की तो पूरी जिन्दगी पड़ी है मेरी आंखों के सामने अगर कोई सही व्यक्ति उसका हाथ थाम ले तो वे निश्चित होकर मर सकेगी। वन्दना से तो साफ कह दिया कि वह जैसा सोचे उसे मंजूर होगा। सोचते -सोचते थक गई वन्दना, तीन दिनों तक न नूतन आई और न राजीव। अभी तक निर्णय कहां कर पाई वन्दना क्या उत्तर देना है राजीव को? आज तक अमर के व्यवहार की पीड़ा उसे इतना नहीं दुखा पाई थी जितना अब दुखा रही थी। अगर अमर ने उसके साथ इतनी बेवफाई नहीं की होती तो क्या जरूरत थी वन्दना को किसी दूसरे का हाथ थामने की? वह तो अमर को दिलोजान से प्यार करती थी और उसे हर प्रकार से सुख पहुँचाने की चेष्टा करती थी फिर उसे अमर ने क्या सोचकर छोड़ दिया? उसमें क्या कमी थी? वन्दना फिर रोने लगी थी। वन्दना को अपनी चिन्ता नहीं थी पर नन्हें अतुल को वह पिता का प्यार कहां से दे? निर्णय तो करना ही था? चौथे दिन राजीव आया बड़ा परेशान और उदास सा उसे देखकर माँ को बड़ा दुख हुआ। कैसा परेशान सा लग रहा? उसने पूछा था पर वह तो उसके पूछने के पहले से ही उसे बेटे जैसा ही प्यार करती थी। उसने मांजी को प्रणाम किया और पूछा आपने क्या निश्चय किया मांजी? राजीव का स्वर कांप रहा था। अगर ना सुनने को मिला तो उसके स्वाभिमान को चोट पहुँचेगी।
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माँ ने सकुचाते हुए कहा मैं वन्दना को भेजती हूँ तुम उसी से बात कर लो। वन्दना ने आकर नमस्ते की तो उसकी आंखें लाल थीं । वन्दना ने कहा मैं अतुल के लिए पिता का प्यार चाहती जरूर हूँ पर भीख में मिला प्यार नहीं। अगर बिना किसी पूर्वाग्रह के उसे अपना सकें तो मुझे खुशी होगी। राजीव ने कहा-मैं भी तो यही चाहता हूँ और इसी डर से विवाह से दूर भागता रहा हूँ पर आपको देखकर यही लगा कि मेरी बेटी को माँ का प्यार आप ही दे सकती हैं और इसीलिए मन में यह ख्याल आया। राजीव ने उठकर वन्दना के दोनों हाथ पकड़ लिए और बोला-थैंक्यू सो मच। उसी समय माँ जो कमरे से आ रही थी उल्टे पैर लौट गई। मारे उत्तेजना के उनके हाथ पांव काप रहे थे। उनके बेटे की जगह कोई और ले रहा था फिर भी वे खुश थी। उन्हें राजीव गंभीर लड़का लगता था। और वे उसे प्यार भी करने लगी थी फिर एक सप्ताह बाद दोनों ने कोर्ट में विवाह कर लिया। सब साथ रहने लगे थे राजीव अतुल को बहुत प्यार करने लगा था और वन्दना नूतन को माँ का भरपूर प्यार देने की चेष्टा करती रहती । दोनों ही सन्तुष्ट थे। उन्हें लगने लगा था कि यह विवाह करके उनदोनों ने ठीक ही किया था। दोनों ही खुश थे घर में एक प्रकार की उदासी जो बनी रहती थी वह न जाने कहां उड़ गई थी। अकसर पांचों कहीं न कहीं घूमने जाते और हंसते रहते। नूतन ने एक दिन वन्दना के गले में बाँहें डालकर बड़े लाड से कहा-तुम कहां चली गई थी मां पापा कहते थे तुम मर गई? यह मरना क्या होता है? वन्दना ने कहा-मैं बाहर चली गई थी न इसीसे तुम्हारे पापा ने ऐसा कहा होगा। अब तो मैं आ गई हूँ? नूतन ने कहा-अच्छा अब मुझे छोड़कर कहीं मत जाना। तुम्हारे बिना मुझे अच्छा नहीं लगता था। आज नूतन को स्कूल भेजकर वन्दना रसोई में व्यस्त थी कि राजीव के हंसने की आवाज सुनकर बाहर आई। उसने देखा राजीव ने अतुल को नहलाकर एक बड़ा सा तौलिया उसकी कमर के गिर्द लपेट दिया था और अतुल को बड़े नाटकीय ढंग से सैल्यूट मार रहे थे । वन्दना को हंसी आ गई और उसने झुककर राजीव के गाल चूम लिए। यही तो कमी थी उसकी जिन्दगी में जिसके कारण वह इतनी दुखी थी राजीव ने कितने सुन्दर ढंग से उसे पूरा कर दिया। वह जितना भी एहसान माने राजीव का कम है। उसकी जिन्दगी फूलों से भर उठी थी। अतुल ने इसी बीच कहा थैंक्यू बोलो पापा; थैंक्यू बोला । और दोनों ही खिलखिलाकर हंस पड़े थे। वन्दना को लग रहा था कि उसका निर्णय ठीक ही था, नहीं तो ये खुशियों भरे दिन कहां देखने को मिलते? राजीव अतुल को हृदय से प्यार करता था। माँ ने भी खुश थीं और नूतन भी। अब वह भी किसी की परित्यक्ता नहीं थी। उसका एक पति था बेटा था और एक बेटी भी थी। सबके ऊपर माँ का आशीर्वाद भी था। उसे और क्या चाहिए भला?
कुसुम सिन्हा का परिचय:
आपको साहित्य में अभिरूचि पिता से विरासत में मिली। पटना युनिवर्सिटी से हिन्दी में एम.ए. किया और बी.एड. भी। आप गत २५ वर्षों से विभिन्न विद्यालयों में हिन्दी पढाती रहीं हैं । १९९७ में अमरीका चली गई । अमरीका में भारतीय बच्चों को हिन्दी पढ़ाने के लिए 'बाल बिहार' नामक एक स्कूल से जुड़ गई। तभी से कहानी, कविताएं लिखने का काम पूरे मनोयोग से करने लगी। अमरीका से प्रकाशित कई पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएं प्रकाशित होती रहती है। विश्वा साहित्य कुन्ज, सरस्वती सुमन, क्षितिज, आदि आपके काव्य संग्रह 'भाव नदी से कुछ बूंदे' प्रकाशित हो चुकी है। दो पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं।
Address:
Kusum Sinha
1770 Riverglen Drive
Suwanee, GA 30024
E-mail: kusumsinha2000@yahoo.com
आज भी प्रासंगिक हैं महात्मा गाँधी के विचार
कृष्ण कुमार यादव
विश्व पटल पर महात्मा गाँधी सिर्फ एक नाम नहीं अपितु शान्ति और अहिंसा का प्रतीक है। महात्मा गाँधी के पूर्व भी शान्ति और अहिंसा की अवधारणा फलित थी, परन्तु उन्होंने जिस प्रकार सत्याग्रह एवं शान्ति व अहिंसा के रास्तों पर चलते हुये अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया, उसका कोई दूसरा उदाहरण विश्व इतिहास में देखने को नहीं मिलता। तभी तो प्रख्यात वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था कि -‘‘हजार साल बाद आने वाली नस्लें इस बात पर मुश्किल से विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई इन्सान धरती पर कभी आया था।’’ संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2007 से गाँधी जयन्ती को ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाये जाने की घोषणा करके शान्ति व अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी के विचारों की प्रासंगिकता को एक बार पुन: सिद्ध कर दिया है।
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जब गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका से सत्याग्रह का अभ्युदय करके भारत लौटे तो वे इंग्लैड से बैरिस्टरी पास कर लौटे ऐसे ऐसे धनी व्यक्ति थे, जिसकी सालाना आय करीब 5,000 पाउण्ड थी। भारत की धरती पर प्रवेश करते ही उन्हें लगा कि अंग्रेजों के दमन का शिकार भारतीयों को काला कोट पहने फर्राटे से कोर्ट में अंग्रेजी बोलने वाले मोहनदास करमचंद गाँधी की नहीं वरन् एक ऐसे व्यक्ति की जरूरत है जो उन्हीं के पहनावे में, उन्हीं की बोली में, उन्हीं के बीच रहकर, उनके लिए संघर्ष कर सके। ऐसे में गाँधी जी ने अपनी पहली उपस्थिति अप्रैल 1917 में चम्पारन, बिहार में नील के खेतों में काम करने वाले किसानों हेतु सत्याग्रह करके दर्ज करायी पर अखिल भारतीय स्तर पर उनका उद्भव 1919 के खिलाफत आन्दोलन व फिर असहयोग आन्दोलन से हुआ। 1919 से आरम्भ इस दौर को भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन में ‘गाँधी युग’ के नाम से जाना जाता है। गाँधी जी ने न केवल उस समय चल रही उदार व उग्र विचारधाराओं के उत्तम भागों का समन्वय किया बल्कि दोनों को एक अधिक गतिशील और व्यावहारिक मोड़ दिया। 5 फरवरी 1922 को चैरीचैरा काण्ड के बाद बीच में ही असहयोग आन्दोलन वापस लेकर गाँधी जी ने यह जता दिया कि वे हिंसा की बजाय अहिंसक तरीकों से भारत की आजादी चाहते हैं। असहयोग आन्दोलन से जहाँ जनमानस में अंग्रेजी हुकूमत का खौफ खत्म हो गया वहीं जनसमूह गाँधी जी के पीछे उमड़ पड़ा। इसके बाद तो सिलसिला चल निकल पड़ा, आगे-आगे गाँधी जी और उनके पीछे पूरा कारवां। जाति-धर्म-भाषा-क्षेत्र से परे इस कारवां में पुरुष व महिलायें एक स्वर से जुड़ते गये। 1920-22 के असहयोग आन्दोलन, 1930-34 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन, 1940-41 के व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आन्दोलन और 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन द्वारा गाँधी जी ने अंग्रेजी हुकूमत को जता दिया कि भारत की स्वतंत्रता न्यायपूर्ण है और भारत में अंग्रेजी राज्य की समाप्ति आवश्यक है। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन ने तो अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला दीं। उस दौरान ब्रिटिश प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल से वार्ता पश्चात सम्राट जार्ज षष्ठम् ने अपनी डायरी में दर्ज किया था कि-‘‘ विन्स्टन चर्चिल ने मुझे यह कहकर आश्चर्यचकित कर दिया है कि उनके सभी सहयोगी और संसद के तीनों दल युद्ध के पश्चात् भारत को भारतीयों के हाथों में छोड़ने को उद्यत हैं। क्रिप्स, समाचार पत्र और अमरीकी लोकमत- सभी ने उनके मन में यह भावना भर दी है कि हमारा भारत पर राज्य करना गलत है और सदैव से भारत के लिए भी गलत रहा है।’’ इस प्रकार 15 अगस्त 1947 को आजादी प्राप्त कर गाँधी जी ने समूचे विश्व को दिखा दिया कि हिंसा जो सभ्य समाज के अस्तित्व को नष्ट करने का खतरा उत्पन्न करती है, का विकल्प ढूँढ़ने के लिए स्वयं की पड़ताल करने का भी एक प्रयास होना चाहिए।
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आज गाँधी जी सिर्फ भारत की भूमि तक ही सीमित नहीं बल्कि समग्र विश्व-धारा में व्याप्त हैं। उनके दिखाये गये रास्ते पर चलकर न जाने कितने राष्ट्रों ने अपनी स्वाधीनता पायी है। यह अनायास ही नहीं है कि गाँधी जी को पाँच बार 1937, 1938, 1939, 1947 व 1948 में नोबेल शान्ति पुरस्कार के लिये नामित किया गया। यह एक अलग बहस का विषय है कि किन कारणों से उन्हें नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया पर कालान्तर में गाँधी जी के सिद्धान्तों पर चलकर उन्हें अपना प्रेरणास्रोत मानने वाले कई लोगों को नोबेल शान्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1989 में नोबेल शान्ति सम्मान के लिए दलाई लामा के नाम की घोषणा करते हुये नोबेल कमेटी के सदस्यों ने गाँधी जी को नोबेल सम्मान नहीं देने पर अफसोस जताया और कमेटी के अध्यक्ष ने कहा कि दलाई लामा को यह सम्मान दिया जाना गाँधी जी की स्मृति को श्रद्धांजलि देने का प्रयास है। इसी प्रकार 1984 व 1993 में क्रमश: डेसमण्ड टूटू व नेल्सन मण्डेला को नोबेल शान्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जिन्होंने गाँधी जी को प्रेरणास्रोत मानते हुये दक्षिण अफ्रीका में वर्णभेद व रंगभेद की खिलाफत की थी।
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आज गाँधी जी के विचार पूरे विश्व में सर्वग्राह्य हैं। कभी आर्नल्ड टॉयनबी ने कहा था - ‘‘मैं जिस पीढ़ी में पैदा हुआ, वह पीढ़ी पश्चिम में केवल हिटलर अथवा स्तालिन की ही पीढ़ी नहीं थी अपितु भारत में गाँधी जी की भी पीढ़ी थी। हम निश्चयपूर्वक यह भविष्यवाणी कर सकते हैं कि मानव इतिहास पर गाँधी जी का प्रभाव हिटलर और स्तालिन के प्रभाव से अधिक होगा।’’ आज की नयी पीढ़ी गाँधी जी को एक नए रूप में देखना चाहती है। वह उन्हें एक सन्त के रूप में नहीं वरन् व्यवहारिक आदर्शवादी के रूप में प्रस्तुत कर रही है। ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ जैसी फिल्मों की सफलता कहीं-न-कहीं युवाओं का उनसे लगाव प्रतिबिम्बित करती है। आज भी दुनिया भर के सर्वेक्षणों में गाँधी जी को शीर्ष पुरूष घोषित किया जाता है। हाल ही में हिन्दू-सी0 एन0 एन0- आई0 वी0 एन0 द्वारा 30 वर्ष से कम आयु के भारतीय युवाओं के बीच कराए गए एक सर्वेक्षण में 76 प्रतिशत लोगों ने गाँधी जी को अपना सर्वोच्च रोल मॉडल बताया। बी0बी0सी0 द्वारा भारत की स्वतंत्रता के 60 वर्ष पूरे होने पर किये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक आज भी पाश्चात्य देशों में भारत की एक प्रमुख पहचान गाँधी जी हैं। यही नहीं तमाम पाश्चात्य देशों में गाँधीवाद पर विस्तृत अध्ययन हो रहे हैं, तो भारत में सुन्दरलाल बहुगुणा, मेघा पाटेकर, अरूणा राय से लेकर संदीप पाण्डे तक तमाम ऐसे समाजसेवियों की प्रतिष्ठा कायम है, जिन्होंने गाँधीवादी मूल्यों द्वारा सामाजिक आन्दोलन खड़ा करने की कोशिशें कीं। आँकड़े गवाह हैं कि विश्व भर में हर साल गाँधी जी व उनके विचारों पर आधारित लगभग दो हजार पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है एवम् हाल के वषों में गाँधी जी की कृतियों का अधिकार हासिल करने के लिये प्रकाशकों व लेखकों के आवेदनों की संख्या दो गुनी हो गई है। वस्तुत: आज जरूरत गाँधीवाद को समझने की है न कि उसे आदर्श मानकर पिटारे में बन्द कर देने की। स्वयं गाँधी जी का मानना था कि आदर्श एक ऐसी स्थिति है जिसे कभी भी प्राप्त नहीं किया जा सकता बल्कि उसके लिए मात्र प्रयासरत रहा जा सकता है।
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संयुक्त राष्ट्र संघ ने गाँधी जयन्ती को ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाये जाने की घोषणा करके शान्ति व अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी के विचारों की प्रासंगिकता को एक बार पुन: सिद्ध कर दिया है। सत्य, प्रेम व सहिष्णुता पर आधारित गाँधी जी के सत्याग्रह, अहिंसा व रचनात्मक कार्यक्रम के अचूक मार्गों पर चलकर ही विश्व में व्याप्त असमानता, शोषण, अन्याय, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, दुराचार, नक्सलवाद, पर्यावरण असन्तुलन व दिनों-ब-दिन बढ़ते सामाजिक अपराध को नियंत्रित किया जा सकता है। गाँधी जी द्वारा रचनात्मक कार्यक्रम के जरिए विकल्प का निर्माण आज पूर्वोत्तर भारत व जम्मू-कश्मीर जैसे क्षेत्रों की समस्याओं, नक्सलवाद व घरेलू आतंकवाद से निपटने में जितने कारगार हो सकते हैं उतना बल-प्रयोग नहीं हो सकता। गाँधी जी दुनिया के एकमात्र लोकप्रिय व्यक्ति थे जिन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वयं को लेकर अभिनव प्रयोग किए और आज भी सार्वजनिक जीवन में नैतिकता, आर्थिक मुद्दों पर उनकी नैतिक सोच व धर्म-सम्प्रदाय पर उनके विचार प्रासंग हैं। तभी तो भारत के अन्तिम वायसराय लार्ड माउण्टबेन ने कहा था - ‘‘गाँधी जी का जीवन खतरों से भरी इस दुनिया को हमेशा शान्ति और अहिंसा के माध्यम से अपना बचाव करने की राह दिखाता रहेगा।’’
जीवन-वृत्त: कृष्ण कुमार यादव
जन्म: 10 अगस्त 1977, तहबरपुर, आजमगढ़ (उ0 प्र0)
शिक्षा: एम0 ए0 (राजनीति शास्त्र), इलाहाबाद विश्वविद्यालय
विधा: कविता, कहानी, लेख, लघुकथा, व्यंग्य एवं बाल कविताएं।
प्रकाशन: देश की प्राय अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का नियमित प्रकाशन। एक दर्जन से अधिक स्तरीय काव्य संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन। इण्टरनेट पर विभिन्न वेब पत्रिकाओं में रचनाओं की प्रस्तुति।
प्रसारण: आकाशवाणी लखनऊ से कविताओं का प्रसारण।
कृतियाँ: अभिलाषा (काव्य संग्रह-2005), अभिव्यक्तियों के बहाने (निबन्ध संग्रह-2006), इण्डिया पोस्ट- 150 ग्लोरियस इयर्स (अंगे्रजी-2006), अनुभूतियाँ और विमर्श (निबन्ध संग्रह-2007), क्रान्ति यज्ञ: 1857-1947 की गााथा (2007)। बाल कविताओं व कहानियों का संकलन प्रकाशन हेतु प्रेस में।
सम्मान: विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थानों द्वारा सोहनलाल द्विवेदी सम्मान, कविवर मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, महाकवि शेक्सपियर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान, काव्य गौरव, राष्ट्रभाषा आचार्य, साहित्य मनीषी सम्मान, साहित्यगौरव, काव्य मर्मज्ञ, अभिव्यक्ति सम्मान, साहित्य सेवा सम्मान, साहित्य श्री, साहित्य विद्यावाचस्पति, देवभूमि साहित्य रत्न, ब्रज गौरव, सरस्वती पुत्र और भारती-रत्न से अलंकृत। बाल साहित्य में योगदान हेतु भारतीय बाल कल्याण संस्थान द्वारा सम्मानित।
विशेष: व्यक्तित्व-कृतित्व पर एक पुस्तक ‘‘बढ़ते चरण शिखर की ओर रू कृष्ण कुमार यादव‘‘ शीघ्र प्रकाश्य। सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार डॉ. राष्ट्रबन्धु द्वारा सम्पादित ‘बाल साहित्य समीक्षा’(सितम्बर 2007) एवं इलाहाबाद से प्रकाशित ‘गुफ्तगू‘ (मार्च 2008) द्वारा व्यक्तित्व-कृतित्व पर विशेषांक प्रकाशित।
अभिरूचियाँ: रचनात्मक लेखन व अध्ययन, चिंतन, नेट-सर्फिंग, फिलेटली, भ्रमण।
सम्प्रति/सम्पर्क:
कृष्ण कुमार यादव,
भारतीय डाक सेवा,
वरिष्ठ डाक अधीक्षक,
कानपुर मण्डल, कानपुर-208001
E-mail: kkyadav.y@rediffmail.com
Web Page : www.kkyadav.blogspot.com
वागर्थ, संपादन: एकान्त श्रीवास्तव , कुसुम खेमानी पता: भारतीय भाषा परिषद, 36ए,शेक्स्पियर सरणी, कोलकाता- 700017 bbparishad@yahoo.co.in | |
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पनघट संपादक: जवाहरलाल 'बेकस' पताः रूपांकन, मकान नम्बर: JKS/C-11, पुरानी जक्कनपुर, पटना-800001 vsj_rupankaran@sify.com | |
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मरूधर ज्योति संपादक: सतीशसिंह राजपुरोहित पता: 312, राजदान मेंशन, जालोरी बारी, जोधपुर- 342011(राज.) marudhar_jyoti@yahoo.co.in |
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its good to know about it? where did you get that information?
जवाब देंहटाएंati uttam, sadhuvad aap sabhee ko. bahut hee umda or shandar laga. main bhee koshish karunga yahan jagah pane kee.
जवाब देंहटाएंgovind goyal sriganganagar
katha vyatha ka taaza ank bahut kuch sahej kar laaya hai.Saath hi saath kaafi kuch aisa bhi hai jo bilkul naya hai.
जवाब देंहटाएंvaise yeh koshish GAAGAR ME SAGAR bharne jaisi hai .
MUBAARAKBAAD kubool kijiye.
यार शंभु आपने तो कमाल कर दिया. इतनी स्तरीय सामग्री एक साथ और वो भी लेखकों को पूरे सम्मान के साथ जगह देते हुण्. आपकी मेहनत सचमुच रंग ला रही है.
जवाब देंहटाएंबनाये रखें ये स्तर और ये गति
सूरज
कथा-व्यथा का नया अंक जारी कर शंभु आप सभी आपने कमाल कर दिया. लेखकों को पूरे सम्मान के साथ जगह देते आपकी मेहनत सचमुच रंग ला रही है.
जवाब देंहटाएंबनाये रखें ये स्तर और ये गति कम समय में जो सफलता मिली है। उसके लिये आप सभी बधाई के पात्र हैं। दीपावली की शुभकामना
शंभूजी सचमुच अच्छा काम किया है आपने। इनमें से कई को तो मैं नियमित पढ़ता हूं। रचनाकारों का विस्तृत परिचय देकर आपने पत्रिका की शोभा और बढ़ा दी है। नेट पर उपलब्ध और भी पत्रिकाओं का लिंक दे पाएं तो और भी बेहतर होगा। प्रकाश जी को भी मेरी तरफ से बधाई बोलिएगा।
जवाब देंहटाएंहम तारे को जमीं से उठा कर आसमान पर लगाना चाहतें हैं, न कि आसमान के तारे को जमीं पर।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा लक्ष्य है, प्रयासरत रहें.
मेल के द्वारा प्राप्त:
जवाब देंहटाएंOn Thu, Oct 16, 2008 at 10:13 PM, Subhash Neerav has wrote:
प्रिय शम्भु जी,
कथा-व्यथा का नया अंक देखा। बहुत मेहनत की है आपने। बहुत ही अच्छा अंक बन पड़ा है। मेरी बधाई स्वीकारें।
सुभाष नीरव
www.setusahitya.blogspot.com
www.sahityasrijan.blogspot.com
www.gavaksh.blogspot.com
www.vaatika.blogspot.com
www.srijanyatra.blogspot.com
मेल द्वारा प्राप्त: date Wed, Oct 15, 2008 at 10:59 AM
जवाब देंहटाएंप्रिय भाई,
अल्प समय में ही आपने 'कथा-व्यथा' और 'कविता-मंच' की सार्थकता सिद्ध कर दी है। यह आपकी सूझ-बूझ और लगन का परिणाम है।
अनेक साधुवाद।
महेंद्रभटनागर
मेल द्वारा प्राप्त : dateWed, Oct 15, 2008 at 8:20 AM
जवाब देंहटाएंbahut achchha laga kash main bhee hota
best wishes to your team i have leave my comment
Govind Goyal
Sriganganagar
gg.ganganagar@yahoo.com
मेल द्वारा प्राप्त:
जवाब देंहटाएंDevmani Pandey to Shambhu Choudhary
dateThu, Oct 16, 2008 at 2:57 PM
व्यथा कथा का ताज़ा अंक बहुत सुंदर लगा | रचनाओं की प्रस्तुति बहुत शानदार है |
--
Devmani Pandey (Poet)
A-2, Hyderabad Estate
Nepean Sea Road, Malabar Hill
Mumbai - 400 036
M : 98210-82126 / R : 022 - 2363-2727
Email : devmanipandey@gmail.com
It looked like a fresh air. Really a good attempt. I hope this will attract our new generation towards our own litrature and culture. Congratulatios to Shambhu Chowdhary and his team. Pradeep Jewrajka
जवाब देंहटाएंShambhu Ji
जवाब देंहटाएंBhai shyam Soni se aapke is sahitya bhagirath ke bare mein pata chala. Vastav mein kafi stariya aur sarahaniya karya kar rahen hai aap. Anek anek sadhuwad.
Gat do dino se manch par ek blog chal raha hai - meramanch.blogspot.com
Yadi waqt ho to jaroor visit karen.
Th: mail
जवाब देंहटाएंप्रिय शंभु जी,
अचानक आपका मेल तथा आपकी यह पत्रिका पाकर मैं ई-दुनिया का कायल हो गया और मेरी यह भावना दृढ़ हो गई कि आने वाले दिन हिंदी के लिए वही नहीं रहने वाले। आपकी पत्रिका बहुत ही अच्छी बन पड़ी है। यह बहुत ही अच्छा काम आप कर रहे हैं। आगे इसके अंकों की सूचना भेजते रहिए।
समय मिले तो indradhanushindia.org में मेरी ताजा कहानी देखने का कष्ट करें। और मेरा ब्लाग indiancitybus.blogspot.com भी।
आगे बातें होती रहेंगी।
Regards,
Binod Ringania
Udita Offset, Shahida Market Lane
Lakhtakia
Guwahati - 781001 (Assam)
India
91-98640-72186 (cell)
नमस्कार शभू जी
जवाब देंहटाएंकथा व्यथा के इस अंक के इतने अच्छे प्रकाशन के लिए बहुत बधाई
आशा करती हूँ कि कथा व्यथा दिन दूनी रात चौग नी वृद्धि करें
मेल के द्वारा प्राप्त
जवाब देंहटाएंशंभू जी नमस्ते,
आपकी पत्रिका देख कर हर्ष हो रहा है| बहुत अच्छी रचनाये हैं इसमे,
मैं भी अपनी रचनायें भेजना चाहता हूँ कृपया मार्गदर्शन करें|
मेरा ब्लॉग भी दखें
http://surinderratti.blogspot.com
धन्यवाद
सुरिन्दर रत्ती - मुंबई
sari kavitaen achchhi lagi .thanks to all member
जवाब देंहटाएंsunil kumar sonu
sunilkumarsonus@yahoo.com
आप बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं शम्भू भाई ! मेरी हार्दिक शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंशम्भू जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार
दरअसल कथा-व्यथा मेरे स्पैम में मुझे प्राप्त हुई और शायद इस वजह से मेरा ध्यान इस तरफ़ गया ही नहीं.
बहुत अच्छा लगा अक्टूबर का अंक. मैं चाहूँगा की आप इसमे लघु कथा और ग़ज़लों का भी एक अलग अलग खंड बना लें. जैसी भी सुविधा हो.
आपकी पत्रिका के लिए बहुत बहुत शुभकामनायें.
मुकेश पोपली
सार्थक और सारगर्भित प्रयास के लिए साधुवाद !!
जवाब देंहटाएंaaj mera sobhagya jo kathavyatha ke poorane aankon se roobru hua.sundartam prayas aapka.hardik shubh kamnayen.Ratan Jain Parihara
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