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मंगलवार, 2 सितंबर 2008

कथा-व्यथा - सितम्बर 2008

कथा-व्यथा - सितम्बर 2008






कवि मंच में भाग लें। कवि मंच की सदस्यता ग्रहण कर अपनी कविता स्वयं पोस्ट करें। - ई-हिन्दी साहित्य सभा


प्रधान संपादक:

प्रकाश चण्डालिया


संपादक:

शम्भु चौधरी


सहयोगी:

1.पवन निशान्त
2.मयंक सक्सेना
3.श्रद्धा जैन



अनुक्रम

संपादकीय  
पत्र-पत्रिका प्राप्ती  
सूचना:  कथा महोत्सव-2008  
पाब्लो नेरुदा  
राजनैतिक बनाम सामाजिक लोकतंत्र  
समीक्षा काव्य संग्रह-‘‘अभिलाषा’’  
श्रद्धांजलि: कवि वेणुगोपाल को  
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कविताएं






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E-mail:kathavyatha@gmail.com


चित्र Haridas Chattopadhyay,Secretary,TOLIC
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संपादकीय:


ये दुःख की नहीं, कलम की व्यथा है
जो समझ गये उनकी कथा है।



दोस्तों कथा-व्यथा का दूसरा अंक आज जारी कर रहा हूँ। प्रथम अंक में कई पत्र आये अच्छा लगा कि आप सभी ने हमारे इस प्रयास को तहेदिल से स्वीकारा। पिछले माह में हमने दो ई-पुस्तकें भी जारी की  1. 'आडी तानें सीधी ताने'   2. 'सन्नाटे के शिलाखंड पर'  ये दोनों पुस्तकें श्री हरीश भादानी जी की है। हमारा यह प्रयास रहेगा कि देश-विदेश के हिन्दी साहित्यकारों की बातें, लेख ,कविता, कहानी इत्यादि को यूनिकोड में हस्तांतरित या परिवर्तित किया जा सके। भले ही वो किसी भी भाषा की ही क्यों न हो। जो सुविधा हमें गुगल्स समूह ने दी है, इसका हम किस प्रकार लाभ ले सकते हैं, इस पर हमें विचार करना चाहिये। मैने देखा कि कई लोगों को हम आपस में जानने लगे, कौन कैसा लिख रहा है। उसकी क्या पहचान है या होनी चाहिये ये सुविधा इंटरनेट के जाल ने हमें उपलब्ध करा दी है। आज हमें इस मंच का प्रयोग कुछ इस प्रकार करना चाहिये कि हमारे साहित्य को विश्व गंभीरता से ग्रहण करे। विश्व हमारी छवी को, हमारी सभ्यता का न सिर्फ सूचक समझे, भारतीय सभ्यता को स्वीकार भी करे। हम साहित्य के प्रति कितने सजग हैं, हमें यह अवसर मिला है। विश्व हमारी बातों को यूनिकोड के माध्यम से अपनी भाषा में अनुवाद कर पढ़ रहा है। एक विदेशी सज्जन ने मुझे 'बधाई' भेजी। उन्होंने लिखा कि "हिन्दी कविता के अनुवाद को देख कर मैं दंग रह गया। हमारे देश में ऐसी कविता तो पढ़ने को ही नहीं मिलती।" यहाँ हम किसी व्यक्ति विशेष की बात नहीं करना चाहते। आईये! हम 'हिन्दी दिवस' के अवसर पर प्रण लें कि हिन्दी में साहित्य की रचना करते समय नाम की चिंता न करें, तभी हिन्दी के प्रति हम सब की सच्ची सेवा होगी। कुछ मित्रों ने इस ई-पत्रिका को सहयोग देने बावत मेल किया था। हम उन सभी का आभार व्यक्त करते हैं। यदि वे किसी प्रकार का विज्ञापन देना चाहें तो हम सहर्ष स्वीकार करेंगें।

आपका ही: शम्भु चौधरी, संपादक 'कथा-व्यथा'
ई-हिन्दी साहित्य सभा


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राजनैतिक बनाम सामाजिक लोकतंत्र

राम शिव मूर्ति यादव




  भारत का समाज लम्बे अरसे से अन्यायी रहा है। इसका अन्यायी चरित्र दो तरह के प्रशासनों से तैयार हुआ है- प्रथमतः, राजनैतिक प्रशासन और द्वितीयतः, सामाजिक प्रशासन। राजनैतिक प्रशासन का सम्बन्ध जहाँ वाह्य से है, वहीं सामाजिक प्रशासन का सम्बन्ध आन्तरिक से है। अर्थात प्रथम जहाँ शरीर को प्रभावित करता है वहीं दूसरा मन या आत्मा को। प्रथम जहाँ संविधान, कानून, दण्ड, कारागार के माध्यम से भयभीत करके नियंत्रण रखता है, वहीं दूसरा मन या आत्मा पर जन्म से ही धर्म, ईश्वर, नैतिकता, स्वर्ग-नरक इत्यादि सामाजिक संस्कारों और धार्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से नियंत्रण रखता है। प्रथम जहाँ पुलिस, सेना, नौकरशाही का इस्तेमाल करता है, वहीं दूसरा पंडा-पुरोहित, पुजारी, साधु, शंकराचार्य के माध्यम से शासन करता है। यद्यपि दोनों ही तरह के प्रशासनों ने पूरे समाज को अपने अनुरूप जकड़ रखा है परन्तु सामाजिक प्रशासन, राजनैतिक प्रशासन की अपेक्षा ज्यादा प्रभावी है क्योंकि यह लम्बे समय से चली आ रही तमाम परम्पराओं, रीति-रिवाजों और संस्कारों के माध्यम से समाज को शासित करता है, जिससे इसका प्रभाव भी लम्बी अवधि तक चलता है। सामाजिक प्रशासन के सभी कारक स्थिर और स्थायी होते हैं, जैसे ईश्वर की अवधारणा, धर्म की अवधारणा, रीति-रिवाज और परम्पराओं की अवधारणा। ये अवधारणायें आये दिन परिवर्तित नहीं होतीं वरन् सदियों तक सतत् अपने आप चलती रहती हैं। निहित स्वार्थी वर्ग बीच-बीच में इसके अनुकूल वातावरण भी तैयार करते रहते हैं, जिससे कि यह पौधा मुरझाने नहीं पाता। इसके विपरीत राजनैतिक प्रशासन परिवर्तित होता रहता है, यथा- संविधान, कानून, सरकारें सभी समय-समय पर बदलते रहते हैं। कभी-कभी तो विदेशी शासक भी कब्जा कर अपना राजनैतिक प्रशासन स्थापित कर लेते हैं जैसे भारत में मुगलों और अंग्रेजों का शासन। परन्तु इनके समय में भी सामाजिक प्रशासन ज्यों का त्यों बरकार रहा। कारण कि पहले से जिस वर्ग का सामाजिक प्रशासन पर प्रभुत्व था, उस वर्ग को मिलाकर शासन करना इन विदेशियों को सुविधाजनक लगा। अतः मुगलों और अंग्रेजों इत्यादि ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था से छेड़छाड़ नहीं किया। सुसान बेली ने अपनी पुस्तक ‘कास्ट सोसायटी एण्ड पॉलिटिक्स इन इण्डिया’ में जिक्र किया है कि-‘‘18वीं सदी में देशी शासकों ने अपने राजतंत्र का अधिकाधिक ब्राह्मणीकरण किया और कुछ ने तो राज्य के महत्वपूर्ण पद और कार्य ब्राह्मण मूल के लोगों को ही सौंपे। अंग्रेजों ने इस परम्परा को न केवल बरकरार रखा अपितु उसे संस्थाबद्ध भी किया।’’


    उल्लेखनीय है कि जिस वर्ग या जाति के हाथ में सामाजिक प्रशासन होता है, प्रायः उसी के हाथ में राजनैतिक प्रशासन भी हो जाता है। वस्तुतः सामाजिक प्रशासन, राजनैतिक प्रशासन के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करता है। भारत में द्विजवर्ग ने इस स्थिति का फायदा उठाकर सदियों से राजनैतिक और सामाजिक दोनों प्रशासनों पर अपना नियन्त्रण बनाये रखा और आज भी काफी हद तक वही स्थिति बरकरार है। यहाँ तक कि मुगलों और अंग्रेजों के शासन काल में भी इन द्विजों के हितों पर खरोंच तक नहीं आई और इसी के सहारे उन्होंने जमींदार, आनरेरी मजिस्ट्रेट, तालुकदार जैसे तमाम महत्वपूर्ण पदों को हथिया लिया। अंग्रेजी साम्राज्यवाद के कारण जहाँ एक ओर अत्यन्त विषम सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक व्यवस्था थी, वहीं दूसरी तरफ द्विजवर्ग के चलते जाति व्यवस्था ने असमानता को एक सामाजिक वैधता दे रखी थी। विदेशी शासकों के लिए यह सुविधाजनक भी था क्योंकि स्थानीय प्रभुत्व वर्ग को मिलाने से उनका काम आसान हो गया। सामाजिक प्रशासन में परिवर्तन करना यद्यपि किसी क्रान्ति से कम नहीं, परन्तु समय-समय पर तमाम महान विभूतियों ने इसको चुनौती दी है और उसके सुखद परिणाम भी सामने आये। कबीरदास, रैदास, गुरुनानक, नारायणगुरु, ज्योतिबा फुले, डॉ.अम्बेडकर इत्यादि ने सामाजिक प्रशासन के पुरातनपंथी कारकों - अन्धविश्वासों, रूढ़िगत परम्पराओं, मूर्तिपूजा, अस्पृश्यता, जातिवाद इत्यादि पर हमला बोला। शिवाजी को शासन सत्ता तब मिली जब महाराष्ट्र के संतों ने द्विजों के सामाजिक प्रशासन के खिलाफ आवाज उठाई तो दक्षिण में पेरियार ने जब ब्राह्मणवाद के खिलाफ आन्दोलन छेड़ा, तब द्रमुक पार्टी सत्ता में आयी। बिहार में 1915 के दौरान निम्न समझी जाने वाली जातियों ने जनेऊ पहन कर अपनी सामाजिक हैसियत को आगे बढ़ाने का आन्दोलन आरम्भ किया। इसी प्रकार जब डॉ. अम्बेडकर ने ब्राह्मणवादी संस्कृति और मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ खुला आन्दोलन छेड़ा तो दलितों में चेतना पैदा हुई और उसी का प्रतिफल है कि आज दलित सत्ता के तमाम शीर्ष ओहदों तक पहुँच पाए हैं।


    स्पष्ट है कि बिना सामाजिक प्रशासन के राजनैतिक प्रशासन नहीं मिलता और मिलता भी है तो उसका चरित्र स्थायी नहीं होता। कारण कि उस वर्ग के लोगों में जागरुकता, चेतना और स्वाभिमान का अभाव होता है, जिससे वे अपने जायज अधिकारों को नहीं समझ पाते। उनको जन्म से ही ऐसे संस्कारों और हीनता के भावों से कुपोषित कर दिया जाता है कि वे संघर्ष करना भूलकर भाग्यवाद के सहारे जी रहे होते हैं। उनको कोल्हू के बैल की तरह एक घेरे में ही सीमित कर दिया जाता है। अतः सामाजिक परिवर्तन के लिए इस वर्ग को जागरुक, चेतनशील और चैकन्ना बनना होगा तभी वास्तविक रूप से सामाजिक परिवर्तन आयेगा और राजनैतिक परिवर्तन के लिए सामाजिक परिवर्तन का होना एक अति आवश्यक कारक है। इस हेतु सर्वप्रथम समाज को बदलना पड़ेगा, जो कि एक दुरूह कार्य है। वैसे तो समय-समय पर ऐसे बहुतेरे समाज सुधारक हुये, जिन्होंने सड़ी-गली सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठाई परन्तु ये सभी पुरातनपंथी समाज व्यवस्था के पोषक द्विज वर्गों में से ही थे। फिर यह कैसे सम्भव है कि ये अपने ही लोगों को सदियों से प्राप्त जन्मना विशेषाधिकारों का हनन करते। इन समाज सुधारकों ने ऊपरी तौर पर सामाजिक व्यवस्था को बदलने का प्रयास तो किया, किन्तु उस पुरातनपंथी सामाजिक व्यवस्था की जड़ पर हमला नहीं किया। कहीं न कहीं यह एक तरह से शोषित, पिछड़े और दलित वर्ग के बीच फूट रही चिंगारी को दबाने के लिए महज एक सेटी-वाल्व के रूप में साबित हुआ और यही कारण था कि इन समाज सुधारकों के प्रयास से सामाजिक व्यवस्था में कोई बुनियादी और दूरगामी परिवर्तन सम्भव नहीं हुआ। द्विज वर्ग की सामाजिक प्रभुता ज्यों की त्यों बनी रही और समाज में ऊँच-नीच की भावना और जातिगत कारक जैसे तत्व यथावत् बने रहे जिससे सामाजिक लोकतंत्र स्थापित नहीं हो सका।


     डॉ.अम्बेडकर ने कहा था कि राजनैतिक सुधारों की अपेक्षा सामाजिक सुधार ज्यादा कठिन हंै। अपने कटु अनुभवों के आधार पर उन्होंने देख लिया था कि हिन्दू धर्म में विगत के तमाम सुधारवादी आन्दोलनों के बावजूद समता और भ्रातृत्व की भावना नहीं आ पाई और भविष्य में भी इसकी दूर-दूर तक कोई सम्भावना नजर नहीं दिख रही थी। 1935 में एक सभा में उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा था कि-‘‘आप लोग ऐसा धर्म चुनें, जिसमें समान दर्जा, समान अधिकार और समान अवसर हों।’’ डॉ. अम्बेडकर को हिन्दू जाति-व्यवस्था का बचपन से ही काफी कटु और तीखा अनुभव था और इसीलिये उन्होंने भारतीय संस्कृति को जाति आधारित ब्राह्मण संस्कृति कहा था। वे हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था से सर्वाधिक आहत थे। यही कारण रहा कि वर्ण-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था के खिलाफ जैसा खुला संघर्ष उन्होंने किया, वैसी मिसाल भारत के इतिहास में मिलना दुर्लभ है। डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा को संविधान समर्पित करते हुये कहा था कि-‘‘राजनैतिक लोकतन्त्र तभी सार्थक होगा जब देश में सामाजिक लोकतन्त्र कायम होगा।’’ संविधान तो लागू हो गया पर दुर्भाग्य से आज तक भारत में सामाजिक लोकतन्त्र स्थापित नहीं हो सका। कारण स्पष्ट है कि निहित स्वार्थी वर्गों ने बड़े जटिल ताने-बाने के माध्यम से अपना सामाजिक प्रशासन स्थापित कर रखा है और धर्मिक संस्कारों व सांस्कृतिक परम्पराओं की आड़ में इसे अभेद्य बना दिया है। इस अभेद्य दुर्ग को एक झटके में तोड़ना सम्भव नहीं है वरन् इसके लिए अथक् संघर्ष और सतत् सद्-प्रयासों की जरूरत है। आजकल दलित, पिछड़े और आदिवासी जैसे शोषित वर्ग इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था को तोड़ने के लिए प्रयासरत हैं, विशेषकर दलित साहित्य के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन का यह कार्य बखूबी किया जा रहा है। वहीं दूसरी तरफ ब्राह्मणवादी वर्ग अपनी सामाजिक प्रभुता को बचाये रखने हेतु एड़ी-चोटी का पसीना एक किये हुये है और अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु किसी भी हद तक जाने को तैयार है। वस्तुतः इसी सामाजिक प्रभुता के बल पर वह आबादी में मात्र 15 प्रतिशत होते हुये भी राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, तकनीकी, चिकित्सकीय, शैक्षणिक और आर्थिक क्षेत्रों में अपना पूर्ण वर्चस्व बनाये हुये हैं। यहाँ तक कि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को आरक्षण तक का सहारा लेने में सतत् अवरोध खड़ा किया जा रहा है, जबकि सामाजिक न्याय के सम्वर्द्धन हेतु आरक्षण व्यवस्था भारतीय संविधान तक में निहित है। वस्तुतः वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सामाजिक प्रशासन और इसके द्वारा निहित हितों की पूर्ति स्वयं में एक साध्य बन गई है। अतः आज सबसे बड़ी आवश्यकता है कि दलित, पिछड़े, आदिवासी मिलकर सामूहिक रूप से ब्राह्मणवादियों के इस सामाजिक प्रशासन और उसमें सन्निहित उनके स्वार्थी हितों के चक्रव्यूह को ध्वस्त करें, फिर राजसत्ता तो उनके हाथों में स्वतः आ जायेगी। पर अफसोस कि डॉ. अम्बेडकर, ज्योतिबा फूले, पेरियार जैसी महान विभूतियों के अलावा द्विजों की इस सामाजिक प्रशासन रूपी अवधारणा के तन्तुओं को किसी अन्य ने नहीं समझा या समझने का प्रयास नहीं किया। यही कारण है कि आज भी हिन्दू सामाजिक व्यवस्था उसी प्राचीन मनुवादी सूत्रों से संचालित हो रही है। आर.एस.एस. जैसे संगठनों की स्थापना भी कहीं न कहीं इसी मकसद से की गई। सार्वजनिक मंचों पर भाषणों और प्रवचनों के जरिये सामाजिक समता व भ्रातृत्व का तो खूब प्रचार किया जाता है किन्तु हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के रस्मों-रिवाज और परम्परायें, रोजमर्रा का जीवन, जन्म-मरण, विवाह, खान-पान, सम्बोधन, अभिवादन इत्यादि सब कुछ अभी भी मनुवाद से ओत-प्रोत हैं। हिन्दुओं की प्राचीन जीवन पद्धति जिसमें सब कुछ जाति आधारित है, जस की तस है। अगर उसमें कुछ परिवर्तन आया भी तो वह नगण्य है। अंग्रेंजो ने भी इस देश पर शासन करने के लिए उस सामंती और पुरोहिती सत्ता के सामाजिक आधार को पोषित और पुनर्जीवित किया, जिसका आधिपत्य पहले से ही भारतीय समाज पर था। इस सन्दर्भ में भारत के प्रथम गर्वनर जनरल लॉर्ड वारेन हेस्टिंटग्स का कथन दृष्टव्य है- ‘‘यदि अंग्रेजों को भारतीयों पर स्थायी शासन करना है, तो उन्हें संस्कृत में उपलब्ध हिन्दुओं के उन पुराने कानूनों पर महारत हासिल करनी चाहिए, जिनके कारण एक ही जाति के मुट्ठी भर लोग हजारों साल तक बहुसंख्यक वर्ग पर शासन करते रहे। इस नीति से जहाँ भारतीयों को गुलामी की जंजीरों का भार थोड़ा हल्का लगेगा, वहीं उन्हें यह भी महसूस होगा कि ये लोग हमारे पुरोहितों की तरह हमारे शुभचिन्तक हैं और इनकी भाषा भी वही है, जो हमारे पुरोहितों की है।’’

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    इसी सन्दर्भ में आर्थिक विकास और सामाजिक विकास पर भी प्रकाश डालना उचित होगा। आधुनिक परिवेश में आर्थिक विकास की बात करने पर भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण का चित्र दिमाग में आता है। संसद से लेकर सड़कों तक जी.डी.पी. व शेयर-सेंसेक्स के बहाने आर्थिक विकास की धूम मची है और मीडिया भी इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है। जिस देश के संविधान में लोक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना की गई हो, वहाँ सामाजिक विकास की बात की गौण हो गई है। यहाँ तक कि नोबेल पुरस्कार विजेता प्रख्यात अर्थशास्त्री डॉ. अमत्र्य सेन ने भी भारतीय परिप्रेक्ष्य में इंगित किया है कि - शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसी आधारभूत सामाजिक आवश्यकताओं के अभाव में उदारीकरण का कोई अर्थ नहीं है। आर्थिक विकास में जहाँ पूजीपतियों, उद्योगपतियों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों अर्थात राष्ट्र के मुट्ठी भर लोगों को लाभ होता है, वहीं भारत का बहुसंख्यक वर्ग इससे वंचित रह जाता है या नगण्य लाभ ही उठा पाता है। इस प्रकार ट्रिंकल डाउन का सिद्धान्त फेल हो जाता है। अतः सामाजिक विकास जो कि बहुसंख्यक वर्ग की आधारभूत आवश्यकताओं के पूरी होने पर निर्भर है, के अभाव में राष्ट्र का समग्र और चहुमुखी विकास सम्भव नहीं है। एक तरफ गरीब व्यक्ति अपनी गरीबी से परेशान है तो दूसरी तरफ देश में करोड़पतियों-अरबपतियों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है। तमाम कम्पनियों पर करोड़ों रुपये से अधिक का आयकर बकाया है तो इन्हीं पूँजीपतियों पर बैंकों का भी करोडों रुपये शेष है। डॉ. अमत्र्य सेन जैसे अर्थशास्त्री ने भी स्पष्ट कहा है कि समस्या उत्पादन की नहीं, बल्कि समान वितरण की है। आर्थिक विकास में पूँजी और संसाधनों का केन्द्रीकरण होता है जो कि कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के खिलाफ है। फिर भी तमाम सरकारें सामाजिक विकास के मार्ग में अवरोध पैदा करती रहती हैं। जिस देश की 70 प्रतिशत जनसंख्या नगरीय सुविधाओं से दूर हो, एक तिहाई जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे हो, लगभग 40 प्रतिशत जनसंख्या अशिक्षित हो, जहाँ गरीबी के चलते करोड़ों बच्चे खेलने-कूदने की उम्र में बालश्रम में झोंक दिये जाते हों, जहाँ कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में हर साल हजारों किसान फसल चैपट होने पर आत्महत्या कर लेते हों, जहाँ बेरोजगारी सुरसा की तरह मुँह बाये खड़ी हो-वहाँ शिक्षा को मँहगा किया जा रहा है, सार्वजनिक संस्थानों को औने-पौने दामों में बेचकर निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, सरकारी नौकरियाँ खत्म की जा रही हैं, सब्सिडी दिनों-ब-दिन घटायी जा रही है, निश्चिततः यह राष्ट्र के विकास के लिए शुभ संकेत नहीं है।

    अमेरिका के चर्चित विचारक नोम चोमस्की ने भी हाल ही में अपने एक साक्षात्कार में भारत में बढ़ते द्वन्द पर खुलकर चर्चा की है। चोमस्की का स्पष्ट मानना है कि भारत में जिस प्रकार के विकास से आर्थिक दर में वृद्धि हुयी है, उसका भारत की अधिकांश जनसंख्या से कोई सीधा वास्ता नहीं दिखता। यहीं कारण है कि भारत सकल घरेलू उत्पाद के मामले में जहाँ पूरे विश्व में चतुर्थ स्थान पर है, वहीं मानव विकास के अन्तर्राष्ट्रीय मानदण्डों मसलन, दीर्घायु और स्वस्थ जीवन, शिक्षा, जीवन स्तर इत्यादि के आधार पर विश्व में 126 वें नम्बर पर है। आम जनता की आर्थिक स्थिति पर गौर करें तो भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के 54 सर्वाधिक गरीब देशों में गिना जाता है। संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट को मानें तो जैसे-जैसे भारत की विकास दर में वृद्धि हुयी है, वैसे-वैसे यहाँ मानव विकास का स्तर गिरा है। आज 0-5 वर्ष की आयुवर्ग के भारतीय बच्चों में से लगभग 50 फीसदी कुपोषित हैं तथा प्रति 1000 हजार नवजात बच्चों में 60 फीसदी से ज्यादा पहले वर्ष में ही काल-कवलित हो जाते हैं। स्पष्ट है कि उपरी तौर पर भारत में विकास का जो रूप दिखायी दे रहा है, उसका सुख मुट्ठी भर लोग ही उठा रहे हैं, जबकि समाज का निचला स्तर इस विकास से कोसों दूर है।


    अब समय आ गया है कि गरीब, किसान, दलित, पिछड़े और आदिवासी वर्गों में व्यापक चेतना तथा जागरुकता पैदा की जाय जिससे वे अपनी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सरकारों को बाध्य कर सकें। यद्यपि यह काम इतना आसान नहीं है क्योंकि द्विज वर्ग आम लोगों का उनकी जरूरतों की तरफ से ध्यान हटाने के लिए सदैव नाना प्रकार के स्वांग रचते रहते हैं। कभी मन्दिर-मस्जिद, कभी राष्ट्रवाद, कभी साम्प्रदायिकता, कभी कश्मीर तो कभी आतंकवाद की बात उठाकर लोगों को गुमराह किया जाता है जिससे मूल मुद्दे नेपथ्य में चले जाते हैं। आज जरूरत है कि देश में सबके साथ समान व्यवहार किया जाये, सबको समान अवसर प्रदान किया जाये और जो वर्ग सदियों से दमित-शोषित रहा है उसे संविधान में प्रदत्त विशेष अवसर और अधिकार देकर आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया जाये, तभी इस देश में सामाजिक न्याय और सामाजित लोकतंत्र का मार्ग प्रशस्त होगा और भारत एक समृद्ध राष्ट्र के रूप में विश्व के मानचित्र पर अपना अग्रणी स्थान बना सकेगा।

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परिचय:
जन्म तिथिः 20 दिसम्बर 1943, जन्म स्थानः सरांवा, जौनपुर (उ.प्र.) पिता:स्व.श्री सेवा राम यादव, शिक्षा: एम.ए. (समाज शास्त्र), काशी विद्यापीठ, वाराणसी  लेखनः देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं- अरावली उद्घोष, युद्धरत आम आदमी, समकालीन सोच,आश्वस्त, अपेक्षा, बयान, अम्बेडकर इन इण्डिया, अम्बेडकर टुडे, दलित साहित्य वार्षिकी, दलित टुडे, मूक वक्ता, सामथ्र्य, सामान्यजन संदेश, समाज प्रवाह, गोलकोण्डा दर्पण, शब्द, कमेरी दुनिया, जर्जर, कश्ती, प्रेरणा अंशु, यू.एस.एम. पत्रिका दहलीज, दि मॉरल, इत्यादि में विभिन्न विषयों पर लेख प्रकाशित। इण्टरनेट पर विभिन्न वेब-पत्रिकाओं में लेखों का प्रकाशन।  प्रकाशनः   सामाजिक व्यवस्था एवं आरक्षण (1990)। लेखों का एक अन्य संग्रह प्रेस में। सम्मानः भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ‘‘ज्योतिबा फुले फेलोशिप सम्मान‘‘। राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा ’’भारती ज्योति’’ सम्मान।   रूचियाँ:रचनात्मक लेखन एवं अध्ययन, बौद्धिक विमर्श, सामाजिक कार्यों में रचनात्मक भागीदारी।
  सम्प्रति: उत्तर प्रदेश सरकार में स्वास्थ्य शिक्षा अधिकारी पद से सेवानिवृत्ति पश्चात स्वतन्त्र लेखन व अध्ययन एवं समाज सेवा।


सम्पर्क:


श्री राम शिव मूर्ति यादव, स्वास्थ्य शिक्षा अधिकारी (सेवानिवृत्त), तहबरपुर, पो0-टीकापुर, आजमगढ़(उ.प्र.)-276208


E-mail:rsmyadav@rediffmail.com
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समीक्षा काव्य संग्रह-‘‘अभिलाषा’’

व्यक्तिगत सम्बन्धों की कविता में सामाजिक सहानुभूति का मानस-संस्पर्श



     मनुष्य को अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों के साथ ही जीवन के विविध क्षेत्रों से प्राप्त हो रही अनुभूतियों का आत्मीकरण तथा उनका उपयुक्त शब्दों में भाव तथा चिन्तन के स्तर पर अभिव्यक्तीकरण ही वर्तमान कविता का आधार है। जगत के नाना रूपों और व्यापारों में जब मनीषी को नैसर्गिक सौन्दर्य के दर्शन होते हैं तथा जब मनोकांक्षाओं के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करने में एकात्मकता का अनुभव होता है, तभी यह सामंजस्य सजीवता के साथ समकालीन सृजन का साक्षी बन पाता है। युवा कवि एवं भारतीय डाक सेवा के अधिकारी कृष्ण कुमार यादव ने अपने प्रथम काव्य संग्रह ‘‘अभिलाषा’’ में अपने बहुरूपात्मक सृजन में प्रकृति के अपार क्षेत्रों में विस्तारित आलंबनों को विषयवस्तु के रूप में प्राप्त करके ह्नदय और मस्तिष्क की रसात्मकता से कविता के अनेक रूप बिम्बों में संजोने का प्रयत्न किया है। "अभिलाषा" का संज्ञक संकलन संस्कारवान कवि का इन्हीं विशेषताओं से युक्त कवि कर्म है, जिसमें व्यक्तिगत सम्बन्धों, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक समस्याओं और विषमताओं तथा जीवन मूल्यों के साथ हो रहे पीढ़ियों के अतीत और वर्तमान के टकरावों और प्रकृति के साथ पर्यावरणीय विक्षोभों का खुलकर भावात्मक अर्थ शब्दों में अनुगुंजित हुआ है। परा और अपरा जीवन दर्शन, विश्व बोध तथा विद्वान बोध से उपजी अनुभूतियों ने भी कवि को अनेक रूपों में उद्वेलित किया है। इन उद्वेलनों में जीवन सौन्दर्य के सार्थक और सजीव चित्र शब्दों में अर्थ पा सके हैं।


     संकलन की पहली कविता है- "माँ" के ममत्व भरे भाव की नितान्त स्नेहिल अभिव्यक्ति। जिसमें ममता की अनुभूति का पवित्र भाव-वात्सल्य, प्यार और दुलार के विविध रूपों में कथन की मर्मस्पर्शी भंगिमा के साथ कथ्य को सीधे-सीधे पाठक तक संप्रेषित करने का प्रयत्न बनाया है। शब्द जो अभिधात्मक शैली में कुछ कह रहे हैं वह बहुत स्पष्ट अर्थान्विति के परिचायक हैं, परन्तु भावात्मकता का केन्द्र बिन्दु व्यंजना की अंतश्चेतना संभूत व आत्मीयता का मानवी मनोविज्ञान बनकर उभरा है। गोद में बच्चे को लेकर शुभ की आकांक्षी माँ बुरी नजर से बचाने के लिये काजल का टीका लगाती है, बाँह में ताबीज बाँधेती है, स्कूल जा रहे बच्चे की भूख-प्यास स्वयं में अनुभव करती है, पड़ोसी बच्चों से लड़कर आये बच्चे को आँचल में छिपाती है, दूल्हा बने बच्चे को भाव में देखती है, कल्पना के संसार में शहनाईयों की गूँज सुनती है, बहू को सौंपती हुई माँ भावुक हो उठती है। नाजों से पाले अपने लाड़ले को जीवन धन सौंपती हुई माँ के अश्रु, करूणा विगलित स्नेह और अनुराग के मोती बनकर लुढ़क पड़ते हैं। कवि का "माँ" के प्रति भाव अभ्यर्थना और अभ्यर्चना बनकर कविता का शाश्वत शब्द सौन्दर्य बन जाता है।


     कृष्ण कुमार यादव का संवेदनशील मन अनुमान और प्रत्यक्ष की जीवन स्मृतियों का जागृत भाव लोक है, जहाँ माँ अनेक रूपों में प्रकट होती है। कभी पत्र में उत्कीर्ण होकर, तो कभी यादों के झरोखों से झांकती हुई बचपन से आज तक की उपलब्धियों के बीच एक सफल पुत्र को आशीर्वाद देती हुई। किसी निराश्रिता, अभाव ग्रस्त, क्षुधित माँ और सन्तति की काया को भी कवि की लेखनी का स्पर्श मिला है, जहाँ मजबूरी में छिपी निरीहता को भूखी कामुक निगाहों के स्वार्थी संसार के बीच अर्धअनावृत आँचल से दूध पिलाती मानवी को अमानवीय नजरों का सामना करना पड़ रहा है। माँ के विविध रूपों को भावों के अनेक स्तरों पर अंकित होते देखना और कविता को शब्द देना आदर्श और यथार्थ की अनुभूतियों का दिल में उतरने वाला शब्द बोध है।


     नारी का प्रेयसी रूप सुकोमल अनुभूतियों से होकर जब भाव भरे ह्नदय के नेह-नीर में रूपायित होता है तब स्पर्श का सुमधुर कंकड़ किस प्रकार तरंगायित कर देता है, ज्योत्सना स्नान प्रेम की सुविस्तारित रति-रजनी के आगोश में बैठे खामोश अंर्तमिलन के क्षणों को इन पंक्तियों में देखें-रात का पहर/जब मैं झील किनारे/ बैठा होता हूँ/चाँद झील में उतर कर/नहा रहा होता है/कुछ देर बाद/चाँद के साथ/एक और चेहरा/मिल जाता है/वह शायद तुम्हारा है/पता नहीं क्यों/ बार-बार होता है ऐसा/मैं नहीं समझ पाता/सामने तुम नहा रही हो या चाँद/आखिरकार झील में/एक कंकड़ फेंककर/खामोशी से मैं/ वहाँ से चला आता हूँ।

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     तलाश, तुम्हें जीता हूँ, तुम्हारी खामोशी, बेवफा, प्रेयसी, तितलियाँ, प्रेम, कुँवारी किरणें, शीर्षक कवितायें जिन वैयक्तिक भावनाओं की मांसल अभिव्यक्तियों को अंगडा़इयों में उमंग से भरकर दिल के झरोखों से झाँकती संयोग और वियोग की रसात्मकता का इजहार करती हैं, वह गहरी सांसों के बीच उठती गिरती जन्म-जन्म से प्यासी प्रीति पयस्विनी के तट पर बैठे युगल की ह्नदयस्पन्दों में सुनी जाने वाली शरीर की खुशबू और छुअन का स्मृति-स्फीत संसार है। इनमें आंगिक चेष्टाओं और ऐन्द्रिक आस्वादनों की सौन्दर्यमयी कल्पना का कलात्मक प्रणयन ह्नदयवान रसज्ञों के लिये रसायन बन सकता है। "प्रेयसी" उपखण्ड की इन कविताओं में सुकोमल वृत्तियों की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हो सकती हैं- सूरज के किरणों की/पहली छुअन/ थोड़ी अल्हड़-सी/ शर्मायी हुई, सकुचाई हुई/ कमरे में कदम रखती है/वही किरण अपने तेज व अनुराग से/वज्र पत्थर को भी/पिघला जाती है/शाम होते ही ढलने लगती हैं किरणें/जैसे कि अपना सारा निचोड़/ उन्होंने धरती को दे दिया हो/ठीक ऐसे ही तुम हो।


     जीवन प्रभात से प्रारम्भ होकर विकास, वयस्कता, प्रौढ़ता और वार्धक्य की अवस्थाओं को लांघती कविता की गम्भीर ध्वनि मादकता के उन्माद को जीवन सत्य का दर्शन कराने में सक्षम भी हो जाती है। नारी के स्त्रीत्व को मातृत्व और प्रेयसी रूपों से आगे बढ़ाता हुआ कवि, शोषण, उत्पीड़न, अनाचार, अन्याय के पर्याय बन चुके संदेश से दलित व अबला जीवन से भी साक्षात्कार कराता है, जहाँ महीयसी की महिमा, खंड-खंड हो रही भोग्या बनकर देह बन जाती है। स्त्री विमर्श की इन कविताओं में सामाजिक और वैयक्तिक विचारणा की अनेक संभावनाओं से साक्षात्कार करता कवि भाव और विचार में पूज्या पर हो रहे अनन्त अत्याचारों का पर्दाफाश करता है। बहू को जलाना, हवस का शिकार होना तथा श्वोश् बन कर सड़क के किनारे अधनंगी, पागल और बेचारी बनी बेचारगी क्या कुछ नहीं कह जाती, जो इन कविताओं में बेटी और बहू के रूप में कर्तव्यों की गठरी लादे जीवन की डगर पर अर्थहीन कदमों से जीने को विवश हो जाती है। स्त्री विमर्श का यथार्थ, दलित चेतना की सोच इन कविताओं में वर्तमान का सत्य बन कर उभरी हैं।


     ईश्वर की कल्पना मनुष्य को जब मिली होगी, उसे आशा का आस्थावन विश्वास भी मिला होगा। कृष्ण कुमार यादव ने भी ईश्वर के भाव रूप को सर्वात्मा का विकास माना है। उनका मानना है कि धर्म-सम्प्रदाय के नाम पर घरौदों का निर्माण न तो उस अनन्त की आराधना है, और न ही इनमें उसका निवास है। कवि ने ईश्वर के लिए लिखा है-मैं किसी मंदिर-मस्जिद गुरूद्वारे में नहीं/मैं किसी कर्मकाण्ड और चढ़ावे का भूखा नहीं/नहीं चाहिए मुझे तुम्हारा ये सब कुछ/मैं सत्य में हूँ, सौन्दर्य में हूँ, कर्तव्य में हूँ /परोपकार में हूँ, अहिंसा में हूँ, हर जीव में हूँ/अपने अन्दर झांको, मैं तुममें भी हूँ/फिर क्यों लड़ते हो तुम/बाहर कहीं ढूँढते हुए मुझे। कवि ईश्वर की खोज करता है अनेक प्रतीकों में, अनेक आस्थाओं में और अपने अन्दर भी। वह भिखमंगों के ईश्वर को भी देखता है और भक्तों को भिखमंगा होते भी देखता है, बच्चों के भगवान से मिलता है और स्वर्ग-नरक की कल्पनाओं से डरते-डराते मन के अंधेरों में भटकते इन्सानों की भावनाओं में भी खोजता है।


     बालश्रम, बालशोषण और बाल मनोविज्ञान को "अभिलाषा" की कविताओं में जिन शीर्षकों में अभिव्यक्त किया गया है, उनमें प्रमुख हैं-अखबार की कतरनें, जामुन का पेड़, बच्चे की निगाह, वो अपने, आत्मा, बच्चा और मनुष्य तथा बचपन। इन रचनाओं में बाल मन की जिज्ञासा, आक्रोश, आतंक, मासूमियत, प्रकृति, पर्यावरण आदि का मनुष्य के साथ, पेड़-पौधों के साथ व जीव-जन्तुओं के साथ निकट सम्बन्ध आत्मीयता की कल्पना को साकार करते हुए, अतीत और वर्तमान की स्थितियों से तुलना करते हुए, आगे आने वाले कल की तस्वीर के साथ व्यक्त किया गया है। बहुधा जीवन और कर्तव्य बोध से अनुप्राणित इस खण्ड की कविताओं में कवि ने बच्चे की निगाह में बूढ़े चाचा को भीख का कटोरा लिए हुए भी दिखाया है और हुड़दंग मचाते जामुन के पेड़ तथा मिट्टी की सोधी गंध में मौज-मस्ती करते भी स्मृति के कोटरों में छिपी अतीत की तस्वीर से निकालकर प्रस्तुत करते पाया है। बच्चों के निश्छल मन पर छल की छाया का स्वार्थी प्रपंच किस प्रकार हावी होता है और झूठे प्रलोभन व अहंकार के वशीभूत हुए लोग उन्हें भय का भूत दिखाते हैं और जीवन भर के लिये कुरीतियों का गुलाम बना देते हैं, यह भी इन कविताओं में दृष्टव्य हुआ है।


     मन के एकांत में जीवन की गहन चेतना के गम्भीर स्वर समाहित होते हैं। जब मनुष्य आत्मदर्शी होकर प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करता है, तब संसार के हलचल भरे माहौल से अलग, उसे मखमली घास और पेड़ों के हरित संसार में रची-बसी अलौकिक सुन्दरता का दर्शन होता है और चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई देती है। वह मन की खिड़की खोल कर देखता है तभी उसे अपने अस्तित्व के दर्शन होते हैं। अकेलेपन का अहसास कराती नीरवता, मानव जीवन की हकीकत, बचपन से जवानी और बुढ़ापे तक का सफर अनेक आशाओं और निराशाओं का अंधेरा और उजाला नजर आने लगता है अकेलेपन में। इस प्रकार की कविताएं भी इस संकलन की विशेषता हैं।


     वर्तमान समय की ग्राम्य और नगर जीवन स्थितियों में पनप रही आपा-धापी का टिक-टिक-टिक शीर्षक से कार्यालयी दिनचर्या, अधिकारी और कर्मचारी की जीवन दशायें, फाइलें, सुविधा शुल्क तथा फर्ज अदायगी शीर्षकों में निजी अनुभव और दैनिक क्रियाकलापों का स्वानुभूत प्रस्तुत किया गया है। प्रकृति के साथ भी कवि का साक्षात्कार हुआ है-पचमढ़ी, बादल, नया जीवन तथा प्रकृति के नियम शीर्षकों में। इनमें मनुष्य के भाव लोक को आनुभूतिक उद्दीपन प्रदान करती प्रकृति और पर्यावरण की सुखद स्मृतियों को प्रकृतस्थ होकर जीवन के साथ-साथ जिया गया है।


     नैतिकता और जीवन मूल्य कवि के संस्कारों में रचे बसे लगते हैं। उसे अंगुलिमाल के रूप में अत्याचारी व अनाचारी का दुश्चरित्र-चित्र भी याद आता और बुद्ध तथा गाँधी का जगत में आदर्श निष्पादन तथा क्षमा, दया, सहानुभूति का मानव धर्म को अनुप्राणित करता चारित्रिक आदर्श भी नहीं भूलता। वर्तमान समय में मनुष्य की सद्वृत्तियों को छल, दंभ, द्वेष, पाखण्ड और झूठ ने कितना ढक लिया है, यह किसी से छिपा नहीं है। इन मानव मूल्यों के अवमूल्यन को कवि ने शब्दों में कविता का रूप दिया है।


     कृष्ण कुमार यादव ने "अभिलाषा" में कविता को वस्तुमत्ता तथा समग्रता के बोध से साधारण को भी असाधारण के अहसास से यथार्थ दृष्टि प्रदान की है, जो प्रगतिशीलता चेतना की आधुनिकता बोध से युक्त चित्तवृत्ति का प्रतिबिम्ब है। इसमें कवि मन भी है ओर जन मन भी। मनुष्य इस संसार में सामाजिकता की सीमाओं में अकेला नहीं रहता। उसके साथ समाज रहता है, अतः अपने सम्पर्कों से मिली अनुभूति का आभ्यन्तरीकरण करते हुए कवि ने अपनी भावना की संवेदनात्मकता को विवेकजन्य पहचान भी प्रदान की है। रूढ़ि और मौलिकता के प्रश्नों से ऊपर उठकर जब हम इन कविताओं को देखते हैं तो लगता है कि सहज मन की सहज अनुभूतियों को कवि ने सहज रूप से सामयिक-साहित्यिक सन्दर्भों से युग-बोध भी प्रदान करने का प्रयास किया है। दायित्व-बोध और कवि कर्म में पांडित्य प्रदर्शन का कोई भाव नहीं है, फिर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि विचार को भाव के ऊपर विजय मिली है। कविता समकालीन लेखन और सृजन के समसामयिक बोध की परिणति है सो ‘‘अभिलाषा’’ की रचनाएँ भी इस तथ्य से अछूती नहीं हैं।


     भाषा और शब्द भी आज के लेखन में अपनी पहचान बदल रहे हैं। वह श्वोश् हो गया है, वे और उन का स्थान भी तद्भव रूपों ने ले लिया है। श्री यादव ने भी अनेक शब्दों के व्याकरणीय रूपों का आधुनिकीकरण किया है।


     वैश्विक जीवन दृष्टि, आधुनिकता बोध तथा सामाजिक सन्दर्भों को विविधता के अनेक स्तरों पर समेटे प्रस्तुत संकलन के अध्ययन से आभासित होता है कि श्री कृष्ण कुमार यादव को विपुल साहित्यिक ऊर्जा सम्पन्न कवि ह्नदय प्राप्त है, जिससे वह हिन्दी भाषा के वांगमय को स्मृति प्रदान करेंगे।


समालोच्य कृति- अभिलाषा (काव्य संग्रह)
कवि- कृष्ण कुमार यादव
प्रकाशक- शैवाल प्रकाशन, दाऊदपुर, गोरखपुर
पृष्ठ- 144, मूल्य- 160 रुपये
समीक्षक- डा0 राम स्वरूप त्रिपाठी पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष, डी.ए.वी. कालेज, कानपुर
E-mail:drdeepti25kkyadav.y@rediffmail.com

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कविताएं


श्रीमती कुसुम सिन्हा की तीन कविताएं



1. बनकर सुगन्ध


बनकर सुगन्ध तुम जीवन की
बगिया को मेरे मंहकाओ
नयनों के पथ से उतर उतर
मेरे तन मन में बस जाओ
बन फूल मेरी हर धड़कन में
मेरी सासों में बस जाओ
बनकर सुगन्ध तुम जीवन की
बगिया को मेरे मंहकाओ
जब नींद न आए रातों को
और बेचैनी सी हो मन में
चंदा की किरणों से झर झर
तुम मीठी लोरी बन जाओ
बनकर सुगन्ध तुम जीवन की
बगिया को मेरे मंहकाओ
मेरे घर की दोहरी आंगन
तेरी यादों से मंहक रहे
हर अंग में मेरे चंदन की
बन गंध आज तुम मुस्काओ
बनकर सुगंध तुम जीवन की
बगिया को मेरे मंहकाओ
यह रात चांदनी भी तेरी
आहट से जैसे महंक रही
मेरे हर सुर में बंधकर तुम
मेरे गीतों में बस जाओ
बनकर सुगन्ध तुम जीवन की
बगिया को मेरे मंहकाओ
यह हवा चल रही झूम झूम
कुद मतवाली सी चाल से जो
शायद तुमको छूकर आई
तुम और न उसको बहकाओ
बनकर सुगन्ध तुम जीवन की
बगिया को मेरे मंहकाओ
तेरे आने की आहट से
धरती अंबर हैं महक रहे
इन बेला के फूलों को तुम
अपनी सुगन्ध से महंकाओ
बनकर सुगन्ध तुम जीवन की
बगिया को मेरे मंहकाओ


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2. आया बसन्त

 

फूलों की गन्ध लिए आया बसन्त
पेड़ों की फुनगी पर, कोमल से पल्लव
वृक्षों के झुरमुट में, पक्षी का कलरव
डालों के साथ-साथ, गाती हवाएं हैं
तन मन झुलसाती, गर्मी का हुआ अन्त
फूलों की गन्ध लिए आया बसन्त
टहनी पर दिखने लगी, कोमल कलिकाएं
मन के आंगन में छाए, सपनों के साए
उड़ते है हवा संग, फूलों के मकरंद
मन के आंगन में छाए, सपनों के साए
उड़ते है हवा संग, फूलों के मकरंद
फूलों की गन्ध लिए आया बसन्त
आमोंके बौरों से होकर मतवाली
गाती है कुहू कुहू कोयलिया काली
छेड़ों मत सपनों को मन में बस जाने दो
नए नए रचने दो गीतों के छंद
फूलों की गन्ध लिए आया बसन्त
मादक से मौसम ने मन की आतुरता ने
खोल दिए ताले चुप्पी के बंद
फूलों की गन्ध लिए आया बसन्त


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3. आजकल चीटियाँ

 

हैरान हूं मैं
बहुत हैरान हूं
जानकर कि चीटियों ने
सैंकड़ों वर्ष पुरानी
परम्पराओं को तोड़ डाला है
मान्यताओं को मिटा डाला है और
आजकल मीठी चीजों की ओर
देखती भी नहीं?
आजकल चीटियां
काटती भी कम हैं
मनुष्य के व्यक्तित्व की मिठास
कम जो गई है?
निराश हो छोड़ दिया
मीठा ही खाना?
नमकीन दीख जाय तो दौड़ पड़ती हैं
अगर वह हल्दीराम का हुआ तो?
बाबा रे लाइन ही लगा देती है?
आजकल चीटियां
बहुत हेल्थ कांसस हैं
डाइबिटीज ना हो जाय
इसलिए मीठा खाना छोड़ ही दिया?
आजकल चीटियां
अकसर फोन के कनेक्शन के गिर्द
या उसके तारों पर
रेंगती नजर आती हैं?
आजकल चीटियां
हाई टेक हो गई हैं?
टेलीफोन की टेक्नोलोजी
समझ लेना चाहती हैं
या फोन पर लोगों की बातें
सुनने को बेताब ये चीटियां
नजर आती हैं हर जगह पर कहीं
रहता हो आपके घर में
अगर कोई जवान जोड़ा
बढ़ जाती है बहुत पेरशानी उनकी
चीटियां कभी फोन के कनेक्शन के गिर्द
या उसके तारों पर रेंगती नजर आती है
बहुत परेशान है मेरी सुमी
आजकल गलियां भी देती है
बेहाया बेशर्मा बदमाश
पर ये वैसे ही रेंगती दौड़ती भागती नजर आती है
आजकल चीटियां
आखिर इक्कीसवी सदी की हैं
क्यों हो पुराने जमाने जैसी?
हैरान हूं मैं बहुत परेशान हूं मैं
यह जानकर कि चीटियां ने सैकड़ो वर्ष पुरानी
परम्पराओं को तोड़ डाला है और
मान्यताओं को भी मिटा डाला है।


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कुसुम सिन्हा का परिचय:


आपको साहित्य में अभिरूचि पिता से विरासत में मिली। पटना युनिवर्सिटी से हिन्दी में एम.ए. किया और बी.एड. भी। आप गत २५ वर्षों से विभिन्न विद्यालयों में हिन्दी पढाती रहीं हैं । १९९७ में अमरीका चली गई । अमरीका में भारतीय बच्चों को हिन्दी पढ़ाने के लिए 'बाल बिहार' नामक एक स्कूल से जुड़ गई। तभी से कहानी, कविताएं लिखने का काम पूरे मनोयोग से करने लगी। अमरीका से प्रकाशित कई पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएं प्रकाशित होती रहती है। विश्वा साहित्य कुन्ज, सरस्वती सुमन, क्षितिज, आदि आपके काव्य संग्रह 'भाव नदी से कुछ बूंदे' प्रकाशित हो चुकी है। दो पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं।

Address:
Kusum Sinha
1770 Riverglen Drive
Suwanee, GA 30024

E-mail: kusumsinha2000@yahoo.com





श्रीमती श्रद्धा जैन की तीन कविताएं




1. वो मुसाफिर किधर गया होगा


जब मिटा के शहर गया होगा
एक लम्हा ठहर गया होगा

है, वो हैवान ये माना लेकिन
उसकी जानिब भी डर गया होगा

तेरे कुचे से खाली हाथ लिए
वो मुसाफिर किधर गया होगा

ज़रा सी छाँव को वो जलता बदन
शाम होते ही घर गया होगा

नयी कलियाँ जो खिल रही फिर से
ज़ख़्म ए दिल कोई भर गया होगा


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2. मालूम न था हमको

 

आई जो कभी दूरी ,कर देगी जुदा हमको
वो लौट न पाएँगे मालूम न था हमको

रिश्तों की कसौटी पर खुद को ही मिटा आए
हम चलते रहे तन्हा, थे साथ नहीं साए
अश्कों के सिवा उनसे, कुछ भी न मिला हमको
वो लौट न पाएँगे मालूम न था हमको

मौला ये बता दे मुझे, मेरा दिल क्यूँ सुलगता है
सूरज में जलन है गर, क्यूँ चाँद पिघलता है
साँसों के भी चलने से, लगता है बुरा हमको
वो लौट न पाएँगे मालूम न था हमको

सोचा कि मना लूँ उन्हें, मिन्नत भी कई कर लूँ
कदमों में गिर जाऊं, बाहों में उन्हें भर लूँ
होगा ये नही लेकिन, आसां जो लगा हमको
वो लौट न पाएँगे, मालूम न था हमको

गिरते हुए कदमों की, आहट पर न जाना तुम
मर जाएँगे हम यूँ ही, न अश्क़ गिराना तुम
आँसू ये तेरे अब भी, देते हैं सज़ा हमको
वो लौट न पाएँगे, मालूम न था हमको


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3. जिगर की बात

 

हमने छुपा के रखी थी सबसे जिगर की बात
सुनते हैं फिर भी गैरों से, अपने ही घर की बात

छोटी सी बात से ही तो बुनियाद हिल गयी
मज़बूत हैं कहते रहे, दीवार ओ दर की बात

बनना सफ़ेदपोश तो कालिख लगाना सीख
उंगली उठाना बन गया अब तो हुनर की बात

बातें फक़त बनाने में न जाए ये उमर
लाओ अगर अमल में तो होगी असर की बात

जज़्बात दिल के मैंने, जो बेबाक लिख दिए
कुछ लोग कहे रहे हैं के होगी कहर की बात

वादे के इंतेज़ार में, जब रात ढल गयी
महफ़िल में तब से हो रही अश्क़ भर की बात

जब भी मिली है मंज़िल, रस्ता बदल लिया
हमको तो शौक़ "श्रद्धा" करते सफ़र की बात


परिचय:


श्रीमती श्रद्धा जैन

शिक्षा - विज्ञान में MSc और कंप्यूटर Advance accounting में डिप्लोमा। विदिशा में पली बढ़ी मगर पिछले नौ सालों से सिंगापुर निवासी हूँ। फिलहाल आप एक अंतर्राष्ट्रीय विद्यालय में शिक्षिका के रूप में कार्यरत हैं। 'विदिशा' भारत के मध्यप्रदेश में भोपाल शहर के पास एक बहुत छोटा सा शहर है। आपने केमिस्ट्री में अपनी शिक्षा पूरी की और वक़्त की हवा ने आपको सिंगापुर पहुँचा दिया यहाँ आकर देश की सभ्यता की खूबियों को जाना, जाना रिश्ते क्या हैं, अपनो का साथ कैसा होता है, और अपने देश की मिट्टी में कितना सकुन है कुछ एहसास कलम से काग़ज़ पर उतर आए और श्रद्धा आप सबके बीच आ गयी !


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दीप्ति गुप्ता की 'मृत्यु' पर चार कविताएं



1. 'मौत में मैने जीवन को पनपते देखा है'




मौत में मैने जीवन को पनपते देखा है !

सूखी झड़ती पत्तियों के बीच फूल को मुस्कुराते देखा है,
मौत में मैने जीवन को पनपते देखा है !

दो बूँद सोख कर नन्हे पौधे को लहलहाते देखा है,
मौत में मैने जीवन को पनपते देखा है !

'पके' फलों के गर्भ में, जीवन संजोये बीजों को छुपे देखा है,
मौत में मैने जीवन को पनपते देखा है !

मधुमास की आहट से, सूनी शाखों में कोंपलों को फूटते देखा है
मौत में मैने जीवन को पनपते देखा है !

राख के ढेर में दबी चिन्गारी को चटकते, धधकते देखा है।
मौत में मैने जीवन को पनपते देखा है !

सूनी पथराई आँखों में प्यार के परस से सैलाब उमड़ते देखा है,
मौत में मैने जीवन को पनपते देखा है !

बच्चों की किलकारी से, मुरझाई झुर्राई दादी को मुस्काते देखा है,
मौत में मैने जीवन को पनपते देखा है !


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2. मृत्यु तुम शतायु हो

 

मृत्यु तुम शतायु हो, चिरायु हो
तभी तो इन शब्दों के समरूप हो, समध्वनि हो,
शतायु, चिरायु, मृत्यु
तुम अमर हो, अजर हो,
तुम अन्त हो, अनन्त हो,
तुम्हारे आगे कुछ नहीं,
सब कुछ तुम में समा जाता है,
सारी दुनिया, सारी सृष्टि
तुम पर आकर ठहर जाती है,
तुम में विलीन हो जाती है,
तुम अथाह सागर हो,
तुम निस्सीम आकाश हो,
इस स्थूल जगत को अपने में समेटे हो,
फिर भी कितनी सूक्ष्म हो
संसार समूचा तुमसे आता, तुम में जाता,
महिमा तुम्हारी हर कोई गाता,
रहस्यमयी सुन्दर माया हो
आगामी जीवन की छाया हो


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3. जीवन के दो छोर

 

जीवन के दो छोर
एक छोर पे जन्म
दूसरे पे मृत्यु
जन्म से आकार पा कर
जीवन एक दिन मृत्यु में विलय हो जाता है
ऐसा तुम्हे लगता है,
पर मुझे तो कुछ और नज़र आता है,
"मृत्यु जन्म की नींव है "
जहाँ से जीवन फिर से पनपता है,
मृत्यु वही अन्तिम पड़ाव है,
जिस से गुज़र कर, जिसकी गहराईयों में पहुँचकर
सारे पाप मैल धो कर, स्वच्छ और उजला हो कर
जीवन पुनः आकार पाता है !
'मृत्यु' उसे सँवार कर, जन्म की ओर सरका देती है,
और यह 'संसरण' अनवरत चलता रहता है !
फिर तुम क्यों मृत्यु से डरते हो, खौफ खाते हो ?
अन्तिम पड़ाव, अन्तिम छोर है वह,
जन्म पाना है तो सृजन बिन्दु की ओर प्रयाण करना होगा,
इस अन्तिम पड़ाव से गुज़रना होगा,
उस पड़ाव पे पहुँचकर, तुम्हे जीवन का मार्ग दिखेगा,
तो नमन करो- जीवन के इस अन्तिम, चरम बिन्दु को
जो जीवन स्रोत है, सर्जक है !


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4. बोलो कहाँ नहीं हो तुम

 

बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?
बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?
सोई मौत को जगाया मैने कह कर यह -
बोलो कहाँ नहीं हो तुम !
बोलो कहाँ नहीं हो तुम !

अचकचा कर उठ बैठी वह,
देखा मुझे चकित होकर कुछ,
बोली - मैं तो सबको अच्छी लगती हूँ - सुप्त-लुप्त
मुझे जगा रही क्यों तुम ?
मैं बोली - जीवन अच्छा, बहुत अच्छा लगता है
पर, बुरी नहीं लगती हो तुम
बुरी नहीं लगती हो तुम !
ख्यालों में निरन्तर बनी रहती हो तुम
जैसे साँसों में जीवन,
जीवन का ऐसा हिस्सा हो तुम,
जिसे अनदेखा कर सकते, नहीं हम,
ऐसी एक सच्चाई तुम
नकार जिसे सकते नहीं हम,
जीवन के साथ हर पल, हर क्षण,
हर ज़र्रे ज़र्रे में तुम,
बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?
बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?

जल में हो तुम, थल में हो तुम,
व्योम में पसरी, आग में हो तुम,
सनसन तेज़ हवा में हो तुम,
सूनामी लहरों में तुम,
दहलाते भूकम्प में तुम,
बन प्रलय उतरती धरती पर जब,
तहस नहस कर देती सब तुम,
अट्ठाहस करती जीवन पर,
भय से भर देती हो तुम !
उदयाचल से सूरज को, अस्ताचल ले जाती तुम,
खिले फूल की पाँखों में, मुरझाहट बन जाती तुम,
जीवन में कब - कैसे, चुपके से, छुप जाती तुम
जब-तब झाँक इधर-उधर से, अपनी झलक दिखाती तुम,
कभी जश्न में चूर नशे से, श्मशान बन जाती तुम,
दबे पाँव जीवन के साथ, सटके चलती जाती तुम,
कभी पालने पर निर्दय हो, उतर चली आती हो तुम
तो मिनटों में यौवन को कभी, लील जाती हो तुम,
बाट जोहते बूढ़ों को, कितना -कितना तरसाती तुम,
बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?
बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?


E-mail:drdeepti25@yahoo.co.in
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कुन्डलिया: यही है भैया सावन : देवेन्द्र कुमार मिश्रा





सावन आयो-बर्षा लायो, इन्द्र धनुष की रचना ।
सजनी चली मायके अपने, साजन देखें सपना ।।
साजन देखें सपना, मिलन की बाँधे आस ।
वैरी पपीहा पिहु-पिहु बोले, विरह बढाये प्यास ।।
डाली-डाली-डले हैं झूले, मौसम हुआ सुहावन ।
सखी-सहेली करें हठकेली, झूम के आया सावन ।।

हरियाली की ओढ़ चुनरिया, वर्षा रानी आई ।
पैरों में झरनों की झर-झर, पायलिया झनकाई ।।
पायलिया झनकाई, रंग-बिरंगे पुष्प खिले बालो में हो गजरा ।
नदियाँ-नाले कुआँ तल ईयाँ , चारों ओर नीर का कजरा ।।
मयूर नृत्य कर रहस रचाये, चाल चले मतवाली ।
उगी हैं फसलें भाँति-भाँति की, गहना पहने हरियाली ।।

दामिनि दमिके-मेघा गरजें, रिम-झिम बरसे नीर ।
गये पिया परदेस भीगें तन-मन, बढती जाये पीर ।।
बढती जाये पीर, तन में आग लगाये ।
कुहू-कुहू कोयल की बोली, मन में हूक उठाये ।।
विरह की मारी दर-दर डोले, इन्तिजार में कामिनि ।
आजाओ मिल जायें ऐसे, जैसे मेघा-दामिनि ।।

सावन के शुभ सोमवार, महाकाल की पूजा ।
चले काँबडिया अमरनाथ को, ऐसा नहीं है दूजा ।।
ऐसा नहीं है दूजा, भाई-बहिन का प्यार ।
रक्षाबंधन ऐसा बंधन, राखी का त्योहार ।।
हाथों मेंहदी रचाई, रहे सुहाग पावन ।
तरह-तरह मिष्ठान बने हैं, यही है भैया सावन ।।


पता:
अमानगंज मोहल्ला नेहरु बार्ड न0 13
छतरपुर (म.प्र.)

E-mail:devchp@gmail.com
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मैं बारूद में हूं- पवन निशान्त




मैं बारूद में था
और लगातार फट रहा था
मैं फट रहा था और बहरों के
कान लगातार फोड़ रहा था
उनसे मैल निकल रहा था
मवाद निकल रहा था
चीखें निकल रही थीं
कई कराह रहे थे और कुछ कसमसा रहे थे
फूटे कान बुदबुदाने लगे थे
वे फटना नहीं चाहते थे मगर
मैंने उन्हें फोड़ दिया था।
मैं सालों बारूद में रहा
और दसों दिशाओं से गायब हो गए बहरे
सर्जरी कराने लगे कई बहरे
या कान को हाथ में रखकर चलने लगे
बारूद का खौफ बहरों पर तारी था
कोई बहरा ढूंढ लाने पर ईनाम घोषित कर दिया गया था
ढूंढे नहीं मिलते थे बहरे
जनता अदालत के बीच पड़ी कुर्सियों पर
तहसील दिवस में चौड़ी टेबिल के इर्द-गिर्द
और न उस इमारत में जहां चुनी हुई राजनैतिक आत्माएं
गांधी का सूत पहने सबसे पहले बहरा होने का
उपक्रम करतीं अक्सर दिख जाती थीं।
मैं बारूद में हूं
कोई गूंगा है तो भी
उसे सुना जाने लगा है
खेत पर खाली हाथ जाने वाले
मुआवजे के हकदार हो गए हैं
साइकिल चला लेने वाले
लखटकिया बाइक लेकर लौट रहे हैं
कोई बोलता है तो उसे चीख माना जाने लगा है
शिकायत करते ही समाधान चलकर आने लगे हैं
लोगों की चौखट पर सुबह सुबह।
अफसर फूटे कानों से अलंकृत हैं
और उपकृत दिखने की मुद्रा में खड़े हैं
गति को रोक देने वाला निशान (यह निशान लाल भी हो सकता था)
दौड़ते हुए सिस्टम की पहचान है अब।
मैं बारूद में बसे रहना चाहता हूं
लोगों ने मुझे दीर्घायु होने का आशीर्वाद दिया है।।


परिचय:

जन्म-11 अगस्त 1968, रिपोर्टर दैनिक जागरण, रुचि-कविता, व्यंग्य, ज्योतिष और पत्रकारिता
पता-69-38, महिला बाजार, सुभाष नगर, मथुरा, (उ.प्र.) पिन-281001.

E-mail:pawannishant@yahoo.com
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हर राह में सफलता है- सुनील कुमार सोनु



चाहे जिस राह चलो
हर राह में सफलता है
कोई ऎसी गली नहीं
जिसमे की लगे विफलता है।
नामूमकिन नहीं कुछ भी
गाँठ बांध लें अभी
आदमी के उबलते खून से
वर्फ के चट्टान पिघलता है
विफलता आखिर होता है क्या?
कोई आ कै जरा समझाये,
बात कड़ी मेहनत की हो जो
ज्यादा करे वह ताज ले जाए
जीत उसी की होगी जिसकी
दिल में घोर तत्पर्ता है
देखो जर नदी, झीलों को
कितना कोमल इसकी जलधारा है।
अविराम चट्टानों से लड़ता
कहो कब ये हारा है।
निडर निरंतर बहते जो पथ पर
उसीके आँखों में खुशियाँ झलकती है
साहस के दामन न छोड़
मनुष्य है तू सर्वश्रेष्ठ प्राणी
अरे कुछ सबक ले चीटी से
इक्कीसवीं बार चढ़ेगी की गजब कहानी
इतिहास लिखता वही जीवन में
जिसके छाती पे कष्ट संभलता है
चाहे जिस रह चलो
हर रह में सफलता है




Room No.318 New ADC Hostel, NIFFT, Hatia, Ranchi-834003 (Jharkhand)

E-mail:sunilkumarsonus@yahoo.com
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प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव "विदग्ध" की दो कविता



बदल डालो उसे , बह रही हवा जो .....

 

देश ने तो तरक्की बहुत की मगर, देश निष्ठा हुई आज बीमार है
बोलबाला है अपराध का हर जगह, जहाँ देखो वहीं कुछ अनाचार है

नीति नियमों को हैं भूल बैठे सभी, मूलतः जिनके हाथों में अधिकार हैं
नहीं जनहित का जिनको कोई ख्याल है, ऐसे लोगों की ही भरमार है
सोच उथला है, धनलाभ की वृत्ति है, दृष्टि ओछी, नहीं दूरदर्शी नयन
कुर्सियाँ लोभ के हैं भँवर जाल में, दूर उनसे बहुत अब सदाचार है

नियम और कायदे सिर्फ कहने को हैं, हर दुखी दर्द सहने को लाचार है
योजनायें अनेकों हैं कल्याण हित, किंतु जनता का बहुधा तिरस्कार है
सारे आदर्श तप त्याग गुम हो गये, बढ़ गया बेतरह अनीतिकरण
दलालों का चलन है, सही काम कोई चाह के भी न कर पाती सरकार है

देश कल कारखानों से बनते नही, देश बनते हैं श्रम और सदाचार से
देश के नागरिको की प्रतिष्ठा, चलन, समझ श्रम , गुण तथा उनके आचार से
है जरूरी कि अनुभव से लें सीख सब, सुधारे आचरण और वातावरण
सचाई, न्याय, कर्तव्य की लें शरण, देश से अपने जो तनिक प्यार है

बदलने होंगे व्यवहार सबको हमें, अपने सुख के लिये देश हित के लिये
जहाँ भी है आज तक अंधेरा घना, जलाने होंगे उन झोपड़ियों में दिये
देश में आज जो सब तरफ हो रहा देख उसको जरूरी है नव जागरण
क्योंकि जो पीढ़ियाँ आने वाली हैं कल उनको भी सुख से जीने का अधिकार है

जो सरल शांत सच्चे हैं वे लुट रहे, सब लुटेरों के हाथो में व्यापार है
देश हित जिन शहीदों ने दी जान थी क्या यही उनकी श्रद्धा का उपहार है ?
है कसम देश की सब उठो बंधुओं! बदल डालो उसे बह रही जो हवा
बढ़े नैतिक पतन हित हरेक नागरिक और नेता बराबर गुनहगार है।


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मँहगाई

 

घटती जाती सुख सुविधायें, बढ़ती जाती है मँहगाई
औ॔" जरूरतों ने जेबों संग, है अनचाही रास रचाई

मुश्किल में हर एक साँस है, हर चेहरा चिंतित उदास है
वे ही क्या निर्धन निर्बल जो, वो भी धन जिनका कि दास है
फैले दावानल से जैसे, झुलस रही सारी अमराई !
घटती जाती सुख सुविधायें, बढ़ती जाती है मँहगाई !!

पनघट खुद प्यासा प्यासा है, क्षुदित श्रमिक ,स्वामी किसान हैं
मिटी मान मर्यादा सबकी, हर घर गुमसुम परेशान है
कितनों के आँगन अनब्याहे, बज न पा रही है शहनाई
घटती जाती सुख सुविधायें, बढ़ती जाती है मँहगाई !!

मेंहदी रच जो चली जिंदगी, टूट चुकी है उसकी आशा
पिसा जा रहा आम आदमी, हर चेहरे में छाई निराशा
चलते चलते शाम हो चली, मिली न पर मंजिल हरजाई
घटती जाती सुख सुविधायें, बढ़ती जाती है मँहगाई !!

मिट्टी तक तो मँहगी हुई है, हुआ आदमी केवल सस्ता
चूस रही मंहगाई जिसको, खुलेआम दिन में चौरस्ता
भटक रही शंकित घबराई, दिशाहीन बिखरी तरुणाई
घटती जाती सुख सुविधायें, बढ़ती जाती है मँहगाई !!

नई समस्यायें मुँह बाई, आबादी ,वितरण, उत्पादन
यदि न सामयिक हल होगा तो, रोजगार, शासन, अनुशासन
राष्ट्र प्रेम, चारीत्रिक ढ़ृड़ता की होगी कैसे भरपाई ?
घटती जाती सुख सुविधायें, बढ़ती जाती है मँहगाई !!


संपर्क पता: प्रो0 सी.बी. श्रीवास्तव "विदग्ध" विद्युत मंडल कालोनी ,
रामपुर , जबलपुर मो. ०९४२५४८४४५२
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इन्दिरा चौधरी की दो कविता



बहता लहू

 

मेरी धमनियों में बहता लहू
पुकार-पुकार पूछ रहा मुझसे
आखिर कब तक बहता रहूँ,
इन शिरायों के भीतर?
कई बार चिल्ला पड़ता है,
खौलता और उबलता भी है।
चित्त-विक्षिप्त कर देता हर वक्त
फिर इस पुकार को
अन्तरात्मा की पुकार समझ
मैं देने जबाब होती हूँ, उद्दत तो
बह पड़ता है आँसूओं का सैलाब
इस उबलते लहू को मार देता है छींटा
हूँक सी उठती है अन्तरात्मा से,
मेरे लहू मर्यादा में रहना हो तो,
तो इन्ही धमनियों में बहना होगा।


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क्या दोषी है कोशी?




क्या दोषी है कोशी?
क्या दोषी है सिर्फ कोशी ?
कल तक जो छ्लछल बहती
निर्मल शीतल सी जो रहती
आज बन गई वह पागल।
क्या दोषी है सिर्फ कोशी ?
दोषी है क्या बांध , जो यूँ ही ध्वस्त हुआ।
दोषी है क्या वह अभियन्ता?
दोषी है क्या ठेकेदार?
दोषी है क्या मंत्री-संतरी
नहीं.............
अजागरूक जनता
जो सिर्फ चाहती है सुविधा,
देती है दोष
बुराईयों से लड़ने करती है संगठन
फिर स्वयं नई बुराईयों को देती है जन्म
भोगती कौन
मासूम जनता।



संपर्क: FD-453/2, Salt Lake City, Kolkata-700106


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दिल का जख्म



महेश कुमार वर्मा, पटना

E-mail:vermamahesh7@gmail.com
Webpage : http://popularindia.blogspot.com






 

कोई आए मेरे दिल का दर्द सुन ले
कोई तो दिल के जख्म पर मलहम लगा दे

है जख्म ये जो भरती नहीं
है इसकी दवा जो मिलती नहीं
कोई आए मेरे दिल का दर्द सुन ले
कोई तो दिल के जख्म पर मलहम लगा दे

क्या सुनाऊं दिल का हाल
पापियों ने किया इसे बेहाल
थी अरमां आसमां छूने को
पर ऊँचाई से उसने ऐसा धकेला
कि दिल टुकड़े-टुकड़े हुए
दिल टुकड़े-टुकड़े हुए
किसी तरह टुकड़े को जोड़कर
नया जीवन जीना चाहा
पर आगे के राह में
उसने ऐसा रोड़ा लगाया
कि दिल का जख्म बढ़ता ही गया
दिल का दर्द बढ़ता ही गया
कोई आए मेरे दिल का दर्द सुन ले
कोई तो दिल के जख्म पर मलहम लगा दे

बहुत कोशिश किया दिल के जख्म को भरने का
पर नहीं किया था उसने रत्ती भर भी सद्व्यवहार मेरे साथ
उसने किया था मेरे दिल पर आघात ही आघात
मेरे दिल का जख्म बढ़ता ही गया
दिल का जख्म बढ़ता ही गया
मुझसे उसने दुनियाँ का सब कुछ छीन लिया था
नहीं छोड़ा था उसने कुछ मेरे लिए
सिवाय दिल के जख्म के
सिवाय दिल के जख्म के
कोई आए मेरे दिल का दर्द सुन ले
कोई तो दिल के जख्म पर मलहम लगा दे
कोई तो दिल के जख्म पर मलहम लगा दे
कोई तो दिल के जख्म पर मलहम लगा दे


संपर्क पता:  DTDC कुरियर ऑफिस,  सत्यनारायण मार्केट, मारुती (कारलो) शो रूम के सामने,
बोरिंग रोड, पटना (बिहार),  पिन: 800001 (भारत) Contact No.: +919955239846
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पाब्लो नेरुदा

- अरुण माहेश्वरी
http://arunmaheshwari.blogspot.com




कवि के साथ ही एक कूटनीतिज्ञ थे, फ्रांस के राजदूत, कम्युनिस्ट सिनेटर, चीलें के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार, और लम्बे अर्से तक निर्वासित एक राजनीतिक शरणार्थी थे। उन पर जितनी पाबन्दियाँ लगीं, उतना ही उनका निजी संसार विस्तृत होता चला गया। उन्हें जितना कैदखानों में रखने की कोशिश की गई, वे उतने ही ज्यादा आजाद रहें। उनकी दृढ़ वैचारिक प्रतिबद्धता ही उनके खुले और अदम्य मानवीय व्यवहार का आधार बनी। उनके मित्रों में पाब्लो पिकासो, आर्थर मिलर, लोर्का, नाजिम हिकमत से लेकर सड़कों के आम आदमी और सभी लघु और तिरस्कृत मानी जाने वाली चीजें शामिल थीं। वे जनता के कवि थे। ‘‘मैंने कविता में हमेशा आम आदमी के हाथों को दिखाना चाहा। मैंने हमेशा ऐसी कविता की आस की जिसमें उँगलियों की छाप दिखाई दे। मिट्टी के गारे की कविता, जिसमें पानी गुनगुना सकता हो। रोटी की कविता जहाँ हर कोई खा सकता हो।’’ उनसे पूछा गया ‘‘आप क्यों लिखना चाहते हैं’’ उनका उत्तर था ‘‘मैं एक वाणी बनना चाहता हूँ।’’ दुनिया में नेरुदा की एक पहचान ‘जनवाणी के कवि’ के रूप में रही है। उनके लेखन के विषयों में राजनीति से लेकर समुद्र और एक साधारण चीलेंवासी से लेकर रिचर्ड निक्सन तक, सब समान सहजता और विस्मय के साथ आते हैं। नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत, कम्युनिस्ट, प्रेम का गायक और जनवाणी का कवि पाब्लो नेरुदा की रचनाएँ सुरीली घंटियों और चेतावनी के घंटों, दोनों की ध्वनियाँ सुनाती हैं।
हिन्दी में अब तक नेरुदा की कविताओं का तो कइयों ने अनुवाद किया है, जिनमें खासतौर पर चन्द्रबली सिंह का किया हुआ अनुवाद चयन और गुणवत्ता, दोनों ही लिहाज से श्रेष्ठ कहा जा सकता है।
हिन्दी में नेरुदा के बारे में चेतना पैदा करने में जिन चन्द लोगों की विशेष भूमिका रही है, उनमें एक उल्लेखनीय नाम डॉ. नामवर सिंह का है। पचास के दशक से ही उन्होंने नेरुदा की कविताओं पर लिखना शुरू कर दिया था। चन्द्रबली सिंह और प्रभाती नौटियाल द्वारा अनूदित, साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित नेरुदा की कविताओं के संकलनों की भूमिका भी उन्होंने ही लिखी।


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गीला बचपन



पाब्लो नेरुदा, जिनका मूल नाम था नेफ्ताली रिकार्दो रेइस बासोल्ता, का जन्म मध्य चीले के एक छोटे से शहर पराल में 12 जुलाई 1904 के दिन हुआ था। नेरुदा जब सिर्फ 10 वर्ष के थे तभी से उन्होंने कविता लिखनी शुरू कर दी थी। फीनस्तीन के अनुसार उनकी पहली काव्य-पंक्तियाँ अपनी माँ के लिए ही लिखी गई थी। नेरुदा की पहली साहित्यिक रचना 18 जुलाई 1917 के ‘लॉ मनाना’ नाम की पत्रिका में प्रकाशित हुई थी जिसको शीर्षक था ‘Entusiasmo y perseverancia’(उत्साह और धैर्य) ।
1920 में ‘सेवा आस्त्रेल’ नाम की पत्रिका में उनकी कविताएँ उनके पेन नेम पाब्लो नेरुदा के नाम से प्रकाशित हुई थी। यह नाम उन्होंने अपने परिवार की डाँट से बचने के लिए अपनाया था। उनके माता-पिता नहीं चाहते थे कि नेरुदा साहित्यकार बने। 1927 में उनके एक और संकलन 'अमपदजम चवमउए कम' veinte poems de amor y Una Cancion (प्रेम की बीस कविताएँ और विषाद का एक गीत) के प्रकाशन के साथ ही इस संकलन की कविताओं पर जो चर्चा हुई उससे वे स्पैनिश कविता की दुनिया में एक विश्व प्रसिद्ध कवि माने जाने लगे। तब वे सिर्फ 23 वर्ष की उम्र के थे।
खुद नेरुदा ने अपनी पूरब की इस यात्रा की स्मृतियों के बारे में बाद में जो कविताएँ लिखी उनमें से कुछ उनके संकलन ‘The Moon in the Labyrinth’ (भूलभुलैया में चाँद) में प्रकाशित हुई है जिनका हिन्दी में चन्द्रबली सिंह ने अपने ‘पाब्लो नेरुदा कविता संचयन’ में अनुवाद किया है। यहाँ ऐसी कुछ कविताओं के अंशों पर गौर करना मुनासिब होगा, ताकि इस काल के उनके अनुभवों को ज्यादा समग्रता में देखा जा सके


इनमें एक कविता है:‘आरम्भिक यात्राएँ’


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‘‘पहली बार जब मैंने सागर की यात्रा की,
मैं अन्तहीन रहा,
मैं सारी दुनिया से उम्र में छोटा था।
और तट पर मेरा स्वागत करने की
विश्व की अनन्त टनटनाहट उठी।
मुझे दुनिया में होने का बोध नहीं था।
मेरी आस्था दफ्न मीनार में थी।
बहुत कर्म में मैंने बहुत ज्यादा चीजें पायीं थी,
.....
और तब मैंने समझा कि नग्न हूँ,
मुझे और कपड़ों से ढँकने की जरूरत है।
मैंने कभी गम्भीरता से जूतों के बारे में नहीं सोचा था।
मेरे पास बोलने के लिए भाषाएँ नहीं थी।
सिर्फ खुद की किताब ही पढ़ सकता था।
.....
दुनिया औरतों से भरी पड़ी थी,
किसी दुकान की शीशों की खिड़की में लदे सामानों-सी
.....
मैंने सीखा कि वीनस कोई दन्तकथा नहीं थी।
निश्चित और दृढ़ वह थी, अपनी शाश्वत दो भुजाओं के साथ,
और उसके कठोर मुक्ता फल ने
मेरी लैंगिक लोलुप धृष्टता सह लीं’’
अन्य कविता है-‘पूरब में अफीम’
‘‘सिंगापुर से आगे, अफीम की गन्ध आने लगी।
ईमानदार अंग्रेज इसे अच्छी तरह जानता था।
जेनेवा में वह इसका छिपकर व्यापार करनेवालों की
निन्दा करता था,
लेकिन उपनिवेशों में हर बन्दरगाह
कानूनी धुएँ के बादल उठाता था।
.....
मैंने चारों ओर देखा। दयनीय शिकार
दास, रिक्शों और बागानों से आए कुली,
बेजान लदुआ घोडे़
सड़क के कुत्ते,
दीन दुष्प्रयुक्त जन।
यहाँ, अपने घावों के बाद,
मानव नहीं बल्कि लदुआ पशु होने के बाद,
चलते-चलते और पसीना बहाते-बहाते रहने के बाद,
खून का पसीना बहाने, आत्मा से रिक्त होने के बाद,
वहाँ पड़े थे,
.....अकेले,
पसरे हुए,
अन्त में लेटे हुए, वे कठोर पाँवों के लोग।
हरेक ने भूख का विनिमय
आनन्द के एक धुँधले अधिकार के लिए किया था।’’


इन्हीं अनुभवों की एक और कविता है-
‘रंगून 1927’


‘‘रंगून में देर कर आया।
हर चीज वहाँ पहले से ही थी-
रक्त का,
स्वप्नों और स्वर्ण का,
एक नगर,
एक नदी जो
पाशविक जंगल से
घुटन भरे नगर में
और उसकी कुष्ठग्रस्त सड़कों पर प्रवाहित थी।
श्वेतों के लिए एक श्वेता होटल
और सुनहरे लोगों के लिए स्वर्ण का एक पैगोडा था।
यही था जो
चलता था
और नहीं चलता था।....’’


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श्रद्धांजलि: कवि वेणुगोपाल को

- मयंक सक्सेना




देश में नक्सलवादी आन्दोलन ने कई तरह के प्रभाव पैदा किए ..... कुछ अच्छे - कुछ बुरे और कुछ समझ से परे ! इन्ही प्रभावों के फलस्वरूप कुछ साहित्य भी उपजा जिसमे आम आदमी ..... गरीब आदमी की हताशा और दुःख से उपजा विद्रोह गीत था .... तंत्र के ख़िलाफ़ गुस्सा और रोष का संगीत था ! इस दौरान इस हवा ने कई क्रांतिकारी कवि पैदा किए, उन्ही में से एक और सबसे अलग कवि हुए वेणुगोपाल ....जिस दौर में नक्सल आन्दोलन उपजा और तब से अब तक वेणुगोपाल ने कम लिखा पर जो लिखा उसे पढ़ना किसी भी विद्रोही कवि या व्यक्ति के लिए ज़रूरी है भले ही आज हम नक्सलियों और उनके आन्दोलन को भटकता देख रहे हैं पर यदि उस आन्दोलन की मूल विचारधारा को समझना है तो ज़रा एक बार वेणुगोपाल की कविताओं की और दृष्टि फेरें....

कवि वेणुगोपाल का सोमवार देर रात निधन हो गया। वह 65 वर्ष के थे और कैंसर से पीडित थे। 22 अक्टूबर 1942 को आंध्र प्रदेश के करीमनगर में जन्मे वेणुगोपाल का मूल नाम नंद किशोर शर्मा था और वह देश में नक्सलवादी आंदोलन से उभरे हिंदी के प्रमुख क्रांतिकारी कवियों में से थे। उन्होंने दो शादियां की थीं और उनके एक पुत्र और तीन पुत्रियां हैं। वेणुगोपाल के तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए थे, जिनमें वे हाथ होते-1972, हवायें चुप नहीं रहती-1980 और चट्टानों का जलगीत-1980। इसके अलावा उन्होंने काम सौंदर्य शास्त्रों की भूमिका शीर्षक से एक शोध ग्रंथ भी लिखा था।
वेणुगोपाल ने प्रमुख रंगकर्मी बब कारंत के नाटकों का निर्देशन भी किया था और उनमें अभिनय भी किया था। वह हैदराबाद में रहकर स्वतंत्र पत्रकारिता करते थे।

उनके बारे में ज़्यादा कहने से बेहतर होगा की आप उनकी रचना खुद पढ़ें और सोचें।



ख़तरे


ख़तरे पारदर्शी होते हैं।
ख़ूबसूरत।
अपने पार भविष्य दिखाते हुए।
जैसे छोटे से गुदाज बदन वाली बच्ची
किसी जंगली जानवर का मुखौटा लगाए
धम्म से आ कूदे हमारे आगे
और हम डरें नहीं।
बल्कि देख लेंउसके बचपन के पार
एक जवान खुशी
और गोद में उठा लें उसे।
ऐसे ही कुछ होते हैं ख़तरे।
अगर डरें तो ख़तरे
और अगर नहीं
तो भविष्य दिखाते रंगीन पारदर्शी शीशे के टुकड़े।


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और सुबह है


हम
सूरज के भरोसे मारे गए
और
सूरज घड़ी के।
जो बंद इसलिए पड़ी है
कि
हम चाबी लगाना भूल गए थे
और
सुबह है
कि
हो ही नहीं पा रही है।



अंधेरा मेरे लिए


रहती है रोशनी
लेकिन दिखता है अंधेरा
तो
कसूर
अंधेरे का तो नहीं हुआ न!
और
न रोशनी का!
किसका कसूर?
जानने के लिए
आईना भी कैसे देखूं
कि अंधेरा जो है
मेरे लिए
रोशनी के बावजूद!
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प्रेषक का संपर्क पता:

जी न्यूज़, FC-19, फ़िल्म सिटी, सेक्टर 16 A,
नॉएडा, उत्तर प्रदेश - 201301

E-mail: mailmayanksaxena@gmail.com
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सूचना:  कथा महोत्सव-2008
अभिव्यक्ति, भारतीय साहित्य संग्रह तथा वैभव प्रकाशन द्वारा आयोजित

  • अभिव्यक्ति, भारतीय साहित्य संग्रह तथा वैभव प्रकाशन की ओर से कथा महोत्सव २००८ के लिए हिन्दी कहानियाँ आमंत्रित की जाती हैं।
  • दस चुनी हुई कहानियों को एक संकलन के रूप में में वैभव प्रकाशन, रायपुर द्वारा प्रकाशित किया जाएगा और भारतीय साहित्य संग्रह से www.pustak.org पर ख़रीदा जा सकेगा।
  • इन चुनी हुई कहानियों के लेखकों को ५ हज़ार रुपये नकद तथा प्रमाणपत्र सम्मान के रूप में प्रदान किए जाएँगे। प्रमाणपत्र विश्व में कहीं भी भेजे जा सकते हैं लेकिन नकद राशि केवल भारत में ही भेजी जा सकेगी।
  • महोत्सव में भाग लेने के लिए कहानी को ईमेल अथवा डाक से भेजा जा सकता है। ईमेल द्वारा कहानी भेजने का पता है-
    teamabhi@abhivyakti-hindi.org

डाक द्वारा कहानियाँ भेजने का पता है- रश्मि आशीष, संयोजक- अभिव्यक्ति कथा महोत्सव-२००८, ए - ३६७ इंदिरा नगर, लखनऊ- 226016, भारत

महोत्सव के लिए भेजी जाने वाली कहानियाँ स्वरचित व अप्रकाशित होनी चाहिए तथा इन्हें महोत्सव का निर्णय आने से पहले कहीं भी प्रकाशित नहीं होना चाहिए।

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कहानी के साथ लेखक का रंगीन पासपोर्ट आकार का चित्र व संक्षिप्त परिचय होना चाहिए।
कहानियाँ लिखने के लिए A - ४ आकार के काग़ज़ का प्रयोग किया जाना चाहिए।
ई मेल से भेजी जाने वाली कहानियाँ एम एस वर्ड में भेजी जानी चाहिए। प्रमाण पत्र तथा परिचय इसी फ़ाइल के पहले दो पृष्ठों पर होना चाहिए। फ़ोटो जेपीजी फॉरमैट में अलग से भेजी जा सकती है। लेकिन इसी मेल में संलग्न होनी चाहिए। फोटो का आकार २०० x ३०० पिक्सेल से कम नहीं होना चाहिए। कहानी यूनिकोड में टाइप की गई हो तो अच्छा है लेकिन उसे कृति, चाणक्य या सुशा फॉन्ट में भी टाइप किया जा सकता है।

कहानी का आकार २५०० शब्दों से ३५०० शब्दों के बीच होना चाहिए।

कहानी का विषय लेखक की इच्छा के अनुसार कुछ भी हो सकता है लेकिन उसमें मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था होना ज़रूरी है।

इस महोत्सव में नए, पुराने, भारतीय, प्रवासी, सभी सभी देशों के निवासी तथा सभी आयु-वर्ग के लेखक भाग ले सकते हैं।

देश अथवा विदेश में हिन्दी की लोकप्रियता तथा प्रचार प्रसार के लिए चुनी गई कहानियों को आवश्यकतानुसार प्रकाशित प्रसारित करने का अधिकार अभिव्यक्ति के पास सुरक्षित रहेगा। लेकिन निर्णय आने के बाद अपना कहानी संग्रह बनाने या अपने व्यक्तिगत ब्लॉग पर इन कहानियों को प्रकाशित करने के लिए लेखक स्वतंत्र रहेंगे।
चुनी हुई कहानियों के विषय में अभिव्यक्ति के निर्णायक मंडल का निर्णय अंतिम व मान्य होगा।
कहानियाँ भेजने की अंतिम तिथि १५ नवंबर २००८ है।

पूर्णिमा वर्मन
टीम अभिव्यक्ति
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पत्र-पत्रिका प्राप्ती











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सूचना:  कथा महोत्सव-2008  
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4 टिप्‍पणियां:

  1. कथा-व्यथा का यह सितम्बर का अंक का सेटिंग अच्छा लगा. रचना के साथ चित्र देने से पत्रिका की छवि और भी निखर जाती है.
    पत्रिका की सफलता की शुभकामनाएं.

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  2. शम्भु भाई सच में आप और आपके साथी बहुत ही बढिया काम कर रहे हैं। जिस खूबसूरती से आप आप लोग तकनिकी द्क्छता का इस्तेमाल कर रहे हो, वह काबिले तारीफ़ है। बधाई और शुभकामनाऎं।

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  3. आपका बेहतरीन प्रयास है, हिन्दी ब्लाग जगत को आपकी यह भेंट याद रहेगी !
    मेरी शुभकामनाएं !

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  4. देवेन्द्र कुमार मिश्रा ने कहा…
    कथा- व्यथा अच्छी शुरुआत है। इसके लिए ई-हिन्दी साहित्य सभा परिवार को बहुतों धन्यवाद।
    September 11, 2008 11:05 PM

    Devi Nangrani ने कहा…
    Katha vyatha ki is ank ki parstuti adbhudhta liye hue hain kusum ji ki rachanyein ek khushboo liye hue hain.
    agle ank ka intezar rahega.
    Devi Nangrani
    September 12, 2008 9:47 PM

    nishant ने कहा…
    katha vyatha parivar ko meri shubhakamna..........
    मेरी कल्पना के कुछ अंश .................
    जीवन के अंतीम पलो में
    जब मौत खामोशी लीए
    सन्नाहटे के साथ आई है !
    तो देह शांत ,
    और मौनता ऐसी ,
    की नव्जो में बहते रक्त की
    धओउनी सुनाई दे .
    इस पल की कल्पना
    हदय को कंपित,
    और रूह को देहला दे !
    पर ये कल्पना शायद , वासविक्ता
    और जीवन पुस्तिका के ,
    पेजों पर डॉट पेन
    से लिखी कभी न मिटने वाली
    सचचाई है .
    जीवन के अंतीम पलो में
    जब मौत खामोशी लीए ,सन्नाहटे के साथ आई है !
    naye ank ki pratikcha rahegi
    September 20, 2008 11:53 PM

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