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बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

लघुकथाः आवभगत


कई बार कालबेल का बटन दबाने के उपरांत अंदर से एक युवती निकल कर बाहर आई और बरामदे में से ही ऊँची आवा़ज में पूछा, ‘‘यस? क्या बात है? किससे मिलना है?’’ वर्मा जी ने बतलाया कि मैं रामनारायण जी के फिस में ही काम करता हूँ और उन्हें कुछ ज़रूरी कागज़ात देने आया हूँ। ये सुनकर युवती ने कहा कि मैं अभी पापा को बुलाती हूँ और बिना गेट खोले ही ज़ीने से ऊपर चली गई। लगभग पन्द्रह मिनट बाद रामनारायण जी ज़ीने से नीचे उतरते दिखलाई पड़े। साथ ही उनकी बेटी भी एक हाथ में एक ट्रे में पानी से भरा एक गिलास रखे उनके पीछे-पीछे नीचे उतर रही थी। बाहर तेज़ा धूप थी। रामनारायण जी ने लोहे का भारी गेट खोलते हुए पूछा कि भई वर्मा जी इतनी तेज़ा गर्मी में दोपहर के वक्त कैसे आना हुआ? अंदर बरामदे में आने पर वर्माजी ने काग़ज़ों का एक पुलिंदा उनकी ओर बढ़ा दिया।
रामनारायण जी वहीं बरामदे में खडे़ होकर काग़ज़ों को देखने लगे। काग़ज़ों को देखने के बाद रामनारायण जी के चेहरे पर रौनक़ आ गई और कहने लगे कि वर्मा तुमने बहुत अच्छा किया जो ये पेपर्स मुझे फौरन देने के लिए आ गये। इतना कहकर उन्होंने बेटी के हाथ से ट्रे लेकर पानी का गिलास वर्माजी की ओर बढ़ाते हुए कहा कि लो पहले पानी पीओ। इतनी गर्मी है प्यास लगी होगी। वर्माजी ने गिलास अभी होंठों से लगाया भी नहीं था कि रामनारायण जी ने वहीं बरामदे में खड़े-खड़े पूछा, ‘‘वर्माजी क्या सेवा करूँ आपकी? आओ अंदर तो चलो!’’ वर्माजी ने गिलास का सारा पानी एक ही झटके में हलक़ से नीचे उतार कर कहा कि धन्यवाद रामनारायण जी अब इजाज़ात दीजिए। रामनारायण जी ने हाथ में पकड़ी हुई ट्रे वर्माजी की ओर बढ़ा दी। वर्माजी ने खाली गिलास आहिस्ता से ट्रे में रख दिया और धीरे-धीरे चलते हुए गेट से बाहर आ गए। रामनारायण जी ने झटके से लोहे का भारी गेट बंद करके कुंडी चढ़ा दी।


सीताराम गुप्ता,
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