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बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

लघुकथा: मेहमाननवाज़ी


प्रासादनुमा आलीशान भवन में दावत चल रही थी। चारों ओर लज़ीज़ पकवानों के स्टाल लगे हुए थे जिनकी गंध सभी मेहमानों को बेचैन किये दे रही थी। तेज़ रंगीन रोशनियों और मादक संगीत की धुनों ने माहौल को और भी हसीन और आकर्षक बना दिया था। आकर्षक पोशाकों में सजी-धजी वेटरों की पूरी फ़ौज वहाँ तैनात थी जो घूम-घूमकर मेहमानों को खाना सर्व कर रही थी। एक चम्मच खाना भी ठीक से मुँह तक न जा पाता था कि कोई न कोई वेटर नया पकवान लेकर हाज़िर हो जाता था। दर्जनों फोटोग्राफर ओर वीडियोग्राफर मुस्तैदी से अपने-अपने कामों में लगे हुए थे। फ्लैश पर फ्लैश पड़ रहे थे। प्रशांत कुमार के लिए ये सब असह्य होता जा रहा था। उनके मुँह में दो-चार कौर भी ठीक से नहीं गए थे। वे अपनी प्लेट लिए-लिए चुपचाप एक कोने में जाकर खड़े हो गए।

जैसे ही मेज़बान राहुल बाबू की नज़र प्रशांत कुमार पर पड़ी वे उनकी ओर लपके। उनके पीछे-पीछे दर्जनों बैरे भी लज़ीज़ व्यंजनों से भरी ट्रे लेकर लपके और साथ ही फोटोग्राफरों ओर वीडियोग्राफरों का झुंड भी। राहुल बाबू ने प्रशांत कुमार से पूछा, ‘‘भाई साहब यहाँ अकेले क्यों खड़े हैं? क्या ख़िदमत करूँ मैं आपकी?’’ प्रशांत कुमार ने कहा, ‘‘ राहुल भाई मेहमाननवाज़ी की शूटिंग ही चलती रहेगी या खाना भी खाने दोगे?’’ ‘‘मैं समझा नहीं,’’ राहुल बाबू ने प्रशांत कुमार की तरफ किंचित हैरानी से देखते हुए पूछा। ‘‘समझने की ज़रूरत भी नहीं है। बस आप इतनी ख़िदमत कीजिए कि अपनी फौज को अपने साथ ले जाइये ताकि मैं इत्मीनान से खाना खा सकूँ’’, इतना कहकर प्रशांत कुमार राहुल बाबू को उनकी फौज के साथ वहीं छोड़कर पास ही खाली पड़ी एक मेज़ की ओर बढ़ गए।



सीताराम गुप्ता
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