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शनिवार, 9 अगस्त 2008

कथा-व्यथा - अगस्त 2008 प्रथम अंक

प्रधान सम्पादक : प्रकाश चण्डालिया    संपादक - शम्भु चौधरी
संपर्क : एफ.डी.- 453/2 साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106
e-mail: kathavyatha@gmail.com


अगला अंक 7 सितम्बर तक नेट पर जारी कर दिया जायेगा।
e-mail:kathavyatha@gmail.com












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संपादकीय  पत्रिका प्राप्ती  लघुकथा  कहानी
कविता :-
हर तरफ आतंक  अखंड ये देश हमारा
स्वतंत्रता की ६१ वीं वर्षगाँठ
ॐची सोच   ऊँगली पकड़ कर वह बड़ी हुई
ऐ हिंद के युवा  संघर्ष   महिला शक्ति  आह्वान
कुछ-कुछ होता है   माँ    जीवन अल्प विराम
एशियाटिक सोसाइटी में राजस्थान - लेखक अम्बू शर्मा
वृद्धाश्रम-संस्कृति पनप रही है। - डॉ.गीता गुप्ता
आपके पत्र  समीक्षा करें



संपादकीय


कथा-व्यथा का पहला अंक आपकी आंखों के सामने है। ई-हिन्दी साहित्य सभा एक के बाद एक नये कदम की तरफ बढ़ते जा रही है। इस इ-पत्रिका का उद्देश्य न सिर्फ उन साहित्यकारों को प्रधानता देना है, वरन आपके सहयोग से उन साहित्यकारों को भी इस मंच पर स्थान देने का प्रयास करना है, जो किसी भी कारण से इन्टरनेट पाठकों से नहीं जुड़ पायें हैं। नई पीढ़ी के पास, खुद के साथ उनको भी पहुंचाना न सिर्फ हमारा कर्तव्य है, साहित्य सेवा भी। कथा का अर्थ है खुद की बात और व्यथा का मतलब साफ है साहित्य जगत के उन लोगों की बातें जो किसी भी कारण से इन्टरनेट से नाता नहीं जोड़ पाये है।
पिछले दिनों 'समाज विकास' पत्रिका का संपादन करते-करते एक बात महसूस की कि हमारे साहित्य जगत के ऐसे बहुतेरे विद्वान हैं, जिन्हें इस बात की कसक है कि वे नई पीढ़ी के बीच नहीं जा पा रहे। पुस्तकालय परम्परा धीरे-धीरे दम तोड़ती जा रही है। कुछ चल रहे हैं तो उनमें पाठकों का बहुत बड़ा अभाव खलता है। जो कदम पुस्तकालय तक पहुंचते हैं,उनमें ज्यादतर साहित्य के प्रति काफी उदासीन दिखायी पड़ते हैं। भले ही यह बात हम आज न मानें, पर जल्द ही हमारे समस्त साहित्य को किसी न किसी प्रकार से भी क्यों न हो, इन्टरनेट पर लाना होगा। पुस्तक-पत्रिकाओं के प्रकाशन का दौर समाप्त हो जायेगा। घर की अलमारियों में सजी पुस्तकें हमें काटने दौड़ेंगी। भले ही ये अलमारियां हमारे साहित्य का एक अभिन्न अंग रही है, परन्तु आज इसका स्थान लेप-टॉप लेती जा रही है, कहीं लेप-टॉप संस्कृति हमारी साहित्य-संस्कृति को लील न जाये, इसके लिये हम सबको अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करना ही पड़ेगा। आप खुद के लिये तो लिखें ही, साथ ही थोड़ा वक्त उन साहित्यकारों के लिये भी निकाले जो नेट पर अपने साहित्य को देने में असमर्थ हैं या हो चुकें हैं। भले ही आप कथा-व्यथा के माध्यम से न सही, किसी भी माध्यम से आप अपनी कथा के साथ-साथ उनकी व्यथा को भी नेट के पाठकों तक जरूर पहुंचायें। आप जब भी अपनी बात लिखें तो कम से कम एक पेज में उनके साहित्य को भी टंकित करें, कारण न तो हमारे साहित्यकार अन्य देशों के साहित्यकारों की तरह समृद्घ हैं, न ही देश में साहित्य के प्रति सरकार की कोई योजना अभी तक बन पाई है जो भी प्रयास हो रहें हैं वे निजी तौर पर ही देखने को मिल रहे हैं। ई-हिन्दी साहित्य सभा के माध्यम से हम सिर्फ और सिर्फ साहित्य की सेवा करने वाले समान मानसिकता वाले बन्धुओं का मंच बनाने का विनम्र प्रयास कर रहें हैं। हम न तो स्वयं की पीठ थपथपाना चाहते हैं न ही यह चाहते हैं कि कोई हमारी पीठ थपथपाये। कार्य करना हो तो साथ आयें, एक नया कारवां बनाये।


- शम्भु चौधरी

email:kathavyatha@gmail.com



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कविता :-
 हर तरफ आतंक   अखंड ये देश हमारा   स्वतंत्रता की ६१ वीं वर्षगाँठ   
ॐची सोच   ऊँगली पकड़ कर वह बड़ी हुई   ऐ हिंद के युवा   संघर्ष   महिला शक्ति  आह्वान  कुछ-कुछ होता है    माँ    जीवन अल्प विराम
संपादकीय  पत्रिका प्राप्ती  लघुकथा  कहानी   आपके पत्र  समीक्षा करें
एशियाटिक सोसाइटी में राजस्थान - लेखक अम्बू शर्मा
वृद्धाश्रम-संस्कृति पनप रही है। - डॉ.गीता गुप्ता


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आपके पत्र
आपके द्वारा समीक्षात्मक पत्रों को यहाँ पर स्थान दिया जायेगा।
कृपया अपना पूरा, नाम व पता जरूर लिखें, संभव हो तो अपना संक्षिप्त परिचय भी देंवे।


Design of your web is very good

Design of your web is very good. I will send u some write-ups.
Thanks.
Have A Godd Day.
Regards,
Siddharth Kumar
Journalist
The Press Trust of India (PTI)
PTI Building, 4, Parliament Street, New Delhi-110 001
siddharth-bhardwaj@hotmail.com
siddharthkumarbhardwaj@gmail.com
Blog:
www.siddharthbhardwaj.blogspot.com

Mobile: +91-97111 18565



2.
भाई आपकी यह पत्रिका तो ब्लाग स्पोट पर ही है। कैसे किया इसे डिजाइन, कुछ इस बाबत बता सकें तो सच बहुत ही खूबसूअरत है। पूरी पत्रिका की शक्ल में है। आम ब्लाग की तरह नहीं। क्या मैं भी अपने ब्लाग में एसे परिवर्तन कर सकता हूँ ? यदि हां तो कैसे?

2008/8/13 vijay gaur


3.
सादर नमस्कार
भगवान श्री कृष्ण की नगरी से आपको प्रणाम
आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। हिंदी के विस्तार के लिए हम लोगों की पहली पीढ़ियों ने बहुत हाय-तौबा की, लेकिन नेट की बदौलत अब इसका फैलाव हो रहा है। आपका प्रयास सराहनीय है और नए लोगों को संबल प्रदान करने वाला है। मैं मथुरा दैनिक जागरण में कार्यरत हूँ और कविता-व्यंग्य लिखना मेरा शौक है। वर्ष 85 से कविताएं लिख रहा हूँ। कइयों का प्रकाशन भी हुआ है। नया-नया ब्लागर हूं। आपके मंच का न केवल सदस्य बनना चाहता हूँ, बल्कि कोई सेवा-सहयोग हो तो अवगत कराएं। मेरा ब्लाग है-या मेरा डर लौटेगा.ब्लागसपोट.कॉम, मोबाइल नंबर 09412777909 - Pawan Nishant

http://yameradarrlautega.blogspot.com/
pawannishant@yahoo.com




4.
kapil ने कहा…
http://neerajrajput.blogspot.com/2008/08/blog-post_22.html
oopar diye gaye link par aapki tippani dekhi..to yeh bata uchit aur mehetvepoorn laga ki woh kavita maine likhi hai..karreb 5-6 mahine pehle orkut ki gulzaar aur gulzarians naamak 2 communities mein post kari thee. Wahin se sayad sareeman neeraj rajpoot ne chura li.. jald hi apni post kari hui kavita ka link bhi post karne ki koshish karoonga...


5.
Popular India ने कहा…
कथा- व्यथा अच्छी शुरुआत है। इसके लिए ई-हिन्दी साहित्य सभा परिवार को बहुतों धन्यवाद। एक सुझाव :
रचना के नीचे जो रचनाकार के नाम व पता दिए हैं वह तो ठीक, पर जो e-mail ID दिए हैं उसमें मेल करने का लिंक होना चाहिए। उसी तरह जिस लेखक का ब्लॉग या साईट दिया गया है उसमें भी लिंक होना चाहिए। इसी प्रकार लेखक के नाम के साथ उस लेखक का परिचय जहाँ लिखा गया है, उसका लिंक होना चाहिए। आशा है मेरे इन बात पर विचार करेंगे। हर तरफ आतंक कविता अच्छा लगा।
आपका
महेश August 11, 2008 8:03 PM



लघुकथा

भोजपुरी: गुड़ खाइब गुलगुला से परहेज   साझा दर्द   फालतू



भोजपुरी: गुड़ खाइब गुलगुला से परहेज


आईं ए बाबा, आईं बैठीं। राउर जूठन हमरो दुआर प गिरि जाइत त हमहूँ तरि जइतीं।
-का कहले हा रे ? तोरा इचिको तमीज ना भईल बोले के ? तोरा इचिको दिमाग बा कि ना?
हम बाभन हो के एगो चमार के दुआर के जूठन गिराइब? हमार धरमे भरनठ करे प लागल बाड़े का रे?
- छोड़ीं ए बाबा, खिसाई मत। हमरा से बड़ा भारी गलती हो गैल। हमरा के माफ क दीं।
- ठीक बा जो, आजु तोरा के माफ क दे तानीं बाकिर आइंदे ऐसन गलती मत करिहे।
- ठीक बा ए बाबा। आछा एगो बाति पूछीं, खिसिआइब ना नू?
- पूछ, का पूछे के बा ?
- ए बाबा, हमरा घरे पूजा करवला के बाद सीधा में जवन रउआ रासन-पताई भा कपड़ा-लत्ता मिलल हा ऊ रउआ दोकानी प बेंचि देबि कि घरे ले जाइब?
- अरे बुड़्बक, हमरा के एकदम से चोन्हरे का बूझले बाड़े? हम औने-पौने दाम में ई सभ सामान दोकानी प बेंचि दीं आ फेनु जरूरत पड़ला प उहे बतुसवा महंगा कीनि के ले आई। ई सभ हमरा घरहीं के लोग हवेखी।
- ठीक कहत बानीं ए बाबा - 'गुड़ खाइब' गुलगुला से परहेज।


डॉ.दिनेश प्रसाद शर्मा
पता: मुहल्ला व डाकघर - अनाईठ (आरा) जिला भोजपुर (बिहार) पिन:802301 मो. 09934647898




साझा दर्द


वृद्धाश्रम में गए पत्रकार ने वहाँ बरामदे में बैठी एक बुजुर्ग औरत से पूछा, 'माँजी, आपके कितने बेटे हैं?
औरत बोली, 'न बेटा, न बेटी। मेरी तो कोई औलाद नहीं।'
पत्रकार बोला, 'आपको बेटा न होने का गम तो होगा। बेटा होता तो आज आप इस वृद्धाश्रम में न होकर अपने घर होती।
बुजुर्ग औरत ने उत्तर में थोड़ी दूर बैठी एक अन्य वृद्धा की ओर इशारा करते हुए कहा, 'वह बैठी मेरे से भी ज्यादा दुखी। उसके तीन बेटे हैं, उससे पूछ ले।'
पत्रकार उस दूसरी बुढ़िया की ओर जाने लगा तो पास ही बैठा एक वृद्ध बोल पड़ा, 'बेटा, इस आश्रम में हम जितने भी लोग हैं, उनमें से इस बहन को छोड़कर, बाकी सभी के दो से पाँच तक बेटे हैं, परंतु एक बात हम सब में साझी है....।'
'वह क्या?' पत्रकार ने उत्सुकता से पूछा ।
'वह यह कि हममें से किसी के बेटी नहीं है । बेटी होती तो शायद हम यहाँ .... वृद्ध ने दर्दभरी आवाज में कहा ...नहीं होते।'


-श्यामसुंदर अग्रवाल, कोलकाता-700007




फालतू


पिछले सात दिन से सारा घर अस्त-व्यस्त हो रहा था। चारों ओर सामान बिखरा पड़ा था। कहीं बँधे सामान के बण्डल रखे थे तो कहीं कुछ गठरियाँ । कहीं नाजुक सामान के पैकिट पलंग पर अति सुरक्षित रूप से रखे हुए थे । मकान-शिफ्ट करने का काम आसान नहीं होता विशेष रूप से जब बड़े मकान से छोटे मकान में जाना हो ।
डॉ. संजय बड़े सरकारी बंगले में रहते थे, जिसमें सुख-सुविधा के अतिरिक्त शान-शौकत का भी हर सामान था । कुछ जरूरत की चीजें तो कुछ दिखावटी सब कुछ समाया हुआ था। इनमें से कुछ सुविधाएँ तो सरकार की ओर से थीं, कुछ अर्जित की हुई थीं। पिछले महीने वे अपनी सेवा-अवधि पूरी कर चुके थे। उन्हें शानदार विदाई दी गई । इस विदाई के साथ ही उन्हें सरकारी सुविधाओं से भी विदा लेनी थी।
अपनी नौकरी के दौरान ही उन्होंने एक डी.डी.ए. का फ्लैट जुटा लिया था। अब वे उसी मकान में शिफ्ट करने जा रहे थे। सामान ज्यादा था और फ्लैट दो बेडरूम का था । पूरा महीना वे इसी उधेड़बुन में रहे कि क्या ले जाएँ और क्या छोड़ जाएँ। फालतू सामान उन्होंने बेच दिया था। कुछ अपने छोटे भाई के यहाँ भिजवा दिया था। शेष मित्रों मे बाँट दिया था।
दो कमरे दोनों बेटों ने स्वयं ही बाँट लिए । वे कहाँ रहेंगे इस बारे में उन्हें सोचना नहीं पड़ा। इसका फैसला दोनों बेटों ने ही कर दिया। बड़े ने कहा-'आप दोनों को अब कमरा नहीं मिल पायेगा। अतः अपना सामान उतना ही ले जाएँ। पिछला स्टोर आपके लिए है सात बाई सात का। वह भी तो एक कमरा है। थोड़ा छोटा है बस !
'पर उसमें तो दो चारपाई नहीं आ पातीं।’ पिता ने अचम्भित होते कहा।
जानता हूँ, आप रात को सोने के लिए लॉबी में फोल्डिंग बिछा लेना। स्टोर में एक दीवान रहेगा। माँ स्टोर में ही सो जायेंगी। इसका समाधान छोटे ने कर दिया।
और तुम्हारी दादी माँ? सूरी साहब के स्वर में अब चिन्ता मिश्रित भय था। वे आशंकित हो उठे, माँ पिछले तीस साल से उन्हीं के साथ रहती थीं।
दादी माँ ? अब उन्हें आप चाचू के यहाँ भेज दिजिए। उनके पास तो बड़ा मकान है। बड़े ने दलील दी।
डॉ. सूरी अवाक्। चेहरा उतर गया। उन्हें लगा उनकी हड्डियों को निचोड़ता एक तीर किसी ने उनके सीने में गाड़ दिया हो। वे माँ को जड़ सामान कैसे बनाएँ ? उनसे वे कैसे कह पायेंगे कि तुम भी अब....।


- डॉ. शकुन्तला कालरा
-एन.डी. 57, पीतमपुरा, दिल्ली-110044



कहानी

मूल-मंत्र (कहानी)

-विजय राज चौहान


झींगा शेर तालाब के किनारे काँस के झुंडों के बीच में अपने भूखे बच्चों और पत्नी के साथ बैठा सूरज की मीठी धूप में ऊँघ रहा था | इस समय उसकी आँखें बंद थी ओर वह अपने सुनहरे दिनों के सपनों में खोया हुआ था उसे अपनी जवानी के उन दिनों याद आ रही थी जब वह खूब शक्तिशाली था उन दिनों का भी क्या रंग था, क्या ताकत थी, शरीर की चुस्ती ओर फुरती के आगे क्या मजाल थी कि कोई शिकार हाथों से निकल जाये | अगर उसे दिन में दो तीन बार भी शिकार के पीछे दौड़ना पड़ता था तो वह तब भी नहीं थकता था| लेकिन अब उम्र का तकाजा था कि अब उसे एक शिकार मारने के लिए भी तालाब किनारे कई-कई घंटे इंतजार करना पड़ता था, ओर कभी तो पूरा दिन भी कोई शिकार नहीं मिलता, भूखों ही सो जाना पड़ता था | उसकी यह हालत बूढ़े हो जाने के कारण थी क्योंकि अब उसके शरीर की शक्ति अब क्षीण हो चुकी थी इसलिए वह अब तालाब के किनारे पानी पीने आए एक-आध कमजोर पशु को ही मार पता था ओर उसी से ही अपने परिवार की भूख को शांत करता था |लेकिन आज शाम होने को आयी, कोई शिकार दिखाई नहीं दिया|
झींगा शेर की माँद से कुछ दूर पर ही शेरू नाम का एक गीदड़ भी अपनी पत्नी रानी और अपने दो बच्चों के साथ एक बिल में रहता था | शेरू के परिवार का पेट भी काफी हद तक झींगा शेर के शिकार के ऊपर ही निर्भर करता था क्योंकि जब झींगा किसी शिकार की मार डालता था तो शेरू का परिवार भी बची झूठन को कई दिनों तक खाता था | लेकिन आज शेरू के परिवार का भी भूख के मारे बूरा हाल हुआ जा रहा था | फ़िर भी वह अपने परिवार के साथ किसी शुभ घड़ी के इंतजार में, झींगे के ऊपर नजरे गडाये बैठा रहता |
आखिर जब सूरज छितिज में छूपने जा रहा था उसी वक्त शुभ घड़ी आ पहुँची ओर एक दरियाई घोड़ों का झुंड तालाब किनारे आ पहुँचा | झुंड को देखते ही दोनों परिवारों में खुशी ही लहर दौड़ गई , झींगे ने भी झुंड को देखते ही अपनी स्थिति को संभाला और खड़ा होकर कमर को धनुष बनाते हुए अँगड़ाई ली | उसने हाथ पैरों को झटका और किसी पहलवान की तरह से आगे पीछे किया और मूल-मन्त्र करने के लिए अपनी पत्नी को पास बुलाया जिससे झींगे के शरीर में एक उतेजना पैदा हो गई | उसने अपनी पूछ को कमर पर मोड़ा ओर आंखे लाल की,
फिर उसने अपनी पत्नी से पूछा-
-"देखो तो जरा मेरी पूछ मुंड कर पीठ पर आ गई हैं या नही"
शेरनी ने कहा -" हां स्वामी आप तो प्रचंड योद्धा की तरह से लग रहे हो "
इसके बाद झींगे ने पूछा- -" मेरी आँखें कैसी लग रही हैं "
शेरनी ने कहा -" स्वामी आप की आँखें तो इस समय ऐसी लग रही हैं मनो कोई
ज्वालामुखी लावा उगल रहा हो "
झींगे ने इतना सुना तो वह पूर्ण रूप से उत्तेजित हो गया और उसने तूफान की गति से दौड़ कर एक ही झटके में एक कमजोर से दिखाई देने वाले दरियाई घोड़े को मार गिराया जिसे वह खींचकर अपने झुंड में ले आया | इसके बाद पूरे परिवार ने व्रत तोड़ा ओर खूब डट कर खाया ओर फिर पेट पर हाथ फिराते हुए अपनी माँद की तरफ़ चल पड़े | झींगा शेर ने जब से शिकार किया तब से ही शेरू गीदड़ का परिवार भी उन पर आँखें गडाये बैठा था, झींगे का परिवार पतल से उठ कर चला तो शेरू जूठी
पतल को साफ़ करने के लिए उसकी तरफ़ दोडा और वह भी अपने परिवार सहित अपनी भूख मिटाने में जुट गया |
परिवार के सभी सदस्य जूठन को खा रहैं थे लेकिन शेरू की पत्नी रानी के मन में सुबह से व्रत करते-करते कुछ प्रश्न जमा हो रहे थे, जिन्हें पूछने का वह मोका तलाश रही थी |
आख़िर उसने भोजन करते-करते शेरू से पूछा -
-"स्वामी आख़िर हम कब तक दूसरों का जूठा खाते रहेंगे, किया हम अपने लिए ख़ुद शिकार नहीं कर सकते? "
शेरू ने रानी के ये वाक्य सुने तो मुँह चबाते हुए बोला -
-"अरे जब तक मिलता हैं तब तक खाओ, आगे की आगे सोचेंगे "
रानी त्योंरिया चढ़ाते हुए बोली -" नहीं आगे न खायेंगे, तुम अभी तो जवान हो, झींगा बूढ़ा हो चुका हैं लेकिन अब भी शिकार करता हैं क्या तुम नहीं कर सकते "
रानी की इस बात पर शेरू चुप रहा, कुछ न बोला |
उधर रानी ने पेट भर खाया और बच्चों को लेकर अपने बिल में जा लेटी |
शेरू वही जूठन चाटता रहा लेकिन रानी फ़िर उसके साथ न बोली |
शेरू की जूठन ख़त्म हुई तो वह भी बिल की तरफ चला ,लेकिन उदास कदमों से |
उसे वास्तव में रानी ने सोचने के लिए मजबूर कर दिया था वह जाकर बिल में लेट रहा, उसे नींद नहीं आ रही थी, वह सोच रहा था आख़िर झींगा इतना बड़ा शिकार कैसे मार लेता है, ऐसी कोन सी शक्ति है उसके पास जो उसमें बूढ़ा होने पर भी इतना जोश और ताकत पैदा कर देती हैं |
शेरू इन्हीं विचारों में काफी देर तक उलझा रहा ओर यह सोच कर सोया की कल झींगे शेर की जासूसी करता हूँ और देखता हूँ की ऐसी कोन सी शक्ति हैं जो उसमें इतना जोश भर देती हैं|
इतना सोच कर शेरू गीदड़ निश्चित होकर सो गया |
अगले दिन शेरू जल्दी जाग गया, उसने बिल से बहार मुह निकल कर देखा तो अभी
काफी अँधेरा था, पाला पड़ने से काफी ठंड थी |
लेकिन उसने उसकी परवाह नहीं की और वह अपनी पत्नी-बच्चों के उठने से पहले ही झींगे शेर की माँद की तरफ चल दिया, जाकर एक काँस के झुंड के पीछे छिप कर बैठ गया |
झींगा शेर अभी जागा न था, कुछ देर बाद सूरज की मीठी धूप चारों ओर फैली तो झींगा अपनी मांद से बहार आया, उसने कमर को धनुष बनाते हुए अँगड़ाई तोड़ी और फिर जाकर धूप में बैठ गया | इसके बाद उसके बच्चे और शेरनी जागी वे भी मांद से बहार आये, धूप में बैठ कर उंघने लगे, झींगा अपनी उसी तलाश में लग गया कि कब शिकार आये - कब वह उसे मार कर अपने आज के भोजन का इंतजाम करे |
काँस के झुंड के पीछे छिपा शेरू झींगे शेर कि इस सारी दिनचर्या बड़े ध्यान से देख रहा था। इस समय वह झींगे के हर पैंतरे को बड़े ध्यान से सीख कर रहा था |
झींगा अपने परिवार के साथ धूप में बैठा था तो एक जंगली भैंसा पानी कि टोह में उधर से आ निकला, वह धीमे और टूटे क़दमों से चल रहा था देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि शायद वह बीमार था और बीमारी में अपनी प्यास बुझाने तालाब किनारे आया था |
आख़िर जब झींगे ने जंगली भैंसे को देखा तो उसे सुबह-सुबह पै-बारह होते नजर आये और वह भैंसे को देखकर खड़ा हो गया|
झींगे शेर के खड़े होते ही शेरू गीदड़ के भी कान खड़े हो गये, उसकी एक आँख शिकार पर लगी हुई थी तो दूसरी आँख झींगे कि हर हरकत को बारीकी से देखता रहा |
ज्यों ही भैंसा तालाब में पानी पीने के लिए घुसा तो झींगे शेर ने अपना मूल-मंत्र पढ़ा |
वह पास बैठी शेरनी से बोला -" देखो तो जरा मेरी पूछ मुंड कर पीठ पर आ गई हैं या नहीं "
शेरनी ने कहा -" हां स्वामी आप तो प्रचंड योद्धा की तरह से लग रहे हो "
इसके बाद झींगे ने पूछा--" मेरी आँखें कैसी लग रही हैं "
शेरनी ने कहा -" स्वामी आप की आँखें तो इस समय ऐसी लग रही हैं मनो कोई ज्वालामुखी लावा उगल रहा हो "
शेर ने इतना सुना तो वह पूर्ण रूप से उत्तेजित हो गया और इससे पहले कि भैंसा पानी पीकर अपनी प्यास बुझाता, झींगे शेर ने एक ही वार में तूफान की गति से आगे बढ़कर भैंसे को धराशाई कर दिया और उसे खींचकर अपने झुंड में ले आया | काँस के झुंड के पीछे छुपा शेरू गीदड़, झींगे की ये सारी हरकतें देख रहा था, उसने जब झींगे का मूल-मंत्र सुना तो खुशी से झूम उठा और खुशी को कारण जमीन में लोटपोट हो गया | उसने भी आज शक्ति के उस मूल-मन्त्र को पा लिया
था जिसे पढ़कर वह भी अधिक शक्तिशाली हो सकता था | वह धूल से उठा ओर खुशी से कुचले भरता हुआ अपने बिल में जा घुसा |
शेरू की पत्नी रानी अब तक जग चुकी थी उसने शेरू को इतना खुश होते देखा तो बोली -
"क्या बात हैं बड़े खुश नजर आ रहे हो,ऐसा सुबह-सुबह किया मिल गया जो तुम फूले नहीं समां रहे हो"
शेरू बच्चों के पास बैठते हुए टांग पर टांग रखकर बोला -
"तुम कहती थी ना में शिकार नही कर सकता ओर में डरपोक और कायर हूँ, तो तुम झूठ बोलती थी, तुम नहीं जानती मेरे अन्दर कितनी शक्ति हैं, मैं चाँहू तो अच्छे से अच्छे बलशाली को धूल चटा सकता हूँ |
रानी त्योंरिया चढ़ाते हुए बोली - " रहने दो कभी किसी चूहे का शिकार तो किया नही, कहते हो बलशाली को धूल चटा सकता हूँ "
शेरू रहस्यमय मुस्कान होठों पर लाते हुए बोला -" अरे तुम्हें क्या पता, जब मैं तुम्हें अपनी शक्ति दिखाऊंगा तब देखना दांतों तले उँगली दबा लोगी, तुम बस ऐसा कहना जैसा मैं कहता हूँ "|
रानी -"ठीक हैं कह दूंगी लेकिन कुछ कर के तो दिखाओ "|
इसके बाद शेरू का पूरा परिवार उठा और जाकर तालाब किनारे काँस के झुंड में छिपकर बैठ गया, और शेरू इस बात का जार करने लगा की कब कोई शिकार आये और वह उसे अपने मूल-मंत्र से धराशायी करे |
शेरू को अपने परिवार सहित काँस में छुपे-छुपे शाम हो गई थी | सूरज अब डूबने ही वाला था लेकिन शेरू को अब तक कोई ऐसा शिकार दिखाई नहीं दिया था जिस पर वह अपना मूल-मंत्र आजमा सके |
आखिर जब शाम होने को आयी तो दरयाई-घोड़ो का वही झुंड जो कल आया था तलाब किनारे पानी पीने आ पंहुचा | जिसे देखते ही शेरू गीदड़ के मुह में पानी भर आया और उसके पैरो में खुजली होने लगी और ज्यों ही घोड़ो का झुंड तालाब में पानी पीने घुसा तो शेरू खड़ा हो गया | उसने भी अपनी कमर को धनुष बनाते हुए अँगड़ाई तोड़ी और अपनी पत्नी रानी से मूल-मंत्र पढ़ते हुए बोला -"देखो तो जरा मेरी पूछ मुड़कर पीठ पर आ गई हे या नहीं " |
रानी -"हाँ स्वामी आप तो इस समय एक प्रकांड योद्धा की तरह लग रहे हो" |
शेरू आँखें निकलते हुए -"और मेरी आँखें तो देखो लाल हुई या नहीं " |
रानी -"हाँ स्वामी आपकी तो इस समय ऐसी लग रही हे मनो ज्वालामुखी लावा उगल रहा हो" |
शेरू ने इतना सुना तो वास्तव में उसे अपने अन्दर एक शक्ति सी जान पड़ी |
वह तेजी से काँस के झुंड के ऊपर से कूदते हुए किसी तूफान की तरह से एक दरियाई घोड़े पर कूद पड़ा |लेकिन ज्योंही शेरू ने घोड़े की पिछली टांग में अपने दांत गाड़ने चाहे तो घोड़े ने अपनी शक्तिशाली दुल्लती से शेरू को काँस के झुंडों के ऊपर से दर्जनों मीटर दूर फेक दिया, जिसके कारण जमीन पर पड़ते ही शेरू का मुंह जमीन में चार-पाँच अंगुल नीचे धस गया |
उसकी लाल ज्वालामुखी आँखें धूल मिट्टी के कारण सूखे कुए की तरह से रूँध गई और उनका लाल रंग भी पीला-पीला सा दिखाई देने लगा | इसके आलावा उसकी धनुष रूपी पूँछ भी टूटकर नीचे को मुड़ती हुई किसी पिटी भिखारिन की भांति दोनों टाँगों के बीच में छुप गई |
इतना सब होने के बाद शेरू अपनी टूटी टांग से खड़ा हुआ और किसी पैर बंधे ख़च्चर की भांति लंगड़ता हुआ अपने बिल की तरफ़ चल दिया |
शेरू की महेरिया रानी अपने बच्चों के साथ इस समय दूर से अपने स्वामी की इस वीरता को देख रही थी |
लेकिन जब उसने स्वामी को स्वादिष्ट शिकार की जगह जंगली धूल खाते देखा तो उसे बड़ा दुःख हुआ और वह खबर लेने के लिए अपने स्वामी की तरफ़ दोड़ी | एक बार रानी डर गई थी लेकिन अगले ही पल शेरू की हालत पर रानी हँस पड़ी उसने
शेरू की इतनी बुरी हालत आज से पहले कभी नहीं देखी थी | शेरू ने जब पत्नी के द्वारा उपहास होते देखा तो वह जल उठा और वह रानी हो जलती आँखों से देखते हुए अपने बिल की दीवार के पास बैठ कर अपनी टांग के दर्द को जीब से चाटने लगा | लेकिन रानी को अब भी अपने स्वामी की इस मूर्खता भरी वीरता पर हँसी आ रही थी और वह हँसी के कारण मिट्टी में लोट-पोट थी |


-विजय राज चौहान
Welhamboy's school
Dehradun-241008
PH-No-09412900005

http://hindibharat.wordpress.com/
http://groups.google.com/group/hindi-bharat



संपादकीय  पत्रिका प्राप्ती  लघुकथा  कहानी
कविता :-
हर तरफ आतंक  अखंड ये देश हमारा
स्वतंत्रता की ६१ वीं वर्षगाँठ
ॐची सोच   ऊँगली पकड़ कर वह बड़ी हुई
ऐ हिंद के युवा  संघर्ष   महिला शक्ति  आह्वान
कुछ-कुछ होता है   माँ    जीवन अल्प विराम
एशियाटिक सोसाइटी में राजस्थान - लेखक अम्बू शर्मा
वृद्धाश्रम-संस्कृति पनप रही है। - डॉ.गीता गुप्ता
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एशियाटिक सोसाइटी में राजस्थान - लेखक अम्बू शर्मा


एशियाटिक सोसाइटीः- बंगाल में श्रीरामपुर-ग्राम में ईसाई-मिशनरीज ने, जॉब चार्नोक द्वारा 1698 में कोलकाता बसाने से पूर्व ही, चर्च बना लिया था; कॉलेज स्थापित कर लिया था तथा निजी मुद्रणालय भी चलाते थे। उसी से उन्होंने बीकानेरी-बोली (राजस्थानी-भाषा) में हिब्रू-भाषा की बाइबिल के टिप्पणीकार सेण्ट ल्यूक की गोस्पेल का अनुवाद हमारी देव- नागरी-लिपि में 1736 में गद्य में छाप लिया था। इसी कारण, एशियाटिक सोसाइटी ने भी अपने स्थापना-वर्ष 1784 से ही, 122 भाषाओं के निजी भाषा-विभागों में, राजस्थानी-विभाग भी (हिन्दी-विभाग से विलग) स्थापित कर लिया था। सिन्धी, डोगरी, कोंकणी, नेपाली, मणिपुरी, बोडो, सन्थाली, मैथिली इत्यादि अत्यन्त न्यून जन-संख्यावाली भाषाओं को तो, 8वीं सूची में जोड़ लिया गया है और हम 10 करोड़ राजस्थानियों की मातृ-भाषा को नहीं ।
राजस्थानियों की सक्रियताः- 19वीं शताब्दी के अन्तिम दशक (1891-1900) में कोलकाता के कुछ तरुण राजस्थानी एशियाटिक सोसाइटी के राजस्थानी-विभाग में रुचि लेने लगे थे; जैसेः-घनश्यामदासजी बिड़ला, प्रभुदयालजी हिम्मतसिंहका, भूरामलजी अग्रवाल इत्यादि। उन्हीं के प्रयास से, सोसाइटी के राजस्थानी-पाण्डुलिपि-विभाग में, जोधपुर से आए पं0 राम- कर्णजी आसोपा को 1894 में नियुक्ति मिली। तब सोसाइटी सर जार्ज गियर्सन के प्रधान-संपादकत्व में पृथ्वीराज-रासो का मुद्रण करने लगी थी। पृथ्वीराज रासो का मुद्रण, अधूरा ही, स्थगित कर दिया। आसोपाजी की विद्वत्ता से प्रभावित होकर, कोलकाता विश्व-विद्यालय में, सर आशुतोष मुखर्जी ने, रामकरणजी को ही इंचार्ज बना दिया जहाँ पण्डितजी ने कक्षा-प्रथम से लेकर पंचम तक की राजस्थानी-पाठ्य-पुस्तकें, व्याकरण एवं शब्द-कोश का निर्माण किया।
हरप्रसादजी शास्त्रीः- 1904 में एशियाटिक सोसाइटी ने, राजस्थानी भाषा विभाग, हरप्रसादजी शास्त्री को सौंपा। उन्होंने राजस्थान की यात्रा की; शताधिक पाण्डुलिपियाँ लाए और सूची-पत्र (विवरणात्मक) अंग्रेजी- भाषा में प्रकाशित हुआ जिसका हिन्दी अनुवाद, पश्चात्-क्रम में, जोधपुर की त्रैमासिक शोध पत्रिका ‘परम्परा’ में, विशेषांक स्वरूप में प्रकाशित हुआ।
लुईज पियाओ टेस्सीटोरीः-यूरोप के इटली-देश के उड़ीपी-ग्राम के एक तेजस्वी तरुण को 1908 में फ्रांसीसी-भाषा में रामचरित-मानस एवं वाल्मीकीय रामायण के तुलनात्मक
अध्ययन पर डाक्टरेट मिली। भारत-भर में डाक्टरेट की डिग्री का यह श्रीगणेश था। उन्हें भी पूर्वी-विश्व की विभिन्न सांस्कृतिक भाषाओं के गहन अध्ययन में उसी भाँति रुचि थी जिस भाँति, एशियाटिक सोसाइटी के संस्थापक एवं भारत के सर्वोच्च जज, विलियम जोन्स को थी। विलियम जोन्स की मृत्यु भी भाषा सीखने की थकान से ही हुई क्यों कि कलकत्ता-निवास में वे प्रति दिवस, न्यूनतम पाँच भाषाओं के विद्वान गुरुओं से, अनेक घण्टों तक, भाषाएँ ही सीखते रहते थे। लुईज पियाओ टेस्सीटोरी की मृत्यु भी राजस्थानी-भाषाओं की पाण्डुलिपियाँ संग्रह की रुचि ने ही, बीकानेरी के निकट चारणी-ढाणी में, लू से ग्रसित हुए और 4/5 मास पश्चात् सन् 1919 में, मात्र 31 वर्ष की अवस्था में, 22 नवम्बर को उनका निधन, बीकानेर में हुआ जहाँ उनकी विशाल समाधि एवं उसमें स्फटिक प्रतिमा, कानपुर में बड़ा व्यवसाय करनेवाले बीकानेरी सेठ हजारीमलजी बाँठिया द्वारा विनिर्मित है और प्रत्येक वर्ष वहाँ उस पुण्य-तिथि पर मायड-भाषा प्रेमियों का विराट मेला आयोजित होता है जिसमें विश्व-भर के सहस्रों राजस्थानी-भाषा-प्रेमी, कत्र्तव्यपूर्वक नियमित सम्मिलित होते हैं। बाँठियाजी ने 1988 में, सपत्नीक, 8 दिवसों तक, टेस्सीटोरीजी के जन्म-ग्राम उडीपी (इटली) में व्यतीत किए जहाँ वे, जोधपुर पोलो-2 के ठिकाने पर रहने वाले परम विद्वान डॉ0 शक्तिदानजी कविया को भी, साथ में ले गए थे।
एशियाटिक सोसाइटी में टेस्सीटोरीजीः- 1912 में एशियाटिक सोसाइटी ने उन्हें कोेलकाता बुलाया। 500 मासिक वेतन दिया रहने को विशाल भवन एवं घोड़ा-गाड़ी का वाहन दिया तथा 5/7 नौकर-दइया भी दिए। टेस्सीटोरीजी का सोसाइटी में कार्य था- राजस्थानी-पाण्डुलिपियों का अंग्रेजी-भाषा में Descriptive catalogue बनाना। वह तो छपा ही किन्तु 4/5 वर्ष यहीं कार्य किया तब राजस्थानी-भाषा की व्याकरण लिखी और 2/3 महत्त्वपूर्ण राजस्थानी-ग्रन्थों का वैसा ही विशाल सुसम्पादन किया जैसा हिन्दी में रामचन्द्रजी शुक्ल ने तुलसीदासजी तथा सूरदासजी के ग्रन्थों का सुसम्पादन कर, उन्हें धार्मिक-क्षेत्र से साहित्य-क्षेत्र में प्रस्थापित ही नहीं, किया अपितु 1929 में छपे अपने ‘हिन्दी-साहित्य का इतिहास’ में इन दोनों धार्मिक महात्माओं को हिन्दी-साहित्याकाश में चाँद-सूरज ही बना दिया।
टेस्सीटोरीजी राजस्थान में- फिर तो टेस्सीटोरीजी को राजस्थानी-भाषा की साहित्यिक समृद्धि के प्रति इतनी अधिक श्रद्धा जागी कि वे संस्कृत एवं लेटिन-भाषा को छोड़कर, विश्व की सभी भाषाओं की अपेक्षा, राजस्थानी को अधिक श्रेष्ठ साहित्यिक भाषा मानने लगे और अंग्रेजी-भाषा का स्तर भी, उनकी दृष्टि में राजस्थानी-भाषा की साहित्यिक गरिमा से, अत्यन्त निम्न रह गया।
अन्तिम चार वर्षों में, टेस्सीटोरीजी ने सहस्रो पाण्डुलियाँ राजस्थान के नगर एवं ढ़ाणियों में, घूम-घूम कर जोड़ी एवं कोलकाता की एशियाटिक सोसाइटी में भिजवाते रहे। वहीं राजस्थान की पवित्र भूमि में ही, पाण्डुलिपियों की शोध में, प्राणों की आहुति भी दे दी। धन्य है मात्र 31 वर्ष की अवस्था में, टेस्सीटोरीजी का, राजस्थानी-भाषा की सेवा में बलिदान होकर, अजर-अमर हो जाना।
विपिन-बिहारीजी त्रिवेदीः- सोसाइटी में राजस्थान से, पाण्डुलिपियों का आना, आज तक भी है क्यों कि जी.डी.बिड़ला एवं कृष्णकुमारजी बिड़ला ने, इसी कार्य हेतु, सोसाइटी को प्रभूत धन-राशि दे रखी है, उनसे, Descriptive Catalogue (अंग्रेजी में) बनाने का कार्य, 1957 में बनारस से, हिन्दी-पढ़ने आए, कोलकाता- युनिवर्सिटी के छात्र, विपिनबिहारीजी त्रिवेदी ने भी सँभाला। उन्होंने 114 पाण्डुलिपियाँ पढ़ी। पुस्तक भी छपी; किन्तु प्रायः आधी प्रवृष्टियाँ अशुद्ध रह गई क्यों कि वे, राजस्थान के विभिन्न सम्भागों की भिन्न-भिन्न वर्णमाला के 8/10 अक्षर ही नहीं समझ पाए। तो भी उन्हें व्यक्तिगत लाभ हुआ कि ग्रियर्सन के अधूरे ‘‘पृथ्वीराज-रासो की प्रामाणिकता’’ पर गौरीशंकर हीराचन्द ओझा की विरोध-सामग्री उन्हें, सोसाइटी में सहजतया ही उपलब्ध हो गई जिसकी सहायता से उन्होंने, ‘डाक्टरेट’ की डिग्री प्राप्त की। एक उदाहरण:- विपिनबिहारीजी के सूचीपत्र में पुस्तक ‘बिदर-बतीसी’ है। उन्होंने ‘बिदर’ का अर्थ ‘बहादुर’ किया और सभी बत्तीसों छन्द की टिप्पणी, वीर सैनिक के पक्ष में, प्रशंसापूर्ण कर दी जबकि ‘बिदर’ का अर्थ ‘कायर’ होता है और ये सभी बत्तीसों छन्द, कायर की विगर्हणा में हैं, न कि प्रशंसा में।
1957 से 11 वर्षों तक सोसाइटी में Rajasthani Catalogue का पद उसी भाँति रिक्त रहा जिस भाँति लुईज पियाओ टेस्सीटोरी के पश्चात् 40 वर्षों तक रिक्त रहा था क्योंकि 1957 से पूर्व, साक्षात्कार में, एक भी विद्वान, राजस्थानी-पाण्डुलिपि पढ़ने में सफल नहीं हुआ था अतः 1968 नवम्बर में हुए 40 विद्वानों के साक्षात्कार में मेरा चयन कर लिया गया।
साक्षात्कार-विधि, यों रहती थी कि चारों निर्णायक गण, विलग स्थानों पर, 100 वर्षों के अन्तर से, चार पाण्डुलिपियाँ खोल कर रखते थे। उस निश्चित पृष्ठ से एक निश्चित प्रघट्टक (अर्थात 5/7 पंक्तियाँ) वे चिन्हित करके, उनका अनुवाद स्वीय-भाषा (प्रायः बँगला या अंग्रेजी) में लिख कर रखते थे। हमें भी वे ही पंक्तियाँ पढ़ाकर अंग्रेजी में उनका अर्थ, मौखिक ही सुनते थे। बस मैं ही राजस्थानी होने के कारण तथा झुंझनूं पुस्तकालय में लाइब्रेरियन की नौकरी करने के कारण, राजस्थानी पाण्डुलिपियों को भी थोड़ी बहुत उलट-पुलट कर देख चुका था। दूसरे, कोलकाता में 1962 में आते ही तीन वर्षों में, पद्मावतीजी झुनझुनूंवाला के पास करपात्रीजी के प्रवचनों को ग्रुण्डिंग (जर्मन) टेप-रिकार्डर से सुन कर कागजों पर उतारने से, थकान मिटाने हेतु, उनके पुस्तक-संग्रह में रखी राजस्थानी पाण्डुलिपियों को पलटता रहता था क्योंकि वे मीराबाई के साहित्य पर
आधिकारिक शोधकर्ता मानी गई है। पद्मावतीजी एशियाटिक सोसाइटी की सदस्या भी थीं सो उनके साथ; सोसाइटी में इन राजस्थानी पाण्डुलिपियों के दर्शन कर चुका था।
पाण्डुलिपियाँ पढ़ने में कठिनाईः- हम खड़ी-बोली हिन्दी में, देवनागरी-लिपि की शिक्षा लेने वाले व्यक्ति, राजस्थानी-भाषा की पुरानी पाण्डुलिपियाँ पढ़ने में, प्रारम्भ में अत्यन्त दुविधा अनुभव करेंगे क्योंकि तब, हाथ से बने कागजों एवं स्याही, साँठी (लेखनी इत्यादि सामग्रियों में मितव्ययिता हेतु, पृष्ठ के चारों ओर कहीं भी एक-डेढ इंच स्थान, रिक्त नहीं छोड़ा जाता था (2) सभी पुस्तकें, प्रायः डिंगळ-शैली के अपरिचित छन्दों में (अर्थात्) कविता में ही लिखी जाती थीं। गद्य तो पारस्परिक पत्राचार में अथवा राजकीय अध्यादेशों अथवा पट्टे-परवानों, शिला-लेखों, प्रमाण-पत्रों व्यापारिक बहियों, विरोध-पत्रों, स्वीकृति-पत्रों, जन्म-पत्रों, पंचागों, इतिहास-ग्रन्थों में (यदाकदा) आदि में ही प्रयोग होता था। राजस्थान में सभी छोटे-बड़े राजा महाराजाओं के आश्रय में ही श्रेष्ठ साहित्यिक काव्य ग्रन्थों की रचना, निरन्तर होती थी। वे लाखों की संख्या में आज भी भूतपूर्वक राजाओं के गोदामों में सड़ी-गली अवस्था में प्रयत्नपूर्वक प्राप्त हैं और लाखों पाण्डुलिपियाँ काल-कवलित भी हो चुकी हैं (3) कहीं भी विरामादि-चिन्हों का प्रयोग नहीं होता था अतः एक ही पंक्ति में कविता की 2.5 पंक्ति भी हो सकती थी; साढ़े-तीन भी और साढ़े चार पंक्तियाँ भी (4) वाक्यों में, शब्दों के मध्य में रिक्त स्थान नहीं होता सो आज की खड़ीबोली हिन्दी में छपा समाचार-पत्र भी हम नहीं पढ़ पाएँगे यदि शब्दों मे मध्य का रिक्त स्थान, लुप्त कर दिया जाए। वैसी अवस्था में प्रत्येक वर्ण, लम्बी रेलगाड़ी तो बन जाएंगे किन्तु डिब्बों की लम्बाई नहीं जान पाएंगे। जैसेः-उसका मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है को पाण्डुलिपियों में लिखा रहता है और हम वर्ण भी नहीं जानते एवं डिंगल के छन्द भी नहीं; तो पढ़ेंगेः-


उसका मुखचन् द्रमाके समा नसुन्द रहै


इसी कारण, मेरे साक्षात्कार-काल में अन्य 39 विद्वान तो शून्य प्रतिशत अंक प्राप्त कर सके और मैं, अल्प-मात्रा में, पूर्वानुभव के बल पर भी मात्र 10 प्रतिशत अंक ही ला सका था। (5) चयन के पश्चात् मुझे भी पाण्डुलिपि, संभालकर पढ़ने का प्रशिक्षण, थोड़े-दिवसों तक तो दिया ही गया कि (क) पृष्ठ पुराना है तो अंगुलियों की असावधान छुअन से, वह तत्काल ही चूर्ण बन जाएगा (ख) मुँह मे श्वास से उस स्थान की स्याही उड़ जाएगी (ग) पृष्ठ को अधिक सूँघते रहेंगे तो हमारे श्वास में पुराने पृष्ठों के कीटाणु (विष) खिंच कर, रक्त में मिस जाएंगे (घ) सावधानी से भी, पृष्ठ अंगुलियों में पकड़ने में नहीं आए तो उस पुस्तक को Cellophene Paper (Trasparent paper) चिपकाने वाले विभाग में भेज देना चाहिए। फिर उन्हें चिमटी से पकड़कर उलटने में सुविधा होगी और पढ़ते समय भी उतनी कठिनाई नहीं रहेगी (ङ) लिपि एवं डिंगल भाषा तथा काव्य के छन्द समझने में तत्परता नहीं बरतनी चाहिए क्योंकि उन पाण्डुलिपियों में, आधुनिक अंग्रेजी विद्यालयों में, हिन्दी-भाषा के माध्यम से भी विद्यार्जन करने वाले सज्जन को सभी कुछ अपरिचित है और क्रमशः कई मास व्यतीत होते-होते ही, पठन सम्भव है सो 122 भाषाओं के इस पाण्डुलिपि विभाग में, कोई भी किसी का गुरु या मार्ग-दर्शन करने वाला नहीं है क्यों कि वे अपनी-अपनी भाषाओं की पाण्डुलिपियाँ ही पढ़ने और समझने में सफलता प्राप्त कर लेंगे-वही पर्याप्त है।
शुरू में तीन वर्ष में 522 ग्रन्थ पढ़े और । A descriptive catalogue of Rajasthani Manuscript, Part-II तैयार कर दिया था 1972 में जिसे शान्तिनिकेतन के हिन्दी-भवनाध्यक्ष रामसिंहजी तोमर ने प्रति तीसरे मास आकर जाँचा और प्रकाशन हेतु ok कर दिया किन्तु सोसाइटी की सुस्ती के कारण यह 2003 जनवरी में छपा 606 पृष्ठों में 1200 मूल्य में जो तभी इण्टरनैट पर भी आ गया है-
http://www.vedamsbooks.com/no30463htm.
किन्तु अब 5 वर्षों के पश्चात् दिल्ली की एक अन्य प्रकाशन संस्था ने भी मूल्य बढ़ाकर, अन्य इण्टरनैट की संख्या भी प्रदान की है जो इसे 1200/- के स्थान पर, 1800/- रुपयों में विक्रय कर रही है। इस सूचीपत्र को मेरी हस्तलिपि में, दो बड़े रजिस्टरों में, 1976 में जोधपुर विश्वविद्यालय के राजस्थानी विभागाध्यक्ष डॉ0 कल्याणसिंहजी शेखावत ने, पूरे दो दिन देखा और प्रशंसित किया। कल्याणसिंहजी 8/1/05 को पुनः कोलकाता आए तो मुझसे बोले ‘‘चलिए एशियाटिक सोसाइटी से वह आपका अंग्रेजी सूचीपत्र क्रय करें।’’


परिचय: जन्म: झुंझनूं 1/11/1934 (कार्तिक कृष्ण-पक्ष दशमी, 1991) पिता: पण्डित प्रह्लादरायजी महमिया, शिक्षा: एम.ए.हिन्दी, साहित्य-रत्न, बेसिक शिक्षा-प्रशिक्षित। बी.ए.भूगोल, उदयपुर, एम.ए. डिंगळ (राजस्थानी) 76% अंक।
वृत्ति: राजस्थान में 1954-62 राजकीय अध्यापक, कोलकाता में 1963-99 ज्ञानभारती-विद्यापीठ में अध्यापन।सम्पादन: तीन पत्रिकाएं राजस्थान में।
कोलकाता में सम्पादन:-
1. 1962 से राजस्थान-समाज (पाक्षिक) 2. 1963 से राजस्थान-स्टैण्डर्ड (साप्ताहिक) 3. लाडेसर (पाक्षिक) 1967 में। 4. 1971 से म्हारो देस (पाक्षिक) 5. 1971 में सरवर (पाक्षिक) 6. 1972 से अब तक निजी पत्रिका नैणसी (मासिक)
अम्बू-रामायण का लेखन प्रारम्भ 1947 में। 1949 तक, प्रारम्भ की 5000 पंक्तियाँ (दोहा-चैपाई) लिखी गई । ये पंक्तियाँ पुस्तक रूप में प्रथम संस्करण 1979 में झुंझनूं में छपीं। दूसरा संस्करण राम नवमी 1985 को, भारतीय भाषा परिषद कोलकाता में लोकार्पित हुआ । एक ही जिल्द में सम्पूर्ण रामायण, श्री प्रदीप ढेडिया की प्रेस में 1997 में झुंझनूं प्रगति संघ ने छपवाई। इसमें 22000 पंक्तियाँ तथा 837 पृष्ठ हैं ।
सम्मानः- झुंझनूं प्रगति संघ द्वारा, 14 अगस्त 1994 को ज्ञानमंच में। ‘अर्चना’ द्वारा 6 नवम्बर 2005 को रोटरी-क्लब में। कानपुर के हजारीमलजी बाँठिया द्वारा कोलकाता के कला-मन्दिर (तलकक्ष) में 23 जनवरी 2005 को। हनुमानगढ़ के हरिमोहनजी सारस्वत द्वारा 13/12/05 को सम्मान-सामग्री कोलकाता आई। ‘पारिजात’ की रजत-जयन्ती पर सम्मान, भारतीय भाषा-परिषद में 12/5/06 को जलज भादुड़ी द्वारा । रेडियो एवं टीवी परः- तीस वर्षों तक कहानियाँ, गीत, कविताएँ, वार्ताएँ, वार्तालाप आदि के प्रसारण में अकेले एवं सामूहिक रूप में भी सम्मिलित। विश्वम्भरजी नेवर ने ताजा-टीवी पर ‘सागर-मन्थन’ में प्रस्तुत किया।
मानद डॉक्टरेटः-‘राजस्थानी विकास-मंच जालौर ने मानद डी.आर.लिट् उपाधि दी।


- अम्बू शर्मा

सम्पर्क: 205, एस.के.देव मार्ग "श्रीभूमि", कोलकाता-700048
फोन: (033) 2534 2937, 2521 1052














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संपादकीय  पत्रिका प्राप्ती  लघुकथा  कहानी
कविता :-
हर तरफ आतंक  अखंड ये देश हमारा
स्वतंत्रता की ६१ वीं वर्षगाँठ
ॐची सोच   ऊँगली पकड़ कर वह बड़ी हुई
ऐ हिंद के युवा  संघर्ष   महिला शक्ति  आह्वान
कुछ-कुछ होता है   माँ    जीवन अल्प विराम
एशियाटिक सोसाइटी में राजस्थान - लेखक अम्बू शर्मा
वृद्धाश्रम-संस्कृति पनप रही है। - डॉ.गीता गुप्ता
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वृद्धाश्रम-संस्कृति पनप रही है। - डॉ.गीता गुप्ता


विगत दस-पन्द्रह वर्षों में समाज में तेंजी से परिवर्तन हुए हैं। संयुक्त परिवार टूट रहे है। एकल परिवार की परम्परा विकसित हो रही है। महानगरों में ही नहीं, छोटे शहरों-कसबों और गाँवों में भी परिवार बिखर रहे हैं। एक समय था । जब घर छोटे-छोटे हुआ करते थे, लेकिन उनमें पाँच-पाँच पीढ़ियाँ समा जाती थीं। अब भौतिक समृद्धि ने घर के स्थान पर विशाल अट्टालिकाएँ खड़ी कर दीं, किन्तु परिवार ‘हम दो-हमारे दो’ या ‘हम दो-हमारे एक’ में ही सिमटकर रह गये ।
भूमण्डलीकरण के इस दौर में देशों के बीच तो दूरियाँ कम हुईं परन्तु आत्मीय सम्बन्धों के बीच बड़ी-बड़ी खाइयाँ निर्मित हो गयीं । सम्बन्ध महज सम्बोधनों तक सीमित होकर रह गये। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना दूर-दूर तक कहीं दिखाई नहीं देती। आंखिर इन परिस्थितियों के लिए कौन दोषी है ।
प्रतिस्पर्धा के वर्तमान युग में शिक्षा और जीविकोपार्जन के लिए बच्चे घर से दूर जा रहे हैं। यह स्वाभाविक है, किन्तु वे अपने संवेदनशून्य, संस्कारहीन और आत्मकेन्द्रित स्वभाव का परिचय दे रहे हैं, यह गम्भीर चिंता का विषय है। संयुक्त परिवार में जहाँ एकता, सौहार्द, सहकारिता, सहिष्णुता, संवेदनशीलता आदि मानवीय गुण सहज ही बच्चों में विकसित हो जाते थे, वहीं राग-द्वेष, मनो-मालिन्य, भेदभाव आदि के लिए कोई स्थान नहीं होता था, क्योंकि घर के बुजुर्ग कलह-क्लेश को दूर कर तत्काल मेल मिलाप करा देते थे । लेकिन आज बच्चे-युवा, सभी एकाकीपन की पीड़ा झेलने के लिए अभिशप्त हैं। एकल परिवार में एक या दो ही बच्चे होते हैं, जिन्हें कुछ भी मिल-बाँटकर जीने-खाने की आदत नहीं रहती । ऐसे में उनका दायरा सीमित होता चला जाता है ।
अब पैतृक व्यवसाय पीढ़ी-दर-पीढ़ी नहीं अपनाये जाते । बच्चे अपनी रूचि से शिक्षा ग्रहण कर व्यवसाय चुनना पसन्द करते हैं इसलिए वे घर से दूर अपना एक स्वतन्त्र संसार बसा लेते हैं, जिसमें रक्त-सम्बन्धों, इष्ट-मित्रों या आत्मीय जन तक का प्रवेश निषिद्ध है । उनके लिए धन-दौलत ही उनका इष्ट है । वे अधिकाधिक भौतिक ऐश्वर्य के स्वामी बनना चाहते हैं । उनके जीवन में भावनाओं का कोई स्थान नहीं है ।
परिवार टूटने का सबसे अधिक खामियांजा बच्चों को भुगतना पड़ा है। वे मानवीय सम्बन्धों की ऊष्मा और मिठास से वंचित हो गये। संयुक्त परिवार में सहज ही उनमें मानवीय गुणों का विकास हो जाता था, और माता-पिता को अतिरिक्त श्रम नहीं करना पड़ता था। लेकिन अब उनमें व्यक्तित्व-विकास हेतु आवश्यक मानवीय गुणों के लिए प्रशिक्षण-केन्द्रों की मदद ली जा रही है। दादा-दादी, नाना-नानी, मामा-मामी, चाचा-चाची आदि रिश्तें बच्चों के लिए अपरिचित हो गये हैं, क्योंकि अवकाश के दिनों में अब उन्हें विभिन्न कलाओं का प्रशिक्षण दिलवाना माता-पिता की दृष्टि में अधिक महत्वपूर्ण है, ताकि बच्चे कम उर्म में कोई कीर्तिमान रच सकें।
घर में बुजूर्गों की उपस्थिति जहाँ युवाओं के आचरण को मर्यादित रखती थी वहीं अब उनकी स्वच्छन्द जीवन-शैली में अनेक बुराईयों ने स्थान पा लिया है। धूम्रपान, मदिरा-सेवन, अनैतिक सम्बन्ध जैसी बुराइयों से जहाँ बड़ों की उपस्थिति बचाती थी, वहीं परिवार की प्रतिष्ठा का दायित्व बोध भी युवाओं को पथ-भ्रष्ट होने से रोकता था ।
संयुक्त परिवार का एक लाभ यह भी था कि शारीरिक-मानसिक या आर्थिक रूप से दुर्बल सदस्य का जीवन भी अच्छी तरह कट जाता था और किसी को भार अनुभव नहीं होता था, परन्तु आज समृद्धि के बावजूद परिजन उपेक्षा का शिकार होते हैं। पहले संयुक्त परिवार टूटे, फिर व्यक्ति के स्वार्थ ने उसे स्नेह के बन्धनों को तोड़कर आत्मकेन्द्रित होकर जीना सिखाया, फिर इसी स्वार्थ और भौतिक आकर्षणों ने उसे नितान्त अकेला कर दिया । यही कारण है कि एकल परिवार भी सुखमय जीवन का आधार नहीं है ।
यदि कहा जाय कि परिवार नामक संस्था में युवाओं की आस्था कम हो रही है तो अतिशयोक्ति न होगी। उनके जीवन में बुजुर्ग हाशिये पर जा चुके हैं। माता-पिता का हस्तक्षेप उन्हें स्वीकार नहीं और भौतिकता की चकाचैंध में वे इस कदर अंधे हो गये हैं कि मर्यादित जीवन जीना उन्हें पसन्द नहीं, फिर परिणाम क्या होगा ? तिरस्कृत, उपेक्षित बुजुर्ग वृद्धाश्रम में आश्रम लेने के लिए विवश हैं। भारत जैसे विशाल देश में वृद्धाश्रम-संस्कृति पनप रही है। माता-पिता अपनी ही सन्तान की उपेक्षा के शिकार हैं, क्योंकि उन्होंने बच्चों को जीवन-मूल्यों की शिक्षा नहीं दी। अपने संस्कृतिक मूल्य परम्पराएँ, आचार-विचार, मर्यादा, आदर्श आदि भुलाकर वे स्वयं भी आधुनिकता की अन्धी दौड़ में शामिल हो गये, ऐसे में उन्हें दुष्परिणाम तो भुगतना ही होगा।
तमाम स्थितियों के लिए सिर्फ युवा पीढ़ी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता । आज अभिभावकों को अपने बच्चों से मित्रवत् व्यवहार करते हुए उन्हें पारिवारिक मूल्यों से अवगत कराने की आवश्यकता है। स्वयं सदाचार का आदर्श प्रस्तुत करना होगा, ताकि वे आपका अनुसरण करें। धैर्य एवं शान्तिपूर्वक उन्हें आधुनिक मिथ्याडम्बरों और पश्चिम की लहर के दुष्परिणामों का हवाला देते हुए अपनी जड़ों से जोड़े रखने का अथक प्रयास करना होगा। तभी परिवार की अवधारणा बच पाएगी और बुजुर्ग सुरक्षित व सम्मानित जीवन जी सकेंगे।
ऐसे में, जबकि आधुनिक युवा परिवार नामक संस्था में दिलचस्पी नहीं रखते, सन्तानोत्पत्ति के लिए विवाह करके घर नहीं बसाना चाहते, बल्कि स्त्री मित्र के साथ जब तक निभे-तभी तक रहना चाहते हैं, स्पष्ट है कि उन्हें सही मार्गदर्शन की नितान्त आवश्यकता है। जीवन में धन-सम्पदा और भौतिक समृद्धि सर्वाधिक महत्वपूर्ण नहीं है । जीवन का सच्चा सुख अपने सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण, पारम्परिक मर्यादाओं के अनुशीलन और सदाचार में ही निहित है। भारतीय संस्कृति की यह एक ऐसी विशेषता है, जिससे प्रत्येक युवा को परिचित कराया जाना चाहिए ताकि वह सही जीवन-मूल्य को समझ सके और अपने लक्ष्य को पहचान सके। यदि बचपन से बीज रूप में संस्कृति के मूल्यों ने उसके हृदय में स्थान पा लिया तो ‘परिवार’ के अस्तित्व पर मंडराते संकट के बादल अवश्य छंट जाएँगे।













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संपादकीय  पत्रिका प्राप्ती  लघुकथा  कहानी
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हर तरफ आतंक  अखंड ये देश हमारा
स्वतंत्रता की ६१ वीं वर्षगाँठ
ॐची सोच   ऊँगली पकड़ कर वह बड़ी हुई
ऐ हिंद के युवा  संघर्ष   महिला शक्ति  आह्वान
कुछ-कुछ होता है   माँ    जीवन अल्प विराम
एशियाटिक सोसाइटी में राजस्थान - लेखक अम्बू शर्मा
वृद्धाश्रम-संस्कृति पनप रही है। - डॉ.गीता गुप्ता
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हर तरफ आतंक  अखंड ये देश हमारा
स्वतंत्रता की ६१ वीं वर्षगाँठ
ॐची सोच   ऊँगली पकड़ कर वह बड़ी हुई
ऐ हिंद के युवा  संघर्ष   महिला शक्ति  आह्वान
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संपादकीय  पत्रिका प्राप्ती
लघुकथा  कहानी




हर तरफ आतंक



हर तरफ आतंक का अधिकार है
हर तरफ फैला भ्रष्टाचार है
इस हालत का कौन जिम्मेदार है
देश को जला रहे,उसके पहरेदार है

गोद में खेले हो जिस माँ के
क्यों तुम आज उसको भूल गए
किसने बहकाया है तुम्हे इस तरह
आज क्यों उसके प्रतिकूल गए

रहनुमा है आज जो तुम्हारे
तुम्हारा ही सर्वनाश कर रहे है
फसांकर कर दलदलो में तुम्हे
आसमां पर वो उड़ रहे है

आरक्षित हो इस देश में तुम
किस आरक्षण के लिए हाहाकार है
देश को जला रहे,उसके पहरेदार है

देश के हो सैनिक तुम
फिर मांग रहे क्यूँ संरक्षण तुम
प्रतिभा क्या नहीं बेटो में तुम्हारे
किसके लिए मांग रहे आरक्षण तुम

आँखे खोलो और जरा देखो तो
बेटो में तुम्हारे कितना दम है
बिना आरक्षण के ही आज
शिखर तक पहुंचे कदम है

आरक्षण नहीं सफलता की सीढ़ी
श्रम और लगन ही इसका सार है
देश को जला रहे, क्यूँ उसके पहरेदार है

इन हवाओ का आरक्षण कौन देगा
मिट रहे संसाधनों का संरक्षण कौन देगा
नष्ट हो गयी है जो प्रकृति जो तुमसे
उसका आज आरक्षण कौन देगा

कुर्बां होने के लिए देश पर
शहीदों को आरक्षण किसने दिया था
पहुँचाया जिन्होंने देश को शिखर पर
उनको आरक्षण किसने दिया था

मन में साहस गर है बाजुओ में दम
बिना आरक्षण के तब कदमो में संसार है
देश को जला रहे,क्यूँ उसके पहरेदार है

देश पर न्योछावर बेटे को
माँ जहाँ ख़ुशी-ख़ुशी कर देती है
बलिदानों और शौर्य साहस की
वो तो पावन धरती है

शर्म से झुके सिर उसका
क्यूँ ऐसा आज काम कर रहे हो
गायी जाती जौहर गाथाएं जिस पर
उस मिट्टी को क्यूँ बदनाम कर रहे हो

दुष्कर्मो से आज तुम्हारे ही
वो धरती बहुत शर्मसार है
देश को जला रहे,क्यूँ उसके पहरेदार है


नाम -ब्रह्मनाथ त्रिपाठी 'अंजान'
फ़ोन -०१२० ४२४०९७० मो.न. ९८१०६५७१७८
email: buntytrip@gmail.com

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हर तरफ आतंक   अखंड ये देश हमारा   स्वतंत्रता की ६१ वीं वर्षगाँठ   
ॐची सोच   ऊँगली पकड़ कर वह बड़ी हुई   ऐ हिंद के युवा   संघर्ष   महिला शक्ति  आह्वान  कुछ-कुछ होता है    माँ    जीवन अल्प विराम
संपादकीय  पत्रिका प्राप्ती  लघुकथा  कहानी   कविता  आपके पत्र  समीक्षा करें
एशियाटिक सोसाइटी में राजस्थान - लेखक अम्बू शर्मा
वृद्धाश्रम-संस्कृति पनप रही है। - डॉ.गीता गुप्ता


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अखंड ये देश हमारा

नवजोत से प्रज्जवल
अखंड ये देश हमारा

मनमोहिनी शुभम् विस्मय
प्रकृति की वादियाँ है
अमरताल मे रसगान करती
बहती पावन नदियाँ है

चरणों मे लहराता सागर
बहती गंगा की अमृत धारा
नवजोत से प्रज्जवल
अखंड ये देश हमारा

नव सभ्यता मे मिश्रित
पुरा सभ्यता की सादगी है
आसमां से बात करता
यहीं पर हिमाद्रि है

शान्ति सदभावना और प्रेम
जग को ये संदेश हमारा
नवजोत से प्रज्जवल
अखंड ये देश हमारा



नाम -ब्रह्मनाथ त्रिपाठी 'अंजान' जन्म- १८ नवम्बर १९८९ जन्मस्थान- परियावां प्रतापगढ़ (उ.प्र.) निवास स्थान- नॉएडा, स्थायी निवास स्थान-परियावां प्रतापगढ़ (उ.प्र.) पिता- श्री राम कृष्ण त्रिपाठी ,एक कवि सम्वाद्कार और समाजसेवक है माँ - विमला त्रिपाठी,एक गृहणी धार्मिक विचारो की महिला है सात भाई बहनो मे सबसे छोटा हूँ इस समय नॉएडा में रह रहे हैं कविताओ की लिखने की कला पिताजी से विरासत में मिली इस समय अध्ययन कर रहा हूँ मैं gr.noida में btech कर रहा हूँ और gr.noida के इंजीनियरिंग कालेजो मे जो नए कवि लिखते है उन्हें प्रोत्शाहित करके gr.नॉएडा मे कविता के विकास मे काम कर रहा हूँ नए कवियों को एकत्रित करके उन्हें कवि सम्मेलनों के मंच पर लाने के लिए प्रयासरत हूँ शौक- किताबे पढ़ना,हिन्दी गाने और ग़ज़ल सुनना फ़ोन -०१२० ४२४०९७० मो.न. ९८१०६५७१७८
email:buntytrip@gmail.com

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हर तरफ आतंक   अखंड ये देश हमारा   स्वतंत्रता की ६१ वीं वर्षगाँठ   
ॐची सोच   ऊँगली पकड़ कर वह बड़ी हुई   ऐ हिंद के युवा   संघर्ष   महिला शक्ति  आह्वान  कुछ-कुछ होता है    माँ    जीवन अल्प विराम
संपादकीय  पत्रिका प्राप्ती  लघुकथा  कहानी   कविता  आपके पत्र  समीक्षा करें
एशियाटिक सोसाइटी में राजस्थान - लेखक अम्बू शर्मा
वृद्धाश्रम-संस्कृति पनप रही है। - डॉ.गीता गुप्ता


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स्वतंत्रता की ६१ वीं वर्षगाँठ
मना रहे हैं स्वतंत्रता की ६१ वीं वर्षगाँठ
पढ़ा रहे हैं सदाचारिता की पाठ
कर रहे हैं आपस में गरीबों के राशि के बंदरबाँट
यही है भारतीय स्वतंत्रता की वर्षगाँठ
स्वतंत्रता की ६१ वीं वर्षगाँठ
क्यों मनाऊं मैं स्वतंत्रता की वर्षगाँठ
आज मेरा देश स्वतंत्र है
पर इस देश के निवासी गुलाम हैं
भ्रष्टाचार व अन्याय के गुलाम
जुल्म व शोषण के गुलाम
घूसखोरी व अत्याचार के गुलाम
एक नहीं दो नहीं सभी हैं इनके गुलाम
यही है मेरे देश की पहचान
यहाँ किसी को बोलने का भी अधिकार नहीं है
यहाँ किसी को न्याय पाने का भी अधिकार नहीं है
नहीं होती है यहाँ आम जन के साथ न्याय
आम जन के लिए तो न्याय माँगना भी गुनाह हो जाता है
यदि माँगा वह न्याय और नहीं दिया पैसा
तो रक्षक भी उसका दुश्मन हो जाता है
क्योंकि यहाँ पैसे की ही बात सुनी जाती है
व पैसे की ही जीत होती है
एक नहीं दो नहीं नीचे से ऊपर तक सभी जगह है घूसखोरी व अत्याचार
इसे बंद करने के लिए नहीं है कोई सरकार
होती रही है होती रहेगी अन्याय व अत्याचार
हमें न्याय पाने का भी नहीं है अधिकार
हमें सच बोलने का भी नहीं है अधिकार
तो फिर क्यों मनाऊं मैं स्वतंत्रता दिवस
आज सच्चाई व इमानदारी का नहीं है नामों निशान
भारत में धर्म की कोई नहीं है पहचान
चूँकि भारत में सच्चाई, ईमानदारी व धर्म सभी का हो गया है नाश
तो क्यों न स्वतंत्रता दिवस के स्थान पर शोक दिवस ही मनाया जाए


- महेश कुमार वर्मा
DTDC Courier Office,
Satyanarayan market, Opposite Maruti (KARLO) Swhow Room,
Boring Road, Patna (Bihar) PIN : 800001 (INDIA) Contact No. : +919955239846

E-mail ID : vermamahesh7@gmail.com
Webpage : http://popularindia.blogspot.com

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हर तरफ आतंक   अखंड ये देश हमारा   स्वतंत्रता की ६१ वीं वर्षगाँठ   
ॐची सोच   ऊँगली पकड़ कर वह बड़ी हुई   ऐ हिंद के युवा   संघर्ष   महिला शक्ति  आह्वान  कुछ-कुछ होता है    माँ    जीवन अल्प विराम
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ॐची सोच
ॐची सोच हमेशा सोचो,
मन मैं कुनठा मत लाओ !
दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर,
मन में अटल विश्वास जगाओ !
कंकर से भी हीरा बनकर'
प्रतिभा अपनी दर्शाओ !!
ॐची सोच हमेशा ----------

आकाश गंगा अशंख तारो में
अपना असत्तव बनाओ !
ध्रुव तारे की तरह,
गगन मंडल में जगमगाओ !!
ॐची सोच हमेशा ----------

विपत्तियों से करो मुकबला,
कभी ना घबराओ !
प्रकृति से लो सीख,
काटो में गुलाब खिलाओ
ॐची सोच हमेशा ----------

कभी किसी पर आस्रित होकर
निरजीव ना बन जाओ !
राख में अंगारा बन,
स्वयँ पहचान बनाओ !!
ॐची सोच हमेशा ----------

आसहाय अपने को ना समझो,
निराशाओं को दूर भगाओ !
आशा रुपी दीप जलाकर,
कीचड में भी कमल खिलाओ !!
ॐची सोच हमेशा ----------

पतझर से नीरस मौसम में,
बसंत रितु सा बजूद बनाओ !
चारो ओर बहारे हो,
जग में ऐसा नाम कमाओ !!
ॐची सोच हमेशा ----------


देवेन्द्र कुमार मिश्रा
अमानगंज मोहल्ला नेहरु बार्ड न0 13, छतरपुर (म0प्र0)

email:devchp@gmail.com
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ऊँगली पकड़ कर वह बड़ी हुई
जिस दिन एक बेटी अपने घर से, अपने परिवार से, अपने भाई,मां तथा पिता से जुदा होकर अपनी ससुराल को जाने के लिए अपने घर से विदाई लेती है, उस समय उस किशोरमन की त्रासदी, वर्णन करने के लिए कवि को भी शब्द नही मिलते ! जिस पिता की ऊँगली पकड़ कर वह बड़ी हुई, उन्हें छोड़ने का कष्ट, जिस भाई के साथ सुख और दुःख भरी यादें और प्यार बांटा, और वह अपना घर जिसमे बचपन की सब यादें बसी थी.....इस तकलीफ का वर्णन किसी के लिए भी असंभव जैसा ही है !और उसके बाद रह जातीं हैं सिर्फ़ बचपन की यादें, ताउम्र बेटी अपने पिता का घर नही भूल पाती ! पूरे जीवन वह अपने भाई और पिता की ओर देखती रहती है !
राखी और सावन में तीज, ये दो त्यौहार, पुत्रियों को समर्पित हैं, इन दिनों का इंतज़ार रहता है बेटियों को कि मुझे बाबुल का या भइया का बुलावा आएगा ! नारी के इस रूप से बड़ा प्यार और कहीं नही मिलता !

ऊँगली पकड के पापा की
जब चलना मैंने सीखा था
पास लेटकर उनके मैंने
चाँद सितारे देखे थे ,
बड़े दिनों के बाद याद , पापा की गोदी आती है !
पता नहीं क्यों आज मुझे उस घर की यादें आती हैं

पता नहीं जाने क्यों मेरा
मन रोने को करता है ,
बार बार क्यों आज मुझे
यादें उस घर की आती हैं
बड़े दिनों के बाद आज , पापा सपने में आए थे !
पता नहीं मां क्यों मन को,मैं आज न समझा पाई हूँ

क्यों लगता अम्मा मुझको
इकलापन सा इस जीवन में
क्यों लगता मां , जैसे कोई
गलती की, लड़की बन के !
बड़े दिनों के बाद आज यादें उस घर की आयीं हैं !
पता नहीं मां सावन में ,यह ऑंखें क्यों भर आईं हैं

किस घर को अपना बोलूं ?
मां किस दर को अपना मानूं
भाग्यविधाता ने क्यों मुझको
जन्म दिया है , नारी का,
बड़े दिनों के बाद आज भैया की याद सताती है
पता नहीं क्यों सावन में पापा की यादें आती है !

आज बाग़ में बच्चों को
जब मैंने देखा झूले में ,
अपना बचपन याद आ गया
जो मैं भुला चुकी, कब से
बड़े दिनों के बाद आज क्यों बिसरी यादें आती हैं !
पता नही क्यों याद मुझे, पापा की पप्पी आती है !

तुम सब भले भुला दो लेकिन
मैं वह घर कैसे भूलूँ ?
तुम सब भूल गए भैय्या
पर मैं वे दिन कैसे भूलूँ ?
बड़े दिनों के बाद आज , उस घर की यादें आती हैं !
पता नहीं क्यों आज मुझे मां तेरी यादें आती हैं !



सतीश सक्सेना mob: 9811076451

http://satish-saxena.blogspot.com/
http://lightmood.blogspot.com/

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ऐ हिंद के युवा

ऐ हिंद के युवा तू आगे बढ़ लगाम थाम ले
तू हिंद कि पहचान है तू हिंद को पहचान दे

आयें लाखों दिक्कते पर तेरा कदम ना डिगे
शोषण किसीका होता देख तेरा खूं खौल उठे

तू बेफिक्र आगे बढ़ मुश्किलें कितनी ही आयेंगी
मन मे हो उमंग जिसके जीत उसको ही पायेगी

ऐ हिंद के युवा तू आगे बढ़ लगाम थाम ले
तू हिंद कि पहचान है तू हिंद को पहचान दे

देश का प्रहरी तू देश का मान है तू
देश का भविष्य तू देश का अरमान तू

जाग देख तेरे देश को दुश्मन ललकार रहा है
उठ थाम ले हथियार आतंक सीमा लाँघ रहा है

राम कृष्ण गौतम गाँधी की संतान है तू
राम रहीम नानक और जीसस का आशीर्वाद है तू

हिंद के नौजवान कर तू विजय का प्रयाण
समुद्र की गहराई आसमा की ऊँचाई हो तेरा अरमान


डॉ. श्रीकृष्ण मित्तल
परिचय : वाणिज्य सनातक दिल्ली विश्वविद्यालय में दिल्लीमहाविद्यालय का दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संगठन में माननीय श्री दत्तोपंत जी ठेंगडी जी के आशीर्वाद से अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की और से विद्यार्थी नेता व महापार्षद के रूप में प्रतिनिधित्व किया। विधि अध्यन मैसूर विश्वविद्यालय में कर बेल्फोर्ड अमरीका से विधि उच्स्नातक LLM व समाजसेवा विज्ञान में डॉक्टरेट की मानद उपाधी ग्रहण की। स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्रीमतीइंदिरागाँधी जी से आशीर्वाद एवम प्रेरणा प्राप्त की। व्यवसाय: जाने मने उद्योगपति, आयातक, निर्यातक डॉ. मीतल ने बाल्यकाल में पारिवारिक व्यापर से प्रारम्भ कर दिल्ली, हरियाणा, उतरप्रदेश, बिहार व कर्णाटक आदि राज्यों में विभिन्न उद्योग स्थापित किये, सफलता पूर्वक चलाये. भारत के राष्ट्रपति महामहिम डॉ. शंकरदयालजीशर्मा व श्रीवसंतसाठेजी के करकमलों से उद्योगपत्र सम्मान और डॉ. भीष्मनारायणसींहजी से उद्योग रत्न सम्मान प्राप्त कीये। अपनी कार्यप्रणालीसे व्यापार उद्योग आदि के विभिन संघोंमें जैसे भारतीय जींक आक्साइड निर्माता संघ, भारतीय लघु मोम निर्माता संघ , भारतीय रसायन व्यापारी संघ, दिल्ली रसायन व्यापारी संघ, दिल्लीधातु व्यापारी संघ , मैसूर उद्योग व्यापार संघ, भारतीय सीरामीक सोसायटी पद भार ग्रहण किये. वर्तमान में कलाम्बोली स्टील मर्यादित व श्री चामुन्डी सिरामिक के अध्यक्ष के रूप में कार्यरत हैं.
awbikk@gmail.com
http://bhulibisriyaaden.blogspot.com



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ॐची सोच   ऊँगली पकड़ कर वह बड़ी हुई   ऐ हिंद के युवा   संघर्ष   महिला शक्ति  आह्वान  कुछ-कुछ होता है    माँ    जीवन अल्प विराम
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एशियाटिक सोसाइटी में राजस्थान - लेखक अम्बू शर्मा
वृद्धाश्रम-संस्कृति पनप रही है। - डॉ.गीता गुप्ता


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संघर्ष

आजकल
आज और कल
सुनते ही समय कटता है
दिशान्तरों में
चलते फिरते
आते जाते
युगान्तरों सा दिन निपटता हैं

सुबह घर से रोज़
हर रोज़
निकल कर
लम्बी दूरियां
पैदल चल कर
सूरज की तेज़ किरणों से
चुंधियाती आंखों को मलता
कोने से एक आंसू
टप से निकलता

तेज़ गर्मी में
शरीर की भाप का पसीना
थक कर
हांफता सीना
सिकुडी हुई जेबों में
पर्स की लाश
और
उस लाश के अंगो में
जीवन की तलाश
ख़ुद को हौसला देने को
बड़े लोगों की बड़ी बातें
पर
सोने की कोशिश में
छोटी पड़ती रातें

वो कहते हैं
हौसला रखो बांधो हिम्मत
तुम होनहार हो
संवरेगी किस्मत
ये संघर्ष
फल लाएगा
तू मुस्कुराएगा
बस
थोड़ा समय लेता है
अन्तर्यामी
सबको यथायोग्य देता है

मैं चल रहा हूँ
न तो
उनके प्रेरणा वाक्य
मुझे संबल देते हैं
न ही उनके ताने अवसाद
उनके आशीर्वादों से मैं
प्रफ्फुलित नहीं
न ही
उनकी झिड़की हैं याद

मैं चल रहा हूँ
क्यूंकि
मुझे चलना है
ये चाह नहीं
उत्साह नहीं
शायद यह नियति है
की
मुझे अभी चलना है

सुना है कि
पैरों के छालों के पानी से
जूते के तले के फटने से
जब पैर के तलों का
धरातल से मेल होता है
तब कहीं जा कर
संघर्ष का यज्ञ पूर्ण होता है
वही होती है
संघर्ष के वाक्य की इति
प्रतीक्षा में हूँ
कब होती है
संघर्ष की परिणिती



मयंक सक्सेना
Zee News Ltd., FC - 19, Sector 16A, Noida
09311622028














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कविता :-
हर तरफ आतंक  अखंड ये देश हमारा
स्वतंत्रता की ६१ वीं वर्षगाँठ
ॐची सोच   ऊँगली पकड़ कर वह बड़ी हुई
ऐ हिंद के युवा  संघर्ष   महिला शक्ति  आह्वान
कुछ-कुछ होता है   माँ    जीवन अल्प विराम
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महिला शक्ति


राजेश चेतन, 126 माडर्न अपार्टमेन्ट, सेक्टर-15, रोहिणी, नई दिल्ली-110085
मोबाईल : +91 9811048542



"राजेश चेतन मूलतः राष्ट्रीय चेतना के कवि हैं। उनकी रचनाओं की ओजस्वी हुंकार में मातृभूमि, घर, प्यार और देश की अस्मिता से समर्पित संस्कारों की उदबोधन भरी पुकार है। देश की मिट्टी की सौंधी सुगंध से उनकी रचनायें सुवासित हैं। वे हंसाते हंसाते भी व्यंग्यमयी शैली में राष्ट्रीय गौरव की गरिमा का संदेश देना नहीं भूलतें। कविता चेतन के लिये मात्र मनोरंजन का साधन नहीं, राष्ट्र के प्रति सचेत सिपाही का काव्यात्मक समर्पण है और यह प्रतिबद्धता उन में सहज स्फूर्त है, ओढ़ी हुई नहीं है जैसा कि प्रायः अन्य रचनाकारों में देखने को मिलती हैं। यह इस बात से उजागर होता है कि वे अपने जीवन में भी इन भावनाओं को जीते हैं और प्रदीप्त करते हैं।"

- कविवर श्री ओम प्रकाश आदित्य, दिल्ली


पोखरण में
परमाणु के विस्फोट करने वाला
एक कुंवारा
जो विज्ञान को ही
स्वपन सुंदरी मानकर
प्यार करता रहा
अपने आविष्कारों पर ही मरता रहा
हेयर कटिंग सेलून
जाने से भी डरता रहा
जो जवानी में पति ना
बनने के लिये तन गया
वह बुढ़ापे में
राष्ट्रपति बन गया
और जाते जाते कैसी
परम्परा जोड़ गया
खुद पुनः शिक्षक
तथा हिन्दुस्तान को
शिक्षा देने के लिये
एक महिला को
राष्ट्रपति भवन
छोड़ गया
विधि का खेल निराला है
भाग्य बड़ा बलवाला है
क्या कर लेगा एन डी ए
यू पी ए रखवाला है
पर आम व्यक्ति
इस घटना से परेशान है
क्योंकि चहुंओर महिलाओं
का ही गुणगाण है
घर की राष्ट्रपति महिला
आफिस की राष्ट्रपति महिला
एक देश बचा था, वहां भी
पुरूषों की हार है, क्योंकि
अब उस पद पर भी
महिला ही सवार है
हमने सोनिया जी से पूछा
महिला शक्ति के लिये आप वरदान हैं
माना कि आप महान हैं परन्तु
महिलाओं के प्रति आपका दृष्टिभेद
हम समझ नहीं पाते
प्रतिभा ताई को राष्ट्रपति बनाया
तो कम से कम किरण बेदी को
दिल्ली का हवलदार तो बनाते
मेरे प्रश्न के उत्तर में
सोनिया जी मुस्कुराई तो
हमने अपनी कलम उठाई और लिखा -
यू पी ए आकाश देखिये दस जनपथ
पी एम का आवास देखिये दस जनपथ
कैसा शक्ति केन्द्र बना है भारत में
राष्ट्रपति निवास देखिये दस जनपथ



परिचय: जन्म : भिवानी ( हरियाणा ) शिक्षा : एम . काम. कृतित्व : करगिल की हुंकार (काव्य संकलन) 1999 : भारत को भारत रहने दो (काव्य संग्रह) 2001 : वनवासी राम (आडियो सी डी) 2004 : शंखनाद (वीडियो सी डी) 2005 : रंग दे बसंती (काव्य संकलन) 2007 : तिरंगा (आडियो सी डी) 2008 : सेतुबन्ध (काव्य संग्रह) 2008 : टेढ़ी बातें (व्यंग्यात्मक प्रश्नोत्तर) 2008 विदेश यात्राएँ : ब्रिटेन 2002 : फ्रांस 2002 : अमेरिका 2006 : ओमान 2006 : अमेरिका 2008 : कनाड़ा 2008 विशेष : 1989 हांसी , हरियाणा में पहली बार काव्य पाठ । : 1998 में गणतंत्र दिवस पर लाल किला कवि सम्मेलन में काव्य पाठ । : 2001 भारतीय साहित्य परिषद द्वारा सतपाल चुघ पुरस्कार । : 2002 यू के हिन्दी समिति लन्दन द्वारा सम्मानित । : 2003 में पुरूषोतम प्रतीक पुरस्कार से सम्मानित। : 2004 साहित्य भारती ,उन्नाव द्वारा रमई काका पुरस्कार से सम्मानित । : 2005 संस्कार भारती ,हापुड द्वारा राम कुमार समृति सम्मान । : 2005 सांस्कृतिक मंच, भिवानी द्वारा विशिष्ट सारस्वत सम्मान । : 2007 राजस्थान साहित्य, कला एवं सांस्कृतिक संस्थान द्वारा काव्य श्री सम्मान : 2007 में पानीपत का प्रतिष्ठित कलमदंश पुरस्कार : राष्ट्रीय स्तर के दो हजार से अधिक कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ । अन्य : सह संयोजक राष्ट्रीय कवि संगम : पूर्व अध्यक्ष, अक्षरम : सांस्कृतिक संयोजक, रेडियो सबरंग, डेनमार्क सम्पर्क : 126 माडर्न अपार्टमेन्ट, सेक्टर-15 रोहिणी, नई दिल्ली-110089 मोबाईल : +91 9811048542
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आह्वान


सीताराम महर्षि, कृष्ण कुटीर, रतनगढ़, राजस्थान






करना होगा आज देश की स्थितियों का मूल्यांकन।
आजादी की स्वर्ण जयंती मिलकर आज मनाते
उच्च स्वरों में माता के यश गीतों को दुहराते,
जिन सपनों के लिये शहीदों ने दी थी कुर्बानी
आज देश में कहीं नहीं उन स्थितियों को हम पाते।
वातावरण बना है दूषित, व्याकुल, चिंतित हर जन
भाषा, जाति, प्रांत, मजहब का चक्कर ऎसा चलता
हर भारतवासी का चिंतन नित जाता है छलता
देश प्रेम निस्वार्थ भाव के दर्शन है दुर्लभ से
अपना ही घर भरने का सपना आंखो में पलता।
करना होगा पुनः स्थापित लुप्त हुआ अपनापन
बिना भेद राग के गीत सभी भारतवासी दुहराएं,
नफरत की बातें जो करते तोड़ें उनसे नाता
करें एकता का जो सृजन बढ़ कर गले लगायें।
मातृभूमि के लिए समर्पित हों अपना तन-मन-धन।

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कुछ-कुछ होता है


धमचक मुलथानी, साभार : नई गुदगुदी




मैंने एक बूढ़े व्यक्ति से पूछा-
बाबा ! क्या तुम्हें कुछ-कुछ होता है?
वे बोले- इस बुढ़ापे में
क्या खाक होता है,
कुछ-कुछ के अलावा
सब कुछ होता है।

मैंने एक बूढ़ी अम्मा से पूछा-
माताजी, क्या आपको कुछ-कुछ होता है?
वह पोपले मुँह से बोली
मुँह में दाँत नहीं, पेट में आँत नहीं
इस बुढ़ापे में, किसी का साथ नहीं,
यह बूढ़ा मन
न हँसता है न रोता है,
इस बूढ़े शरीर में
सब जगह से कुछ-कुछ होता है।

फिर मैंने एक नौजवान कन्या से पूछा-
देवी! देवी क्या आप बतायेंगी
क्या? आपको कुछ-कुछ होता है-
वह अपनी एक चप्पल निकालकर बोली
हाँ, होता है बताऊँ !
मैंने कहा- बताना है
तो फिर चप्पल पहनकर बताइये
कुछ-कुछ कैसे होता है
मुझे समझ में आ जाये इस तरह समझाइये।
उतना सुनते ही वह मुस्काराई
फिर मेरे पास आई
पास आकर बोली- भाई साहब
जब बेटी जैसी बहु को जिंदा जलाया जाता है,
जब देश के सुरक्षा सौदे में कमीशन खाया जाता है,
जब नेताओं द्वारा पशुओं का चारा चबाया जाता है,
जब पटेल व नेहरू वाली संसद में
दागदारों को बिठाया जाता है,
जब भगतसिंह व आजाद को आतंकवादी बताया जाता है,
जब राजघाट पर झुठी कस्मों को खाया जाता है
जब कोई गर्भ में ही किसी कन्या का
प्राण हर ले जाता है।
जब माँ सरस्वती की वंदना पर भी प्रतिबंध लगाया जाता है।
फिर भी तुम जैसे युवक
देश की इस हालात को अनदेखा कर,
"चोली के पीछे क्या है" गाना गाता हैं,
तब मेरा मन भीतर से रोता है।
और क्या-क्या बताऊँ?
फिर मुझे कुछ-कूछ नहीं बहुत कुछ होता है।

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हर तरफ आतंक   अखंड ये देश हमारा   स्वतंत्रता की ६१ वीं वर्षगाँठ   
ॐची सोच   ऊँगली पकड़ कर वह बड़ी हुई   ऐ हिंद के युवा   संघर्ष   महिला शक्ति  आह्वान  कुछ-कुछ होता है    माँ    जीवन अल्प विराम
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एशियाटिक सोसाइटी में राजस्थान - लेखक अम्बू शर्मा
वृद्धाश्रम-संस्कृति पनप रही है। - डॉ.गीता गुप्ता


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माँ


जय कुमार 'रुसवा' पता: 66, पाथुरिया घाट स्ट्रीट, कोलकाता-700006


पूजनीय ना अधिक है कोई माँ से ज्यादा
माँ है चेतना, संस्कार, संस्कृति, मर्यादा
माँ जीवन की तसवीर बनाती इसीलिए तो
देवताओं ने सर्वप्रथम माँ को आराधा

अन्तर्मन पावन कर देता है स्वर माँ का
घर मन्दिर रहता है जब तक है घर माँ का
क्षीण आत्मबल कभी नहीं होने देता है
हाथ धरा जब तक रहता है सर पर माँ का

बोल तोतले शिशु के अगर न माँ अपनाती
तो कभी नहीं मानवता को भाषा मिल पाती
कभी न जीवन में मंजिल तक कदम पहुँचते
पहले कदम पे अगर न माँ ऊँगली पकड़ाती

अगर चोट बच्चे को लगती रोती है माँ
बीज हृदय में संस्कार के बोती है माँ
भले-बुरे का ज्ञान कराती सबसे पहले
बच्चे का पहला विद्यालय होती है माँ

जब भी जीवन में घड़ियाँ मुश्किल की आती
सबसे पहले माँ ही है धीरज बंधवाती
सभी उलझने चिन्तन की तब मिट जाती हैं
माँ गोदी में लेकर सर को जब सहलाती

माँ की गोदी में जीवन के सपने सरसे हैं
माँ की गोदी में दुलार के बादल बरसे हैं
माँ की गोदी में सिमटी है सृष्टि सारी
माँ की गोदी खातिर देवता भी तरसे हैं

है विशाल माँ का मन जैसे नील गगन
और है इतना कोमल जैसे खिला सुमन
अगर पिता मन होता अपने बच्चों का
तो माँ का मन होता उस मन की धड़कन

माँ के मन में है शबनम जैसी षीतलता
और पूजन के थाल सरीखी है पावनता
सुधा कुंभ है अगर कहीं है माँ के मन में
माँ के मन में गंगा-यमुना की निर्मलता

माँ के मन में रवि-शशि का आलोक भरा है
सहनशीलता माँ मन की उर्वरा धरा है
अगर स्वर्ग धरती पर कहीं उतरता है तो
वह तो केवल माँ के चरणों में उतरा है।

‘‘मातृ देवो भव’’ हर शास्त्र हमें कहता है
माँ के मन में ममता का झरना बहता है
माँ के मन से पावन ना स्थान है कोई
इसीलिए ईश्वर माँ के मन में रहता है।


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जीवन अल्प विराम


डॉ. गणेशदत्त सारस्वत, सारस्वत सदन, सिविल लाइन्स, सीतापुर-261001..


कौन सका है रोक, जिसका जाना है नियम।
व्यर्थ मनाना शोक, अजर-अमर है जीव यह।।
नष्वर तन दुख मूल, पंचतत्त्व से जो रचित।
मिल जाना है धूल, मात्र नियति इसकी यही।।
गर्व न कर तू मूढ़, यौवन पर, धन-धान्य पर।
समझ रहस्य निगूढ़, अचिर यहाँ की वस्तु हर।।
क्या होगा परिणाम, किसने देखा है यहाँ।
जीवन अल्प विराम, आज अगर तो कल नहीं।।
मत कर सोच-विचार, जो होय है हो रहा।
चिन्तन बना उदार, चिन्ता से रह दूर तू।।
तू उससे है भिन्न, दिखलायी जो दे रहा।
मत हो पगले! खिन्न, जो है वह तू भी वही।।
क्षणभंगुर सम्बन्ध, जितने भी हैं विश्व में।
कुछ दिन का अनुबन्ध, तदुपरान्त निःशेषसब।।
सभी स्वार्थ के मीत, प्रीति दिखावा है यहाँ।
छिपी हार में जीत, अद्भुत यह संसार है।।
स्मृतियों का कोष, सम्बल तेरा है यही।
देने किसी को दोष, भाग्य फलित होता सदा।।
होनी कर स्वीकार, अनहोनी होनी नहीं।
करना क्या प्रतिकार, जो तेरे वश में नहीं।।
विश्व का बाजार, जिसका ओर न छोर है।
साँसों का व्यापार, युगों-युगों से चल रहा।।
लाख करे उपचार, किन्तु न होता लाभ कुछ।
जीवन जाता हार, मौत जीत जाती यहाँ।।
रंगमंच छविवन्त, यह जग एक विशालतम।
है अभिनय जीवन्त, जिसका वह ही सफलतम।।
करना है जो काम, कर ले, देर लगा नहीं।
हो जाएगी शाम, पता नहीं किस ठौर कब।।
पूरी कर निज आयु, जितनी तुझको है मिली।
सुख या दुख की वायु, करे नहीं विचलित कभी।।














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कविता :-
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6 टिप्‍पणियां:

  1. Katha-Vyatha pahali baar dekha - padha. Khubsurat prastuti aur utkrisht rachanaon ke liye badhai.

    Chandel

    जवाब देंहटाएं
  2. कथा- व्यथा अच्छी शुरुआत है। इसके लिए ई-हिन्दी साहित्य सभा परिवार को बहुतों धन्यवाद। एक सुझाव :

    रचना के नीचे जो रचनाकार के नाम व पता दिए हैं वह तो ठीक, पर जो e-mail ID दिए हैं उसमें मेल करने का लिंक होना चाहिए। उसी तरह जिस लेखक का ब्लॉग या साईट दिया गया है उसमें भी लिंक होना चाहिए। इसी प्रकार लेखक के नाम के साथ उस लेखक का परिचय जहाँ लिखा गया है, उसका लिंक होना चाहिए।
    आशा है मेरे इन बात पर विचार करेंगे।

    हर तरफ आतंक कविता अच्छा लगा।

    आपका

    महेश

    जवाब देंहटाएं
  3. mahesh ji, namaskar!
    aapake sujhaw acchen hai. aage bhi hame hamri truti ki tarf dhyan dilaaten rahen. - shambhu choudhary

    जवाब देंहटाएं
  4. आपका यह प्रयास सराहनीय है ! धन्यवाद !

    जवाब देंहटाएं
  5. ब्‍लाग के रूप में यह प्रयोग, सुविधाओं का सार्थक उपयोग है ।


    आभार ।


    गुरतुर गोठ डाट काम आरंभ

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  6. आपका यह प्रयास सराहनीय है ! धन्यवाद !

    जवाब देंहटाएं