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शनिवार, 17 मार्च 2012

'रूह में ...' -ललित अहलूवालिया


अमरीका के फ्री-लैन्स लेखक आदित्य बक्षी के दिलो-दिमाग में ये सुखद आभास तब हुआ जब इंटर-नेट में एक पृष्ठ पर उसके आलेख 'पर्दे में रहने दो' पर लन्दन की उभरती हुई समीक्षक मिस श्रुति आप्टे ने सुघड़ शब्दों मेंखुल कर प्रशंसनीय प्रतिक्रिया दी। विषय स्त्री-पुरुष केप्रेम से नि:सृत होने वालीवेदना, और अंतत: प्राप्त होने वाले आत्मिक-आनंद की अनुभूति पर आधारित था। आदित्य के आलेख की सराहना हुई सो हुई, किन्तु भरपूर ख़ूबसूरत शब्दों से लिप्त श्रुति की प्रभावशाली समीक्षा ने उस पर ऐसे चार-चाँद जड़ दिए कि वो पाठकों के दिलों पर बुरी तरह से छा गई। कुछ दिनों में बात आई-गयी हो गई, और आदित्य हमेशा की तरह दैनिक कार्यों में
व्यस्त हो गया; किन्तु समीक्षा में अभिव्यक्त श्रुति के विचार और दिल को बांध लेने वाले शब्द उसके मस्तिष्क में खलबली मचाते रहते। एक दिन जब उससे रहा नहीं गया तो उसने श्रुति से उसके निजी ई-मेल पर सीधा संपर्क किया और वहीं से उन दोंनों की साहित्यिक, दार्शनिक और जीवन संबंधी चर्चा का कभी ना थमने वाला सिलसिला चल निकला।

आदित्य की सुलझी सोच, भावनात्मक और दार्शनिक रुझान और शालीन व्यवहार से श्रुति जितनी प्रभावित होती, उससे कहीं अधिक आदित्य श्रुति की ओजस्वी
लेखनी के सधे हुए शब्द-प्रवाह में बह निकलता। समाज, साहित्य, संगीत; यानि जीवन के मूल्यों के बारे में दोनों की विचार-धारा इतनी प्रगाढ़ता से समान थी कि ऐसा
कोई दिन नही जाता जब वे अपने साहित्यिक विचार व अनुभव आपस में बांट कर खुशी से विभोर न होते हों। ये विविध परिचर्चाएं उन दोनों को कब बेहद करीब ले
आई, उन्हें पता ही नहीं चला। उभरती हुई समीक्षक श्रुति आप्टे की रोचक टिप्पणियाँ, तथा लेख आदित्य बक्शी केआकर्षक शब्दों का तीव्र प्रभाव, विचार-धारा की अद्भुत समानता, एक गहरी दोस्ती को परवान चढ़ाने लगे, और वो एक दूसरे के लिए अति-अमूल्य होते चले गए।
कुछ ही समय में इंटर-नेट को लांघ कर, निजी ई-मेल पर छलांगें लगता बात-चीत का आदान प्रदान फ़ोन पर भी बह निकला। गहराई तक संवेदन-शील, कांच की तरह तुरन्त चटख जाने वाले दोना ज़ुक व्यक्तित्व मानो भावों व शब्दों के दास बन चुके थे।
थोड़े ही समय में पत्र व्यवहार व फ़ोन पर रोज़ मर्राह की अध्यात्मिक व दार्शनिक विचारशीलता की गहराई, उन्हें समुद्रों दूर होने पर भी इतना समीप ले आई कि दोनों
के हृदय आत्मिक-प्रेम के अमृत से छलकने लगे। प्यार ज्यों-ज्यों गहराता गया, शब्दों द्वारा ही एक दूसरे से छेड़-छाड़, रूठना-मनाना भी चलता रहा; और जल्द ही दोनों पारदर्शी मित्रता के प्रगाढ़ रिश्ते में बंधते चले गए। एक ऐसा रिश्ता, जो शब्दों से दिल में और दिल से रूह में उतरता है।
एक दिन एक भावुक क्षण में श्रुति ने आदित्य से अपने एकाकी जीवन के वे राज़ भी बांटे जो नितांत व्यक्तिगत थे। साहित्य के प्रति उसकी गहन निष्ठा को फालतू-काम बताते हुए पति-देव उसकी उपेक्षा करते-करते, कहीं और दिल लगा बैठे थे। परिणामत: दो बच्चों का उत्तरदायित्व उस पर छोड़, वर्षों पहले किनारा कर चलते बने थे। सुकुमार और अबोध बच्चों को जीवन की कठोर धूप व सर्द एवं शुष्क झोकों से बचाने के लिए श्रुति को केवल बूढ़ी माँ के लुजलुजाते से कमज़ोर आँचल में पनाह मिली। पुराने ज़ख्मों का ज़िक्र करते हुए उसके कंठ का मार्मिक कम्पन साफ़ सुनायी दे रहा था। बातों को हल्का-फुल्का करने के इरादे से आदित्य ने विषय बदला और श्रुति से पूछने लगा कि वह सोने से पहले क्या करती है? श्रुति ने सादगी से बताया कि वो रात को डिनर के बाद कुछ देर पुराने फ़िल्मी गाने सुनती है, फ़िर मुंह पर गुलाबजल लगा कर सो जाती हैं। उसी हल्की-फुल्की बात-चीत के दौरान ही रोमांटिक भाव में बह कर आदित्य ने हँसते हुए श्रुति से कहा कि उसकी दिली-तमन्ना है कि एक
दिन वो उसका सिर गोद में रख कर अपने हाथों से उसके चेहरे पर गुलाबजल लगाए और उसे थपक कर सुलाए। यह सुन कर श्रुति बेसाख्ता हँस पड़ी और बोली
- "हाँ हाँ, क्यों नही; बड़ा नेक ख्याल है। देखो, ज़रूर देखो, सपने देखना खूब अच्छा है"
"चलो सपना ही सही, तुमने 'हाँ' कह दिया, मेर लिए इतना ही काफ़ी है" आदित्य ने चुलबुलेपन से उत्तर दिया।
एक बार, इंटर-नेट पर प्रेषित की गयी आदित्य की एक रचना में जाने-अन्जाने उसके अपने बिखरे हुए रिश्तों की कड़वाहट और अपनों के बीच अकेलेपन का दर्द बड़ी गहराई से उभर कर आया। वर्षों पहले, विवाह संबंधी धोखों के बाद हिस्से में आया एकाकी-पन, और साथ-साथ चलने वाला भारी सन्नाटा। उस पर रचना-धर्मिता की निराशाजनक बाधाएं आदि भी। इस सन्दर्भ में फ़ोन पर श्रुति के केवल एक प्रश्न ने, आदित्य को ऐसा बाध्य किया कि वो अपने अतीत को एक छोर से खींच कर स्वेटर की तरह उधेड़ता चला गया। श्रुति ने उसकी उस साफगोई की उन्मुक्त कंठ से ढेरो सराहना की।
ऐसे ही छोटे-छोटे भावनात्मक अहसास से वे एक दूसरे को समुन्द्रों पार होते हुए भी प्रेमविभोर करते रहते। इस दोस्ती की प्रगाढ़ता में विशेष बात ये थी कि इतनी घनिष्टता के बावजूद भी दोनों में से कोई भी बात-चीत के दौरान वार्तालाप को अनुचित शब्दों द्वारा अभद्र नही करता और न ही निकट-सम्बन्ध होने के हक़ पर कोई
अनुचित मांग। क्योंकि दोनों ही भावनात्मक और आत्मिक रिश्ते में विश्वास रखते थे और रूहानी खूबसूरती में सरापा डूबे रहने में ही उसकी सार्थकता मानते थे। दिल व आत्मा की परतों में पसरा ये अजब गज़ब रिश्ता, पल-पल उनके मधुर- मदिर प्यार की अमूल्य निधि बनाता चला गया । सप्ताह और माह वर्षों में परिवर्तित होते रहे, लेकिन दुर्भाग्य'वश दोनों ओर से ही कहीं किसी का आवागमन नही हो पाया। लेकिन फ़िर भी, ई-मेल तथा फ़ोन द्वारास्थापित हुआ ये रिश्ता गाढा ही होता रहा और वे इस दुर्लभ दूरी को अपने सरलभावों और आकर्षक शब्दों की डोरी द्वारा निकट से निकटतम रखे हुए अजीब सेसुख सपनों में विचरते रहे।
एक बार अमरीका की 'प्रवासी हिन्दू सम्मिति' द्वारा आयोजित विश्व-हिंदी सम्मलेन में श्रुति को न्यू-योंर्क आने का निमन्त्रण प्राप्त हुआ। श्रुति एवं आदित्य का मन खुशी पागल हो उठा कि इतने वर्षों की लंबी प्रतीक्षा के बाद, अब जल्दी ही दोनो की भेंट संभव हो सकेगी। हृदय में स्नेह के समुंदर समेटे श्रुति ने लन्दन से न्यू-योंर्क के लिए प्रस्थान किया। इधर सीने में प्रेम के तूफ़ान थामे आदित्य उसे एयरपोर्ट लेने पहुंचा। दोनों ने एक दूसरे को देखा और देखते ही रह गए। वह सच्चाई उन्हें किसी स्वप्न से कम नही लग रही थी। आदित्य ने उसे अपने घर ठहरने जाने का निमन्त्रण भी दिया, किन्तु श्रुति नेहोटल की सुविधा को ही अधिक मान्यता दी ताकि उसके साथ आए अन्य साहित्यकारों को कुछ बेढब सोचने का अवसर ना मिले। बात ठीक जान कर आदित्य ने भी अधिक दबाव नही डाला। क्यों कि हर बिंदु, हर निर्णय पर, दोनों में सोच की समानता थी , अतः दोनों एक दूसरे की बात, का स्वागत करते थे।

न्यू-योंर्क में सप्ताह भर हर दिन आदित्य ने श्रुति के साथ बिताया तथा उसका खूब मनोरंजन किया। दोनों ने जी भर कर लम्बी-लम्बी बातों की। मस्ती की, लहर में
शहर का कोना-कोना अच्छी तरह खंगाल डाला। अच्छे-अच्छे रैस्टोरेंट में खाना, ब्रॉड-वे शो, बाँहों में बाहें डाले खूब खेलते-मचलते रहना किन्तु ये सब, आचरण को ध्यान में रखते हुए, शालीनता का दामन थामे हुए। घनिष्ता के कारण, कभी कमज़ोर क्षणों में भावुकता के अतिरेक में संतुलन खोने भी लगते, लेकिन निश्छल, उजली दोस्ती के प्रति सघन सम्मान, भावों के उमड़ते तूफानों को दृढ़ता-शिष्टता से थामे रखता। दोनों ही इस बात के प्रति सतर्क रहतेकि कहीं कोई बढ़ता हुआ अनावश्यक क़दम उनकी अनमोल दोस्ती को निगल न जाए।
हर शाम घूमने-विचरने और हिंदी-समारोह से निपटने के पश्चात खाने से निवृत्त हो कर आदित्य श्रुति को होटल के गेट पर छोड़ देता, और कुछ अन्य बात-चीत के बाद श्रुति कहती ... "मैं बहुत थक गयी हूँ.., बहुत नींद आ रही है"
...और आदित्य उसके माथे को चूम होटल के बाहर से ही गुड-नाईट कह कर घर चला आता। एक सप्ताह कब आया, कब गया; पता ही नहीं चला। श्रुति की वापसी पर जुदाई की पीड़ा ने दोनों को बहुत विचलित तो कर दिया, किन्तु दोनों ही उज्ज्वल- प्रांजल रिश्ते पर कुर्बानी देने को कटिबद्ध थे। और प्रेम से सराबोर, संवेदनाओं से झाये अद्भुत रिश्ता, भौतिक दूरियों के बावजूद भी रूह में प्रगाढ़ता से घुला रहा।

श्रुति के लन्दन वापिस लौट जाने के कुछ ही दिनों पश्चात, उधर से ई-मेल व फ़ोन संपर्क सहसा टूट गया। दो दिन, चार दिन, एक सप्ताह और फ़िर इससे भी अधिक; श्रुति का कुछ पता नही था। इधर आदित्य दुःख से आहत और व्याकुल हो उठा। बहुत यतन कर उसने आख़िर एक दिन पता लगा ही लिया कि श्रुति अस्पताल में बीमार पड़ी है। उसका धैर्य टूट गया और उसने शीघ्र ही लन्दन ले लिए प्रस्थान किया। सारी औपचारिकता को तोड़ता हुआ वो सीधे अस्पताल जा पहुंचा। श्रुति एकाएक उसे अस्पताल में देख कर हैरान थी और गदगद भी। पास खड़े बड़ी बहन और जीजा सोच में थे कि श्रुति ने उन्हें आदित्य के बारे में कभी कुछ बताया नहीं। श्रुति को लेकर आदित्य की इतनी बेचैनी, संवेदनशीलता, अस्पताल में दिन-रात एक कर श्रुति की देख-भाल करना; अतैव दूसरी ओरश्रुति का आदित्य के इस समर्पण पर रीझना; कभी आँखे चुराना, दीदी और जीजा के लिए उनके रिश्ते की भावनात्मक गहराई को समझने के लिए काफी था।
"इतना प्यारा दोस्त, और तूने आज तक हमसे ज़िक्र तक भी नही किया। पर जाने क्यूँ, ये कुछ जाना पहचाना सा लगता है" दीदी ने श्रुति की आँखों में झांकते हुए कहा -
श्रुति कुछ न बोली बस छलछलाई आँखों से दीदी के गले लग गई।

अस्पताल से डिस्चार्ज होने के पश्चात सारी औपचारिकताएं पूरी कर, दीदी और जीजू ने श्रुति कोआदित्य के साथ उसके फ़्लैट पर छोड़ दिया तथा अपने घर चले गए। अंदर आकरआदित्य ने श्रुति को कंधे से पकड़ सोफे पर बैठा दिया और उसके उलझन भरे चहरे को पढ़ने लगा। "ये डिप्रेशन का रोग तुम्हें ...?" आदित्य ने सरल भाव से पूछा।
"सब से बड़ा कारण तो तुम ही हो""मैं ...?"
कहते-कहते कमजोर व भावानात्मक रूप से बिखरी हुई सी, श्रुति एकाएक सोफे से उठी और आदित्य से लिपट गई। आदित्य उसके इस प्रकार सहमें बच्चे की तरह लिपट जाने से भावुक हो उठा। देर तक दोनों वैसे ही खड़े रहे नि:शब्द। श्रुति उसकी बांहों के दायरे में घिरी ऐसा महसूस कर रही थी किमानो दुनियाँ-जहान की खुशियाँ उसमें सिमट आई हों। वो पल दोंनोके लिए एक चिरंतन अलौकिक सुख का पल था।
"तो मैं चलूँ...? होटल पहुँच कर सामान भी पैक करना होगा। बस आज की ही तो मुलाक़ात शेष है, कल शाम को वापिसी की फ्लाईट है"
"रुक नही सकते क्या..., 'झब्बू' कहीं के...?"
'झब्बू' शब्द सुनते ही आदित्य ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। मानो उसके पाँव फर्श पर जम से गए हों। स्कूल के सब दोस्त उसे इसी नाम से पुकारते थे। श्रुति ने उसके सीने में मुंह छुपा लिया। कुछ देर फ़िर खामोशी रही। "तो तुम जानती थी कि ये मैं ही हूँ; 'आरती'?"
"हाँ.., न्यू-योंर्क में एयरपोर्ट पर तुम्हें देखते ही पहचान गयी थी"
"सच पूछो तो मैने भी तुम्हें..."
"तो फ़िर बताया क्यूँ नही...?
"मैं डर गया था; कहीं पच्चीस साल पहले की बात याद दिला कर तुम्हें खो ना बैठूं"
"दरअसल मैं भी डर गयी थी, कि कहीं तुम फ़िर से ना गुम जाओ"
"क्या तुम अब भी मुझे चोर समझती हो?"
समय की पर्त में दबे किताब के पन्नों पर मानो फ़िर से शब्द उभरने लगे, और आदित्य श्रुति यानि आरती को सीने से लगाये पच्चीस वर्ष पहले के अतीत में विचारने लगा।
"तुम्हारी माँ ने मुझे मंदिर की दान-पेटी से रूपए चुराते देख लिया था। वो क्षण कुछ ऐसा बन गया कि मैं रूपए पेटी में वापिस नही डाल सका। मैने पहले ऐसा कभी नही किया था; और ना ही बाद में। बस उस दिन..."
"क्यों कि उस दिन मेरे जन्म दिन पर तुम्हें एक उपहार खरीदना था; मुझे पता है। पर तुमने उपहार ख़ुद ना देकर अपनी अपने दोस्त कार्तिक के हाथ क्यों भेज
दिया..?"
"मैं डर गया था; कहीं तुम्हारी माँ ने तुम्हें वो सब बता दिया होगा तो तुम.."
"तुम्हारी चोरी वाली बात तो माँ ने मुझे बरसों तक नही बतायी। लेकिन तुमने कार्तिक के हाथ वो उपहार क्या भेजा, उसे मेरे जीवन में ग्रहण बना कर ही भेज दिया"
"क्या...? कार्तिक ने तुमसे...?"
"हाँ.., उसने माँ पर जाने कैसा जादू चलाया कि मुझे उसके साथ..। तुम्हारेअचानक गुम हो जाने से माँ-बाबा का हौसला और बढ़ गया। शादी के बाद कार्तिक ने मेरा नाम बदल दिया। उसको 'आरती' नाम पसन्द नही था। शायद 'आरती' के साथ 'आदित्य' यादआना पसन्द नही था। साल भर में ही कार्तिक मुझे लन्दन ले आया"

श्रुति के लन्दन में बस जाने के बाद जो कुछ हुआ उसने सब विस्तार से बताया। ये भी कि कार्तिकसे अलग होने के कुछ साल बाद वो आदित्य को ढूँढने देहली गयी थी, किन्तु निराश होकर लौट आई।
श्रुति को थका हुआ देख करआदित्य ने उसे बिस्तर पर लिटा दिया फ़िर कुर्सी घसीट कर पास बैठगया और बातों का सिलसिला जारी रहा। आदित्य ने बताया कि
किस परिस्थिती में अमेरिका में बसी एक लड़की से उसका विवाह हुआ था। अमरीका आने के साल भर बाद ही उसे पता चल गया कि लड़की ने पारिवारिक दबाव में आकर उससे शादी की थी, अन्यथा उसकी तो पुरुषों में कोई रुची ही नही थी। लम्बे-लम्बे अवकाश में वो लड़की अपनी गर्ल-फ्रेंड्स के साथ बाहर समय व्यतीत करती थी। उन दोनों में कभी कोई शारीरिक सम्बन्ध भी स्थापित नही हुआ था।
रात के आठ बज चुके थे। आदित्य ने श्रुति से पूछ कर किचन का सामान ढूंडा और प्यार से उसके लिए खिचडी बनायी। ख़ाने से निवृत्त हो कर दोनों रात लगभग दस बजे से ग्यारह बजे तक अपनी पसन्द के कुछ पुराने गीत सुनते रहे। धीरे-धीरे श्रुति की पलकें बोझिल होने लगी।
"मुझे नींद आ रही है, सामने के दराज़ में गुलाब जल की शीशी रखी है, क्या तुम .."
"कब से ये मेरा सपना था कि अपने हाथों से ..."
"मैने कब माना किया था; न्यू-योंर्क में हर शाम तुमको जाने से पहले मैंने कहा 'मुझे नींद आ रही है,' और तुम ..."
आदित्य के चेहरे पर एक मंद सी मुस्कान फैल गयी । वो दराज़ से गुलाब-जल की शीशी निकाल लाया। बिस्तर पर आधी सी लेटी श्रुति ने अपना सिर उसकी गोद में रख दिया। देर तक एक अलौकिक प्रेम में सिक्त वातावरण बना रहा। मस्तिष्क में फैली चिर-नि:स्तब्धता से अठखेली करते ; पुराने फिल्मी गीत गूंजते रहे और
श्रुति अदित की गोद में सिर रख कर लेटी रही। फ़िर नजाने कब दोनों की आँख लग गयी।
सुबह की महकती ताज़गी में आदित्य अंगड़ाई लेता हुआ उठा तो देखा चाय की तैयारी किये टेबल पर श्रुति उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। सिराहने की टेबल पर रैप किया हुआ एक उपहार रखा देखा। उसे पहचानने में देर नही लगी।
"ये तुमने आज तक खोला ही नही..?" आदित्य ने विस्मय हो कर पूछा
"नही, आज तक सम्हाल कर रखा है; तुम्हारे सामने खोलना चाहती थी। उठाओ और अपने हाथों से मुझे दो" श्रुति ने मुस्कुराते हुए आज्ञा भरे स्वर में कहा।
रोबिन्द्र नाथ की 'गीतांजली' को देखते ही श्रुति ने होठों से चूम लिया और तुरन्त ही खोल कर पढ़ने लगी। .... और फ़िर देर तक चाय की चुस्कियों के साथ कवीन्द्र के एक प्रचलित गीत 'मालोती-लता' पर चर्चा होती रही।

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