बड़े साहब हड़बड़ी में थे और अपना काम समेट कर कहीं जाने ही वाले थे कि अचानक हिम्मत सिंह ने चेम्बर में प्रवेश करते हुए विस्फोट किया- "साहब ठाकुर दुर्जन सिंह के खिलाफ F.I.R. दर्ज हुई है।"
इस समाचार से मानो कुर्सी खिसक गयी हो साहब की, उसीके पैसों से तो ये थाना चल रहा है; और फिर चुनाव सर पर है, ऐसी स्थिति में....!
क्या मुसीबत है, कोई चैन से बैठने भी नहीं देता है। साहब का मुंह कड़वा हो गया। ठाकुर साहब के खिलाफ ये कोई पहली शिकायत नहीं थी, अभी पिछले दिनों ही छोटे थाने के सिपाही ने दफ़्तर में सरकारी कागजों से छेड़छाड़ का आरोप लगाया था, हालाँकि उसने ठाकुर साहब का नाम नहीं लिया, पर बड़े साहब की तफ्तीश में उनका नाम स्पष्ट उजागर हुआ था। सिपाही को तो डांट-डपट कर और घुड़की देकर मामला दबाने को कह दिया गया था, और साथ में हिदायत भी दे दी गयी थी की अगर थाने में रहना है तो साहब लोगों की बातों को हज़म करने की आदत डाल लेवे, अभी ये मामला शांत भी नहीं हुआ था की ये नया मामला वो भी सीधे-सीधे इसी थाने में।
"मामला क्या है? किसने की है रिपोर्ट" - साहब ने एक प्रश्नभरी मुद्रा में हिम्म्त सिंह से पुछा
साहब का चेहरा देखकर हिम्मत सिंह को तो पसीने ही आ गये,
"आज दुखिया की तो खैर नहीं", हिम्मत सिंह ने मन ही मन में सोचा।
जी...ज्ज्ज्जी ! हजूर ! दुखिया ने कराई है रिपोर्ट, कह रहा है; मेरी जीवन भर की कमाई पूंजी ठाकुर साहब ने हड़प ली। बुढउ को ठाकुर साहब का भी डर नहीं, बताइए तो.. मैंने घुड़की दी पर उसने कहा- "फांसी पर लटक जाईब... झूठ न बोईली..." रिपोर्ट अभी नोट ही किया है; आगे आप जो आदेश देंवे।" हिम्मत सिंह ने कहा।
उधर मामला तूल पकड़ता जा रहा था, गांव में बात, जंगल की आग की तरह फैल रही थी, पत्रकार लोग सीधे साहब से जवाब पाने को उतावले हो रहे थे। चुप बैठने से भी काम चलने वाला नहीं था।
तुरन्त साहब ने ठाकुर साहब को फ़ोन मिला कर दो मिनट बातें की। पता नहीं ठाकुर सा'ब ने उधर से क्या बातें कही, साहब के चेहरे पर चमक आ गयी।
थाने में सभी हवलदारों की एक "राउंड टेबल मीटिंग" बुलाई गयी। आखिर महकमे की "इज़्ज़त" का सवाल था।
अगले दिन ये चर्चा आम थी- जाँच में पाया गया की दुखिया के पास कोई संपत्ति थी ही नहीं, सो कोई चोरी हुई ही नहीं, सारा मामला ठाकुर साहब की प्रतिष्ठा को धूमिल करने के लिए उठाया गया है,
इस सारे मामले में दुखिया स्पष्ट दोषी है, सरकारी कागजात भी दुखिया के खिलाफ चीख-चीख कर बयान दे रहे थे कि मामला निराधार पाया गया, अतः मामले को फाइनल अनुशंसा के साथ समाप्त समझा जाए।
सूबे में लगे ठाकुर दुर्जन सिंह के बड़े-बड़े बैनर "कानून में मुझे आस्था है" सड़कों पर लगा रहे थे। जो गाँव के लोगों के लिये जीत का एक बड़ा उत्सव जैसा ही था।
दूसरी तरफ दुखिया अपनी जीवनभर की पूंजी से हमेशा के लिये हाथ धोकर एक कोने में बैठा आँसु बहा रहा था।
मन ही मन में दुखिया थाने में जाने की भूल के लिये पश्चाताप भी कर रहा था और सोच रहा था- आखिर अपराधी कौन...?
जिसकी चोरी हुई....या जिसने चोरी की....?
- सुमित चमड़िया, पटना से
सुमित जी , लिखने की शैली लोगों को प्रभावित करेगी, लिखते रहिये। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ है।- शम्भु चौधरी
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